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लद्दाख गतिरोध : भारत के लिए चुनौतियां एवं अवसर

dhiraj
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भारत और चीन के बीच , पूर्वी लद्दाख सीमा पर गलवान नदी घाटी में 05 मई 2020 से ही गतिरोध है। यह सब चीनी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (PLA) द्वारा शुरू किया गया जिसने हमारे सैनिकों को उस दिन पैंगोंग झील पर गश्त करने से मना किया, जिसके परिणामस्वरूप दोनों पक्षों के लगभग 250 सैनिकों के बीच जमकर हाथापाई हुई और तब से जारी गतिरोध ने आज परमाणु हथियारों से लैस दो हिमालय पड़ोसी देशों को एक दूसरे के आमने सामने के सामने खड़ा कर दिया है। भारत और चीन के बीच लगभग 3488 किलोमीटर की वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) है तथा अरुणाचल प्रदेश से लेकर लद्दाख तक एलएसी मुद्दे पर अब तक इस तरह की कई झड़पें हो चुकी हैं।

 

 

पिछली बार आमने सामने सबसे बड़ी झड़प 1967 में नाथू ला और चो ला में हुई थी, जिसमें भारत ने निर्णायक और सामरिक विजय प्राप्त की थी और चीन को पीछे हटना पड़ा था। इसी तरह जब भारत सरकर ने 1986 में अरुणाचल प्रदेश को राज्य का दर्जा दिया था तो चीन की भौहें फिर से तन गयी थीं और उसकी एवज़ में उसने 1987 में समडोरोंग चू में उसने दख़ल देने की कोशिश की थी और 1962   के बाद यह पहला गतिरोध था जिसमें दोनों देश युद्ध के कगार पर थे लेकिन भारतीय सेना के त्वरित ऑपरेशन Falcon ने चीन के मंसूबो पर पानी फेर दिया था और उन्हें पीछे हटना पड़ा। इसके बाद एलएसी पर कई छोटे मोटे टकराव हुए पर जो टकराव पुनः दोनों देशों को आमने सामने ला दिया था , वह था 2017 का  डोकलाम गतिरोध , जिसमें चीन ने भूटान के डोकलाम में सड़क बनाने की कोशिश की और भूटान के अनुरोध पर भारत ने चीनी दुस्साहस को मजबूती के साथ रोका और अंततः 73 दिनों के गतिरोध के बाद चीन को पीछे हटना पड़ा।

 

 

 

मेरी जानकारी के अनुसार पूरे एलएसी पर लगभग 20 विवादित प्वाइंट हैं और इन सीमा विवादों पर पिछले 50 वर्षों में कई दौर की वार्ता हो चुकी है। हालांकि पिछले 50 वर्षों में एलएसी पर किसी भी झड़प में कोई आग्नेयास्त्र या गोलियाँ  नहीं चली है। सरकारी अवलोकन के अनुसार 2018 की तुलना में 2019 में एलएसी पर चीन की तरफ़ से अधिक ज़मीनी एवं हवाई उल्लंघन देखा गया है।इससे पहले के गतिरोधों के विपरीत, वर्तमान एलएसी सीमा गतिरोध एक से अधिक बिंदुओं पर हैं। जब मैं अतीत का अवलोकन करते हुए वर्तमान दक्षिण पूर्व एशियाई तथा वैश्विक राजनीतिक / आर्थिक/ सामरिक घटनाक्रमों की तुलना और विश्लेषण करता हूं, तो मैं निम्नलिखित स्पष्ट कारण निकल पाता हूँ जिसकी वजह से आज दो परमाणु शक्तियाँ एक दूसरे के आमने सामने खड़ी हैं:

 

१.  अगस्त 2019 में भारत के गृह मंत्री ने संसद में हुंकार भरी कि  अक्साई चीन हमारे देश का अभिन्न अंग है और हम इसे वापस लेंगे। इसी सत्र में संसद ने अनुच्छेद 370 और 35A को भंग कर दिया था जो कि जम्मू और कश्मीर राज्य को दिया गया एक विशेष प्रावधान था। गृह मंत्री  का बयान तथा 370 को समाप्त करना चीन तथा पाकिस्तान दोनों को इस तरह नागवार गुजरा कि चीन ने इस मुद्दे को चार बार संयुक्त राष्ट्र में उठाया लेकिन किसी भी स्थायी सदस्य ने उसपर ध्यान नहीं दिया। अतः मुझे लगता है कि चीन ने अक्साई चीन पठार पर अपने दावे का दिखावा  करने के लिए, अपनी वैकल्पिक योजना के रूप में लद्दाख के गलवान में नए सीमा गतिरोध को जन्म दिया।

 

२.  भारतीय मौसम विभाग द्वारा हाल ही में पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) तथा गिलगित-बाल्टिस्तान को अपने दैनिक मौसम पूर्वानुमान बुलेटिन में शामिल करके तथा भारतीय सर्वेक्षण विभाग द्वारा गिलगित-बाल्टिस्तान तथा अक्साई चीन को लद्दाख केंद्र शासित में दिखाके, भारत ने एक बार फिर पीओके तथा अक्साई चीन को पुनः प्राप्त करने के लिए संसद संकल्प 1994 के तहत कूटनीतिक तथा सामरिक रूप से पुनः अपने दावे की घोषणा की है। ये सभी घटनाक्रम चीन और पाकिस्तान के लिए एक झटके के रूप में आए और यह एक कारण है जिससे बौखलाया चीन अपनी खीज एलएसी समझौता का उल्लंघन कर लद्दाख में तनातनी कर रहा है।

 

३. कोरोना वायरस के उत्पत्ति जनक देश होने के कारण, चीन मानव जीवन के बड़े पैमाने पर नुकसान का कारण बन रहा है और संयुक्त राज्य अमेरिका सहित कई देशों ने वायरस की उत्पत्ति के बारे में जांच की मांग तेज कर दी है क्योंकि उन्हें लगता है कि कोरोना रणनीतिक रूप से चीन द्वारा एक प्रयोगशाला में विकसित किया गया। मेरे अलावा बहुत सारे सामरिक विचारकों का यह दृढ़ मानना है कि चीन द्वारा भारत के साथ एलएसी पर हालिया टकराव इस कोरोना पर चीन की जबाबदेही से वैश्विक ध्यान हटाने की एक सोची समझी चीनी कोशिश है।

 

४. लद्दाख़ गतिरोध का एक और महत्वपूर्ण कारण 60 बिलियन डॉलर से अधिक का चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) है जो बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) की एक प्रमुख परियोजना है। चूंकि सीपीईसी परियोजना पीओके/ गिलगित-बाल्टिस्तान में स्थित है, इसलिए चीन की ये धारणा है कि यदि भारत पीओके और गिलगित-बाल्टिस्तान पर कब्जा करने का प्रयास करता है, तो वह सीपीईसी परियोजना के लिए समस्या खड़ी हो जाएगी।इसके साथ साथ चीन नहीं चाहता कि भारत की पहूँच गिलगित तक हो क्योंकि ऐसा होने पर गिलगिट भारत के लिए अक्साई चीन को क़ब्ज़ा करने के हेतु घेरने के लिए एक और सीधा तथा सामरिक प्वाइंट हो जाएगा।

 

५. प्रमुख कारणों में से एक मुख्य कारण यह भी है कि एक पिछले 4-5 वर्षों में एलएसी पर भारत द्वारा ज़ोरदार ढंग से सामरिक सड़कों तथा अन्य रक्षा बुनियादी ढांचों के निर्माण को तीव्रता दी है जिससे चीन की विस्तरवादी गणित को झटका लगा है है। 1962 में एलएसी पर इस तरह के किसी प्रकार के अवसंरचना का  न होना, पराजय का एक मुख्य कारण था। चीन बहुत अच्छी तरह से समझता है कि ये सीमा सड़कें और अन्य इन्फ्रास्ट्रक्चर भारत को रणनीतिक रूप से बहुत सशक्त कर देंगी जो अक्साई चीन के लिए एक खतरा बन जाएगा है। और यदि ऐसा होता है तो यह एक चाइना कॉन्सेप्ट के लिए एक बहुत बड़ा ख़तरा हो जाएगा। चीन नहीं चाहता कि लद्दाख क्षेत्र में एक मजबूत भारत की नीव पड़े।

 

६. चीन का हमेशा से भारत को दक्षिण एशिया तक सीमित रखने की पूरी कोशिश रही है लेकिन विगत कुछ वर्षों से जीवंत भारतीय नेतृत्व तथा शीर्ष  व्यक्तित्व तथा उन लोगों के विश्व नेताओं तक पहुंचने तथा भारत के लिए अनुकूल कूटनीतिक तथा रणनीतिक समर्थन प्राप्त करने के लिए उनके दृढ़ इच्छा के कारण (यहां उल्लेख करना चाहूँगा कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद स्थायी P5 के नेताओं ने मोदी सरकार के 100 दिनों के भीतर भारत का दौरा कर लिया था जो बताता है कि आम चुनाव में एक नेता के लिए एक बड़ी जीत के बाद कोई देश विश्व समुदाय तथा कूटनीतिक मामलों के लिए कैसे महत्वपूर्ण हो जाता है) भारत की राजनीतिक / आर्थिक / रणनीतिक मानचित्र पर बढ़ती प्रतिष्ठा तथा क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर एक बड़ी शक्ति बनना चीन को नागवार गुजरता है। लद्दाख़ तथा एलएसी पर आए दिन होने वाले टकराव के पीछे चीन की की यही मंशा काम करती है।

 

७. विगत कुछ वर्षों से चीन के आंतरिक हालात बहुत ही ख़राब हुए हैं। लद्दाख़ जैसे मसले चीनी नेतृत्व का कुप्रयास ही है कि ताकि चीनी नागरिकों का ध्यान उन आंतरिक मुद्दों से हटाये, जिन्होंने शी जिनपिंग की राष्ट्रीय राजनीति में लोकप्रियता को निचे ला दिया है। इन आंतरिक मुद्दों में हांगकांग  में जनता  आवाज़ दबाना, देश में मानवाधिकारों के उल्लंघन का काला अध्याय, संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ वर्तमान में व्यापार और राजनीतिक गतिरोध, संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत के प्रति ताइवान का झुकाव, चीन में पुनः राजनीतिक परिवर्तन तथा लोकतांत्रिक स्वतंत्रता की मांग, बेरोजगारी की बिगड़ती हालत तथा शी जिनपिंग की खुद की कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर भारी असंतोष का सामना करना इत्यादि है। आप देख सकते है कि उपरोक्त मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए चीन इसी समय अपने कई सीमाओं पर विवाद छेड़ रखा है।

 

८. पिछले पांच साल में भारत ने कुछ अभूतपूर्व सामरिक साहस का परिचय दिया जो साधारणतः एक बहुत सबल और क्षेत्र के दबंग राष्ट्र द्वारा किया जाता है जैसे कि 2015 में नगा विद्रोहियों को खत्म करने के लिए म्यांमार में सर्जिकल स्ट्राइक, 2016 में उरी घटना के खिलाफ पाकिस्तान में घुसकर सर्जिकल स्ट्राइक, 2017 में डोकलाम में चीन को पीछे ढकेलना तथा 2019 में पाकिस्तान में भारतीय वायुसेना द्वारा पुलवामा का बदला लेने के लिए किया गया हवाई हमला इत्यादि ने विश्व समुदाय को भारत की बढ़ती सैन्य तथा दृढ़ इच्छा शक्ति का  संकेत दिया । चीन जो कि विश्व शक्ति बनने की आकांक्षा रखता है को भारत जैसे शक्तिशाली पड़ोसी को पचाना ज़रा कठिन होता है और ऐसी दशा में चीन हमेशा भारत को नीचा दिखाने के लिए कुछ न कुछ करता है और मौजूदा लद्दाख़ गतिरोध उसी श्रृंखला का एक भाग है।

 

९. कटु विस्तारवादी  सोच रखने वाले चीन को ऐसा लगता है कि भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान के सैन्य गठबंधन (क्वाड) से ख़तरा है। क्वाड इंडो-पैसिफिक क्षेत्र के परिदृश्य को बदलने की क्षमता रखता है, आर्थिक रूप से वे चीनी अर्थव्यवस्था को असंतुलित कर सकते है तथा OBOR परियोजना को भी प्रभावित कर सकते है। चीन क्वाड को अपने विरोधी गुट के रूप में देखता है और उसने अपने सदस्यों के लिए औपचारिक राजनयिक विरोध जारी करके कई बार आपत्ति जताई है।

 

१०.  73 दिनों के गतिरोध के बाद डोकलाम में चीन को मिले झटके से चीन के सत्ताधारी नेतृत्व की गहन घरेलू आलोचना हुई थी तथा इस डोकलाम प्रकरण से सामरिक स्तर पर चीनी कद को धक्का लगा था। वर्तमान लद्दाख गतिरोध चीनी नेतृत्व द्वारा अपनी प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करने का एक प्रयास हो सकता है।

 

हालांकि सैन्य तथा राजनयिक मंचों पर कई दौर की बातचीत के बावजूद गतिरोध जारी है। चीन वार्ता को बनाए रखने की बात करता रहा पर इसे बहुत गम्भीरता से न लेकर दिखावा करते हुए, इन वार्ताओं के दौरान अपनी सैन्य शक्ति का एलएसी पर तैनाती करता रहा। एक्कीसवीं सदी का भारत आज उसके इस छद्म रूप को जानता है इसीलिए भारत भी अपने सैन्य तैयारी में यथोचित बढ़ोत्तरी करता रहा है। वैसे मेरे विचार से भारत इस गतिरोध से अतिकुशल रणनीतिक तथा कूटनीतिक ढंग से निपट रहा है। अगर यह गतिरोध जारी रहता है या आगे बढ़ता है तो इस दौरान भारतीय नेतृत्व के समक्ष निम्नलिखित चुनौतियाँ होंगी जिनका मुझे पूर्ण विस्वास है कि भारतीय सामरिक नेतृत्व  उनका कुशल प्रबंधन के साथ सामना करेगा:

 

क. भारत दुनिया का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश है, इसलिए विश्व व्यापार के लिए विश्व का दूसरा सबसे बड़ा बाजार है और कुछ महीनों पहले ही विश्व आर्थिक मंच (डबल्यूईएफ़) के अनुसार, हम 2020 तक दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी उपभोक्ता अर्थव्यवस्था (Consumer Economy) बनने की ओर अग्रसर है। ऐसे में भारतीय राजनयिकों/रणनीतिकारों के लिए एक चुनौती है कि कैसे इस दूसरे सबसे बड़े ग्राहकों वाले मार्केट को चीन के विरुद्ध आर्थिक युद्ध के लिए एक हथियार के रूप में प्रयोग करें। चूँकि भारतीय घरेलू बाजार में चीन की बहुत बड़ी भागीदारी है, इसलिए भारत अर्थव्यवस्था के हर मोर्चे पर चीन की अनदेखी नहीं कर सकता है, हाँ फिर भी हम भागीदारी की अपनी प्राथमिकताएँ निर्धारित कर सकते हैं तथा चुनिंदा क्षेत्रों में चीनी निवेश को सामरिक रूप से बंद करने का विकल्प चुन सकते हैं। भारत सरकार के अभी तक के कार्यवाहियों से यह प्रतीत है कि सरकार इस हथियार का प्रयोग करना शुरू कर दिया है।

 

ख.  भारत को अच्छी तरह पता है कि विस्तारवादी कुसोच रखने वाले चीन के साथ न केवल उसके अपने पड़ोसियों के साथ बल्कि कई अन्य देशों के साथ भी संबंध अच्छे नहीं हैं और विपरीत परिस्थितियों में सीमा विवाद पर ऐसे देश कूटनीतिक या सामरिक रूप से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्षतः भारत का ही समर्थन करेंगे। उसके बावजूद भी भारत के लिए अंततः सूझबुझ इसी में है कि भारत , चीनी चुनौती से न केवल अपनी संप्रभुता को सुरक्षित रखने के लिए बल्कि अंतरराष्ट्रीय तथा एशियाई शक्तिसमरचना (Power Sharing) में अपनी हिस्सेदारी को और मजबूत करने के लिए स्वयं ठोस निर्णय लेकर निपटे।भारतीय रणनीतिकारों तथा नेतृत्व के लिए यह सबसे चुनौतीपूर्ण कार्य होगा पर सुखद स्थिति यह है कि भारत अभी तक इसमें सक्षम रहा है।

 

ग.  भारत और चीन के साथ 3488 किमी लम्बी एलएसी है। जहां तक चीन का प्रश्न है तो वह अपनी तरफ़ तो आधारिक संरचना का निर्माण करता गया पर भारत की तरफ़ यह वर्षों से उपेक्षित रहा। भारत के लिए अब यह एक शुभ संकेत है की पिछले ५-६ वर्षों में भारत सरकार ने ठोस कदम उठाते हुए एलएसी पर सामरिक सैन्य प्रतिष्ठानों के साथ साथ रणनीतिक रूप से अहम अवसंरचनाओं के निर्माण को गति दी है।वर्तमान परिदृश्य में जब चीन इन गतिविधियों को रोकने के लिए अपने स्तर पर पूरा प्रयास कर रहा है, तो भारत के लिए भी यह एक चुनौती है कि वह चीन को एक मजबूत संकेत देने के लिए सीमा समंरचना परियोजनाओं को जारी रखे। गतिरोध जारी रहने के बावजूद भी सीमा परियोजना जारी रखने हेतु मजदूरों को एलएसी पर भेज कर नई दिल्ली ने वास्तव में एक साहसी कदम उठाया है तथा इसे जारी रखना होगा।

 

घ.  चीन ने इस गतिरोध के दौरान हो रही बातचीत के दौरान, रणनीतिक रूप से लद्दाख में अपनी सैन्य उपस्थिति बढ़ाई, इसलिए भारत को भी हर समय सामरिक रूप से सावधान रहते हुए एलएसी पर युद्धस्तर पर सैन्य तथा अन्य सामरिक तैयारी करते रहना चाहिए। हालाँकि भारत ने भी अपने सैन्य तथा अन्य संसाधनों को बहुत ही विवेकपूर्ण तरीके से तैनाती की है फिर भी  एलएसी पर किसी भी चीनी दस्तक को विफल करने के लिए सैन्य तथा अन्य अनुषंगी संस्थओं को सदैव सतर्क तथा सक्रिय रखना वास्तव में हमारे लिए एक चुनौती रहेगी।

 

ड़.  चीन ने पड़ोसी देशों जैसे पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश, मालदीव, म्यांमार में भारी निवेश किया है और उनका समर्थन प्राप्त करने की भरपूर कोशिश करेगा इसलिए भारत को इन देशों के झुकाव को अपनी तरफ़ बनाए रखने के लिए अतिरिक्त प्रयास करने होंगे।अगर अंतराष्ट्रीय संबंधो को आधार बनायें तो पाकिस्तान को संयुक्त राज्य अमेरिका के माध्यम से नियंत्रित किया जा सकता है तथा नेपाल को हमारे पुराने और सुदृढ़ सांस्कृतिक तथा राजनयिक संबंधो के माध्यम से (यह उल्लेख करना उचित होगा कि नेपाल में सरकार बदलने के कारण श्री ओली का चीन के प्रति झुकाव हो सकता है, लेकिन एक सम्पूर्णता में देखें तो नेपाली मानस की राष्ट्रीयता में भारत के प्रति पुरानी सांस्कृतिक मैत्री तथा घरेलू संबंध बरकरार है) और रही अन्य देशों की बात तो हमारे कूटनीतिज्ञों के विवेकपूर्ण द्विपक्षीय संबंध नीतियों द्वारा संबंधो को अपने पक्ष या तटस्थ रखा जा सकता है। इस सम्बंध में यह कहना उचित होगा कि इस समय हमारी अन्य देशों के साथ द्विपक्षीय संबंधो का आँकड़ा अन्य काल खंडो से अच्छा है।

 

एक महान राष्ट्र हमेशा विपरीत परिस्थितियों में भी अवसर खोजने का प्रयास करता है। जापान पूरी दुनिया के लिए एक ऐसा ही अनुकरणीय उदाहरण बना हुआ है कि कैसे यह देश उस पर परमाणु हमले के बाद भी दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्तियों में से एक बन गया। हमारे प्रधान मंत्री जी कोरोना महामारी पर राष्ट्र को संबोधित करते हुए प्रायः यह कहते रहे हैं कि हम इस प्रतिकूल कोरोना काल में भी अवसरों (Opportunities) के लिए काम करेंगे”। इसी को संज्ञान में लेते हुए जब मैं लद्दाख़ गतिरोध पर समग्र परिदृश्य का विश्लेषण करता हूँ, तब मुझे एलएसी पर चीन के साथ होने वाली घटनाओं तथा गतिरोध में भी मुझे भारत के लिए कई आर्थिक, सामरिक, कूटनीतिक तथा राजनयिक अवसर दिखाई देते हैं जिनका विवरण निम्नवत है:

 

१.  चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और अमेरिका से आगे या आसपास  आने के लिए प्रयासरत  है। अगर चीन वास्तव में दुनिया की अर्थव्यवस्था शक्तियों की दौड़ में बने रहना चाहता है तो वह भारत के बाजार को खोने का जोखिम नहीं उठा सकता जो ग्राहकों की संख्या के आधार पर विश्व का दूसरा सबसे बड़ा बाजार तथा तीसरी सबसे बड़ी उपभोक्ता अर्थव्यवस्था है। इस तर्क के आधार , मैं इस दृढ़ता के साथ कह कहता हूं कि चीन भारत के साथ पूर्ण पैमाने पर युद्ध का जोखिम नहि ले सकता ताकि वह चीनी उत्पादों और निवेशों के खिलाफ भारतीय बहिष्कार की बलवती हो रही भावनाओं से स्वयं को बचा जा सके। इसलिए इस तरह के आर्थिक संघर्ष के परिदृश्य में भारत के पास चीन को सामरिक पटल पर घेरने, आर्थिक युद्ध को तेज करने के साथ-साथ आक्रामक सैन्य तथा कूटनीतिक उपायों के उपयोग करने का एक बहुत ही उचित अवसर है। बीएसएनएल / एमटीएनएल / रेलवे इत्यादि के अनुबंधों से चीनी कंपनियों को हटाना तथा चीनी ऐप्स पर प्रतिबंध लगाना आदि इसी दिशा में उठाए गए रणनीतिक कदम हैं।

 

२.  चीन के विस्तरवादी कुस्वभाव के कारण उसके स्वयं के लगभग सारे पड़ोसियों जैसे ताइवान, तिब्बत (तिब्बत सैधान्तिक तौर पर अपने को चीन के अधीन नहीं मानता) , जापान, वियतनाम, मलेशिया, फिलीपींस और भारत जैसे कई पड़ोसियों के साथ सीमा विवाद चल रहा है। अबकि जब लद्दाख़ में तनातनी चल रही तो भारतीय कूटनीतिकारों के पास अब एक बहुत ही उपयुक्त अवसर है कि वे इन चीन विरोधी पड़ोसी राष्ट्रों का एक नया मोर्चा या दबाव समूह बनाने के लिए प्रयत्न करें ताकि अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक तथा सामरिक मंचों पर चीन के खिलाफ इन पड़ोसियों को चीन के ख़िलाफ़ कूटनीतिक और सामरिक लाभ के लिए लामबंद किया जा सके।

 

३.  चीन के साथ संबंधों में इस वर्तमान तीक्ष्णता के कारण भारतीय नागरिकों के मन में चीनी उत्पादों के प्रति बहिष्कार की भावना इस समय अभूतपूर्व तथा उच्चतम स्तर पर है। इस अनुकूल चीन विरोधी लहर में भारतीय नेतृत्व के पास अपने घरेलू उत्पादों, बाजारों तथा भारत में निवेश को बढ़ावा देने का एक बहुत ही अनुकूल अवसर है। यहां तक कि कई निवेश धीरे-धीरे कोरोना प्रभावित सुस्त चीनी बाजार को छोड़ देंगे और वो अंततः भारत  जैसे बड़े मार्केट की तरफ़ रूख करेंगे। इस स्थिति में इन्हें आकर्षित करने का बड़ा अवसर भारत के पास है।

 

४.  जैसा की अंतर्राष्ट्रीय जगत चीन स्वयं को एक विश्व शक्ति के रूप में स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील है, लेकिन उसे यह भी अच्छी तरह पता है कि भारत न केवल एक उभरती हुई सैन्य और परमाणु शक्ति है बल्कि एक बहुत बड़ा आर्थिक बाज़ार भी है और चीन ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में भारत के साथ पूर्ण पैमाने पर युद्ध करना पसंद नहीं करेंगा क्योंकि उसे पता है कि यदि  भारत ने उसे युद्ध क्षेत्र में नियंत्रित कर लिया या किसी मोर्चे पर बढ़त बना लेता है तो यह न केवल चीन की विश्वशक्ति बनने की आकांक्षाओ को बड़ा धक्का लगेगा बल्कि अंतर्राष्ट्रीय शक्ति संतुलन में भी चीन के लिए एक बड़ा नुकसान होगा। अतः ऐसी अनुकूल परिस्थितियों के साथ तथा परमाणु निवारक शक्ति होने के नाते भारत को चीन के किसी भी घुसपैठ के ख़िलाफ़ एलएसी पर निर्भीक रूप से चीन को घेरना चाहिए तथा अक्साई चीन को वापस पाने के लिए प्रयास करते रहना चाहिए।

 

५.  वैसे तो एलएसी पर चीन के साथ कई टकराव बिंदु हैं। अगर चीन के साथ लद्दाख गतिरोध लंबे समय तक बना रहता है तो भारत के पास उन बिंदुओं पर चीन को घेरने या अपनी तरफ़ से भी बढ़त बनाने का अवसर है, जहाँ चीन की सामरिक स्थिति कमजोर है।

 

६.  यदि भारत ने लद्दाख गतिरोध में चीन को सफलतापूर्वक सहमति वाले प्वाइंट तक पीछे धकेल दिया  या उसे घेर लिया तो यह न केवल पाकिस्तान के लिए एक मनोवैज्ञानिक झटका होगा, जो भारत का एक तत्काल विरोधी है, बल्कि ऐसे नए सामरिक भारत के सामने पाकिस्तान अपने को एक बौना विरोधी महसूस करने लगेगा जिसका नकारात्मक प्रभाव उसके भविष्य के दुस्साहसों पर पड़ेगा।

 

७. यद्यपि भारत को लद्दाख गतिरोध पर विश्व समुदाय को अपने पाले में लाने के लिए राजनयिक और कूटनीतिक स्तर पर अतिरिक्त प्रयास करने की आवश्यकता तो है, लेकिन इन सबके बावजूद भारत को लद्दाख़ गतिरोध को एक अवसर के रूप में लेने की भी ज़रूरत है और इस हेतु इसे अपने दम पर ही हल करने की आवश्यकता है। ऐसा करने से न केवल एशिया में बल्कि अंतर्राष्ट्रीय शक्ति संतुलन में भारत को न केवल एक नए मुकाम पर पहुंचाएगा बल्कि वैश्विक राजनीति के आयामों को बदलने का भी कार्य करेगा।

 

८.  यद्यपि हमारी सेना पीओके तथा अन्य पश्चिमी सीमाओं पर अपनी दीर्घकालीन तैनाती के कारण पाकिस्तान की रणनीति से अच्छी तरह परिचित है। इस तरह से अब पूर्वी क्षेत्र में भी भारत के लिए यह एक अवसर है कि वह अपने सेना को एलएसी पर चीनी सेना के संचालन (movement) तथा संभावित तैनाती के अनुसार सामरिक तौर पर तैयार करे। इसलिए मेरे विचार में यह गतिरोध भारतीय सेनाओं के लिए पूर्वी क्षेत्र की एक सामरिक तथा रणक्षेत्र प्रयोगशाला होने जा रही है।

 

९.  चीन के साथ प्रतिकूलता को देखते हुए, भारत को अब ताइवान-चीन के मुद्दों में हस्तक्षेप न करने की अपनी पहले की नीति पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है। अब भारत को वन चाइना कॉन्सेप्ट को कमजोर करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर ताइवान का समर्थन करना चाहिए।

 

१०. भारतीय प्रशांत क्षेत्र (Indo-Pacific) के संगठन क्वाड जो एक कूटनीतिक तथा सैन्य संगठन है, में भारत के अलावा अमेरिका, जापान और आस्ट्रेलिया हैं। चीन का भारत के अलावा अमेरिका, जापान तथा आस्ट्रेलिया से वर्तमान में विभिन्न मुद्दों पर गतिरोध चल रहा है। अतः ऐसी परिस्थितियों में तथा लद्दाख़ गतिरोध को ध्यान में रखते हुए भारत के लिए यह एक सर्व उपयुक्त अवसर है कि वह अब क्वाड संगठन को सामरिक तथा रणनीतिक दृष्टिकोण से और संगठित तथा प्रासंगिक बनाए जिससे चीन पर एक और दबाव वलय बनाया जा सके।

 

सर्वदलीय बैठक में प्रधान मंत्री जी के इस कथन ने कि न तो भारत की किसी भूमि का टुकड़ा और न ही कोई सैनिक पोस्ट चीन के क़ब्ज़े में है, भारतीयों तथा भारत के रणनीतिकारों के लिए एक बड़ी खुशखबरी और राहत लाया है। वर्तमान संज्ञान के अनुसार राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और चीनी विदेश मंत्री के मध्य वार्तालाप के उपरांत चीन पीछे हटने हेतु सहमत तो हो गया है किंतु यह भारतीय नेतृत्व के लिए भविष्य में चीन पर नए सिरे से सामरिक नीति बनाने का पहला अध्याय होना चाहिए न की उपसंहार। अब भारत के लिए लद्दाख गतिरोध में मजबूती के साथ निपटने और उभरने की चुनौती के साथ साथ  इस गतिरोध के कारण मिलने वाले प्रत्येक अवसरों का लाभ उठा उन्हें कूटनीतिक, आर्थिक और रणनीतिक लाभ में बदलने का अवसर है। लद्दाख़ गतिरोध के इस मोड़ पर प्रत्येक भारतीय के लिए भी यह एक अवसर है कि वह अपने कृतज्ञ राष्ट्र हेतु उससे जो हो सके, जिस रूप में हो सके योगदान दे।

(लेखक एक कारगिल योद्धा, रक्षा शोध स्कालर, सामरिक विशेषज्ञ तथा  सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

 

 

डिस्क्लेमर: उपरोक्त विचारों के लिए लेखक स्वयं उत्तरदायी हैं। जागरण जंक्शन किसी दावे या आंकड़े की पुष्टि नहीं करता है।

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