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हमारी हिन्दी

राजभाषा /Rajbhasha
राजभाषा /Rajbhasha
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हमने जब से हिंदी को, हमारा बना दिया

हिंदी को धारा का एक, किनारा बना दिया

दुनिया सिमट रही है, एक गॉव की तरह

हिंदी को भावों का, एक ईशारा बना दिया।

बस ऐसे ही चलती है हिंदी, कभी हिंदी चित्रपट पर, कभी दूरदर्शन के चैनलों पर, कभी गीतों-गज़लों में, कभी बाज़ार से सामान्य खरीददारी आदि में। हिंदी विशेषकर इसी रूपों में हमारी है और हमें इसके रूप पर नाज़ भी है। दुनिया के उन्नत देशों की भाषाएँ हिंदी की तरह अपनी लोकप्रियता बनाए रखते हुए सरकारी कामकाज, उच्च शिक्षा, प्रौद्योगिकी आदि में अपनी प्रगति और लोकप्रियता को बनाए हुए है। क्या हिंदी इस रूप में आज हमारे सामने है ? जिस हिंदी को हम अपनी हिंदी के रूप में अपनाए हुए हैं क्या उसका अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप है ? अंतर्राष्ट्रीय ना सही क्या वर्तमान में हिंदी का एक सशक्त राष्ट्रीय स्वरूप है? हमने हिंदी को गानों, बजानों और दुकानों तक ही समेट कर रख दिया है। भारतीय कार्यालयों के टेबल अब भी तो अंग्रेज़ी से ही जुड़े हुए हैं और हमारी आदतें भी। दैनिक समाचार पत्र हो, एसएमएस हो, किसी लिफाफे पर पता लिखना हो अथवा छुट्टी की अर्जी देनी हो, हमेशा अंग्रेजी ही लिखी जाती है। लिखते वक्त हमारी हिंदी ना जाने कितनी दूर होती है और अंग्रेज़ी अपनी लगती है।

वर्तमान भारतीय एक विडंबना में जी रहे हैं। उनके दिल में हिंदी है और व्यवहार में अंग्रेज़ी है। हिंदी जहॉ अहसासों को सुखद बनाती है वहीं अंग्रेज़ी व्यावहारिक जगत में एक आत्मविश्वास के साथ चलने का आधार प्रदान करती लगती है। यह व्यावहारिकता भारतीय परिवेश पर बरसाती बादलों की तरह छाया हुआ है और अक्सर बरसते रहता है। अक्सर बरसते रहता है से मेरा तात्पर्य है कि जहॉ भी आप शीर्ष के कार्यक्रमों में जाऍ अंग्रेज़ी के फुहारों से भींगना ही पड़ता है। शायद हम इस बारिश के अभ्यस्त भी हो गए हैं। इसे सहजता से लेते हैं। इसका विरोध करना अब हमें अस्वाभाविक प्रक्रिया लगती है। यहॉ एक प्रश्न उठता है कि विरोध क्यों ? वसुधैव कुटुम्बकम के सिद्धांतों पर चलनेवाला हमारा देश भला विरोध क्यों करे ? जो भी हमारे यहॉ आता है उसे हम अपना बना लेते हैं. यह एक तरफ से हमारे विशाल हृदय को दर्शाता है जबकि दूसरी और यह भी संभावना प्रकट करता है कि कहीं हम इस विशालता में अपना कुछ खो तो नहीं रहे। कुछ खो कर कुछ पाना हमेशा स्वीकार्य नहीं होता। तो क्या हम अंग्रेजी को अपनाते हुए कहीं हमारी हिंदी को खो तो नहीं रहे ?

हमारी हिंदी-हमारी हिंदी का यह रट क्यों लगाया जा रहा है। व्यवहार के लिए एक भाषा होनी चाहिए बस। भाषा की भूमिका तो यहीं तक है। गानों, बजानों तथा दुकानों तक तो हिंदी है ना! तो क्या यह एक सुखद स्थिति नहीं है ? भारतीय दिलों में तो हिंदी है ना! तो क्या यह संतोषप्रद स्थिति नहीं है ? क्यों अंग्रेज़ी के पीछे पड़ा जा रहा है। यह देखने की कोशिश क्यों नहीं की जाती कि कहीं हिंदी की कमज़ोरी की वजह से तो अंग्रेज़ी आगे नहीं निकल गई ? इस तरह से प्रश्न करनेवालों से एक प्रश्न पूछना आवश्यक है कि भाषा को वह क्या समझते हैं ? केवल सम्प्रेषण का माध्यम या कुछ और ? वर्तमान में विश्व जब एक कुटुंब की तरह होते जा रहा है तो क्या ऐसी स्थिति में हमारी कोई एक राष्ट्रभाषा नहीं होनी चाहिए।

हमारी हिंदी सिर्फ देवनागरी में लिखी जानेवाली हिंदी ही नहीं है बल्कि भारत की विभिन्न भाषाओं के आपसी ताल-मेल का प्रतीक है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति की ध्वजवाहिका है जिसके संग भारत की अन्य भाषाऍ भी हैं। हिंदी का विकास सभी भारतीय भाषाओं का विकास है। समूचे राष्ट्र की धड़कनों को एक सूत्र में बांधने के लिए एक भाषा की आवश्यकता है और हमारी हिंदी इसमें सक्षम है। हमारी हिंदी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तब तक पूरी हमारी नहीं हो सकती जब तक भारत की सभी भाषाओं को विकास के समान अवसर नहीं मिलते हैं। पर क्या आप लोगों को यह लग रहा है कि सभी भारतीय भाषाओं को विकास के समान अवसर मिल पाऍगे ? इतने प्रयासों के बावजूद भी जब हिंदी आपकी टेबल का रोज का हिस्सा नहीं बन सकी है तब अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक इसे ले जाने की तमन्ना एक ख्वाब सा लगता है। कार्यालयों में कार्य करनेवाले अधिकांशत: कर्मचारी कार्यालय के दूसरे कर्मचारियों का अनुकरण करते हैं। लोग अंग्रेजी का प्रयोग कर रहे हैं इसलिए हम भी अंग्रेजी का प्रयोग करेंगे। कल से हिंदी का लोग प्रयोग करने लगें तो टेबल का सारा काम हिंदी में ही होगा। समस्या मानसिकता की है। कठिनाई चलन से अलग गति प्रदान ना कर पाने की है।

कहीं ना कहीं से हमें किसी भारतीय भाषा को संग लेकर आरम्भ करना पड़ेगा। राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी को देश की राजभाषा का दर्ज़ा मिल चुका है परन्तु उसका विकास करना हम सब भारतीय  नागरिकों का दायित्व है। हिंदी का विकास देश के सभी भाषाओं का विकास है। वर्तमान में प्रत्येक कार्यालय में हिंदी या राजभाषा, के विपुल साहित्य पड़े हैं जिनका पूरा उपयोग नहीं किया जा रहा है। प्रत्येक कार्यालय हिंदी के छोटे से पत्र के लिए भी कार्यालय के हिंदी विभाग या राजभाषा विभाग की और देखता है। हमारी हिंदी आज कार्यालयों में हिंदी विभाग पर टिकी हुई है यह कहना कोई गलत नहीं होगा। भाषा को दृष्टिगत रखते हुए जब तक हम नहीं जागेंगे तब तक कार्यालय नहीं जगेगा, जब तक कार्यालय नहीं जगेगा तब तक समाज नहीं जगेगा और जब तक समाज नहीं जगेगा तब तक देश का प्रतिनिधित्व करनेवाली हमारी हिंदी और सशक्त नहीं होगी अतएव हमारी हिंदी हमारे ही हॉथों में है। हमारे हॉथों से विकसित हुई हिंदी विश्वपटल पर जाए इसके लिए भगीरथ प्रयास अपेक्षित है।

हिन्दी की बेशुमार शक्ति का गीत हिन्दी वालों की जुबान से ही अक्सर सुनने को मिलती है। अन्य भाषा-भाषी हिन्दी को प्रशासन की भाषा बनाने के लिए कितने प्रयत्नशील है, इसका लेखा-जोखा उपलब्ध नहीं है। महाविद्यालयों में हिन्दी साहित्य के नाम पर कविता, कहानी, उपन्यास आदि पर तो वृहद और सार्थक चर्चाएँ होती रहती हैं किन्तु कामकाजी हिन्दी मात्र एक विषय बन कर रह गयी है। महाविद्यालयों को चाहिए कि कामकाजी हिन्दी, प्रयोजनमूलक हिन्दी के लिए राजभाषा अधिकारी पद पर सुदीर्घ अनुभव वाले व्याख्याता कि नियुक्ति करे अन्यथा सड़कों से चलकर हिन्दी प्रशासन कि भाषा नहीं बन पाएगी। हिन्दी प्रदेशों में कुछ हद तक हिन्दी प्रशाशन कि भाषा बन चुकी है किन्तु इसमें और विस्तार, निखार और चर्चा-परिचर्चा कि आवश्यकता है। मुलाकाती कार्डों, नाम प्लेट आदि को अंग्रेजी में प्रदर्शित करना यह दर्शाता है कि अंग्रेजी से मोहभंग नहीं हो रहा है। यह आश्चर्यजनक है कि सशक्त और सम्पूर्ण अभिव्यक्तियों को सहज दर्शानेवाली हिन्दी अपनी बुलंदी को नहीं प्राप्त कर सकी है। शायद एक वृहद, सार्थक और समर्पित प्रयास का हिन्दी प्रेमियों में अभाव है वरना और तो कहीं कोई कमी नज़र नहीं आती। हमारी हिन्दी अब भी अधूरी है और सक्षम हिन्दी वाले इसे पूर्णता देने का पुरजोर प्रयास नहीं कर रहे, जाने क्यों?

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