राजभाषा की प्रासंगिकता पर अक्सर प्रश्न उठाए जाते हैं। प्रश्न यूं ही नहीं उठते हैं, कहीं ना कहीं कोई आधार होता है। यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि राजभाषा की प्रासंगिकता पर उठाए गए प्रश्न का धरातल कितना स्वाभाविक या अस्वाभाविक है, कितना आधारपूर्ण या आधारहीन है। प्रश्न उठते रहते हैं जिनमें से अधिकांश अनुत्तरित रहते हैं। अनुत्तरित प्रश्नों का संतुलित जवाब भी रहता है किन्तु उन्हें विस्तृत रूप में प्रस्तुत नहीं किया जाता है। अब यहाँ एक और प्रश्न उभरता है कि राजभाषा की प्रासंगिकता पर कौन उत्तर दे सकता है अथवा किसके जवाब को समाधानकारक माना जाता है या माना जाना चाहिए। प्रसंगवश इस प्रश्न को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है कि ऐसे सवाल पूछनेवाले कौन हैं। इस प्रकार यदि इस विषय को सामान्य दृष्टि से देखा जाये तो उठनेवाले या उठाए जानेवाले प्रश्न सीमित हैं किन्तु प्रश्नों की परिधि वर्तुलाकार हो जाती है जिससे इस विषयक प्रश्न अंतहीन नज़र आते हैं। प्रश्न चूंकि मूल रूप से एक दूसरे से जुड़े रहते हैं इसलिए स्वाभाविक तौर पर वर्तुलाकार आकृति प्राप्त कर लेते हैं। कभी-कभी यह प्रश्न राजभाषा के चक्रव्यूह समान लगते हैं।
विशेषकर सरकारी कार्यालयों में यह प्रायः अनुभव किया जाता है कि हिन्दी और राजभाषा एक दूसरे के समक्ष प्रतिद्वंदी बन कर खड़े नज़र आते हैं। विधि और तकनीकी शब्दावली अभी भी अपनी अपेक्षित लोकप्रियता हासिल नहीं कर सकी हैं। राजभाषा के विभिन्न मंचों से राजभाषा को सरल करने और उसे आसान बनाने की बातें की जाती हैं। यदि राजभाषा को आसान बनाने का प्रयास किया जाता है तो उसमें निर्बाध गति से अँग्रेजी के शब्द आते रहते हैं और ऐसे वाक्यों को पढ़कर प्रतीत होता है कि प्रयुक्त शब्द देवनागरी रूपी राजभाषा के हैं या देवनागरी लिपि में रोमन मिश्रित शब्द हैं। इससे संबन्धित एक प्रश्न और उभरता है कि क्या रोमन मिश्रित इन वाक्यों को ग्रामीण और अर्ध शहरी परिवेश स्वीकार कर पाएगा। सरकारी कार्यालयों के विशेषकर महानगरों के प्रशासनिक कर्मचारी रोमन शब्दावली मिश्रित देवनागरी में लिखित राजभाषा को प्रासंगिक मानते हैं। महानगर बनाम अर्धशहरी और ग्रामीण के मध्य राजभाषा की प्रासंगिकता उलझी दिखलाई दे रही है।
भारत सरकार, गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग के कंधे पर राजभाषा कार्यान्यवन का पूरा दारोमदार है। यद्यपि राजभाषा नीति, वार्षिक कार्यक्रम आदि द्वारा राजभाषा कार्यान्यवन को विस्तृत और स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है किन्तु इसके बावजूद भी विभिन्न सरकारी कार्यालय स्वयं को राजभाषा कार्यान्यवन के लिए पूरी तरह से सुसज्जित नहीं कर सके हैं जबकि इन कार्यालयों के शीर्ष प्रबंधन द्वारा सुविधाएं और कार्यान्यवन की स्वतन्त्रता प्राप्त है। गिने-चुने कार्यालय हो सकते हैं जो राजभाषा कार्यान्यवन गति, गरिमा और गहनधर्मिता को निर्मित करने में सफल रहे हों किन्तु जब तक इसका विस्तार नहीं होगा राजभाषा की प्रासंगिकता प्रश्नों के घेरे में रहेगी। शायद ही कोई ऐसी सरकारी संस्था हो जिसका अपना राजभाषा मैनुअल हो। राजभाषा का मैनुअल ना होने से राजभाषा कार्यान्यवन की दशा और दिशा निर्धारित नहीं रहती है जिससे संस्था के कार्यालय मात्र वार्षिक कार्यक्रम के आधार पर गतिशील रहते हैं।
हिन्दी की तिमाही प्रगति रिपोर्ट जो राजभाषा कार्यान्यवन का एक सशक्त और सुलभ अभिलेख है उसकी गरिमा को भी लगातार ठेस पहुंचाई जा रही है। यह भ्रामक धारणा आम सरकारी कर्मियों से सुनने को मिलती रहती है कि राजभाषा कार्यान्यवन का मतलब हिन्दी की तिमाही रिपोर्ट है। बस तीन महीने में एक बार हिन्दी कि रिपोर्ट भेज दी जाय तो राजभाषा कार्यान्यवन हो गया। इस बेतुकी बात के लिए विभिन्न कार्यालयों में कार्यरत राजभाषा अधिकारी भी जिम्मेदार हैं। इस धारणा को बदलने में यह लोग नाकामयाब रहे हैं जिसके परिणामस्वरूप विशेषकर बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के अधिकांश राजभाषा अधिकारियों को राजभाषा के अतिरिक्त अन्य कार्यालयीन कार्य भी सौपें गए हैं जिन्हें राजभाषा अधिकारी निष्ठापूर्वक निभा रहे हैं जिससे राजभाषा के प्रति उनकी निष्ठा धूमिल होती जा रही है और राजभाषा की प्रासंगिकता ठगी सी खड़ी है।
आम जनता तक राजभाषा पहुँच नहीं पायी है। राजभाषा कार्यान्यवन में प्रगति हुयी है और हो रही है फिर भी प्रगति की जो गति और दिशा होनी चाहिए वह राजभाषा को अब तक प्राप्त नहीं है। सभी सरकारी कार्यालयों के राजभाषा विभाग औसतन 30 वर्षों से सक्रिय है किन्तु इनकी उपस्थिती केवल अनुवाद तक सीमित है। देश के सामान्य नागरिकों तक पहुँचने की कोशिश नहीं की गयी है। हिन्दी माह, पखवाड़ा, सप्ताह का प्रति वर्ष आयोजन होता है जो कर्मियों तक सिमट कर रह जाता है। ऐसे आयोजन बहुत कम होते हैं जिनमें आम जनता के विभिन्न पक्षों को शामिल किया जाता हो। राजभाषा ना तो ठीक से आम जनता तक पहुंची है, ना तो महाविद्यालयों में अपनी सार्थक उपस्थिती का एहसास दिलाने में सफल रही है। मीडिया में राजभाषा अधिकारियों और राजभाषा कार्यान्यवन के आधारहीन कथ्यों की प्रस्तुति कर हिन्दी के समक्ष राजभाषा को गौण बनाने का सिलसिला अनवरत जारी है। राजभाषा की प्रासंगिकता को प्रभावित करने में इसका भी बड़ा योगदान है।
ब्लॉगिंग की दुनिया में हिन्दी ब्लॉगर दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ रहे हैं। अभिव्यक्ति की जितनी स्वतन्त्रता ब्लॉगिंग में है उतनी कहीं नहीं है। पिछले कुछ वर्षों से सितंबर माह आते ही हिन्दी ब्लॉगर राजभाषा को लेकर अपनी-अपनी चिंताएँ अपनी-अपनी भाषा और शैली में प्रस्तुत करना आरंभ कर देते हैं और अब तक के अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सभी ब्लॉगर राजभाषा की स्थिति को दयनीय बतलाकर खेद प्रकट करते हैं, कड़वे शब्दों का प्रयोग करते हैं और राजभाषा के अंधकारपूर्ण भविष्य का रोना रोते हैं। ऐसे में राजभाषा के यथार्थ को प्रस्तुत कर इन ब्लॉगरों की बातों का जवाब देने के लिए वर्तमान में राजभाषा के 3-4 ब्लॉगरों को ढूंढ पाना भी कठिन चुनौती है। विशेषकर राजभाषा अधिकारियों को ब्लॉगिंग से जुड़कर यथार्थ को प्रस्तुत करना चाहिए।
किसी भी विषय के ना तो केवल पूर्ण श्याम पक्ष होते हैं और ना ही सम्पूर्ण धवल पक्ष होते हैं बल्कि श्याम-धवल पक्षों का सम्मिश्रण होता है। यह संभव है कि किसी विषय में श्याम पक्ष अधिक हों तो किसी में धवल पक्ष ज्यादा हो। राजभाषा कार्यान्यवन में नगर राजभाषा कार्यान्यवन समितियों का योगदान और भूमिका उल्लेखनीय है। यदि इन नाराकास की वेब साइट भी निर्मित हो जाये एक दूसरे की उपलब्धियों और गतिविधियों से आसानी से परिचित हुआ जा सकता है तथा राजभाषा की प्रासंगिकता और मुखरित हो सकती है। क्षेत्रीय कार्यान्यवन कार्यालयों के बल पर ही अब तक राजभाषा की प्रासंगिकता अपनी मुकम्मल पहचान बनाए हुये है परंतु इस कार्यालय से आवश्यकता से अधिक अपेक्षाएँ की जा रही हैं। राजभाषा की गंगा भारत सरकार, गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग से चल कर नगर राजभाषा कार्यान्यवन समिति तक पहुँच कर अत्यधिक मंथर हो गयी है। अब और कैसा विलंब ? राजभाषा अधिकारियों को भागीरथ की भूमिका निभाते हुये राजभाषा की गंगा को विभिन्न सरकारी कार्यालयों से आम जनता तक पहुंचाना है।
वर्तमान में राजभाषा की प्रासंगिकता केवल प्रयास, प्रबलता और अनूठे प्रतिमानों की मांग करती प्रतीत हो रही है। यह संभावना भी अब दिखने लगी है कि राजभाषा कि प्रासंगिकता – एक यथार्थ और छद्म के द्वंद में कहीं एक बज़्म के रूप में ना नज़र आने लगे ।
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