Menu
blogid : 7938 postid : 43

राजभाषावादी या यथार्थवादी

राजभाषा /Rajbhasha
राजभाषा /Rajbhasha
  • 29 Posts
  • 27 Comments

व्यक्तियों का समूह जब एक निर्धारित लक्ष्य या कार्य के लिए अनवरत वर्षों से प्रतिबद्धतापूर्वक कार्यरत रहते हैं तो कालांतर में वह कार्यप्रणाली वाद के रूप में भी पहचानी जाती है। तीन दशक से भी अधिक समय से सरकारी कार्यालयों, बैंकों, उपक्रमों में (आगे इन सबको सरकारी कार्यालय कहा जाएगा) राजभाषा जिस उत्साह, ऊर्जा और उन्नयन से सक्रिय है उस आधार पर राजभाषावाद का अस्तित्व निरंतर मुखरित हो रहा है। राजभाषा अब केवल भारत सरकार, गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग के द्वारा इन कार्यालयों के स्टाफ द्वारा नहीं पहचानी जाती है बल्कि राजभाषा कार्यालय के आबो-हवा में रच-बस गयी है अतएव कार्यालयीन कार्यप्रणाली का एक अभिन्न अंग के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी है। प्रतिष्ठित हो चुकी राजभाषा अपनी विशेष पहचान निर्मित करने के लिए प्रयासरत है। केवल हिन्दी में मुद्रित पत्र आदि के रूप में, द्विभाषिक मानक पत्रों के रूप में, हिन्दी, द्विभाषिक या त्रिभाषिक शुभकामना पर्ची आदि के रूप में कार्यालय के प्रत्येक टेबल पर राजभाषा विराजमान है। भाषागत परिवर्तन का यह दौर यद्यपि धीमी गति को दर्शा रहा है किन्तु एक विश्वसनीय आधार भी निर्मित कर रहा है।


सरकारी कार्यालयों में निर्मित हो रहे राजभाषा के आधार का प्रमुख सर्जक उस कार्यालय में पदस्थ राजभाषा अधिकारी है। अथक प्रयासों से अंग्रेजी में दैनिक लिखित कार्यों के परिवेश में एक लेज़र बीम की तरह राजभाषा को दीप्तिमान बनाए रखना विशेष प्रतिभा, कौशल और धैर्य का कार्य है जिसे राजभाषा अधिकारी तन्मयतापूर्वक विभिन्न झंझावातों के बीच किए जा रहा है। यहाँ यह अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिए कि विभिन्न सरकारी कार्यालयों में कार्यरत स्टाफ की भूमिका राजभाषा अधिकारी से कमतर है। राजभाषा के दृष्टिकोण से राजभाषा अधिकारी और स्टाफ में प्रमुख अंतर यह है कि राजभाषा अधिकारी निरंतर विभिन्न कार्यालयीन प्रक्रियाओं के अंतर्गत राजभाषा कार्यान्यवन को गुंजित करते रहता है, मनभावन बनाते रहता है इसलिए वह राजभाषावादी बन जाता है। राजभाषावादी और कुछ नहीं है बल्कि राजभाषा की प्रतिबद्धता है। यहाँ यह स्पष्ट होता है कि राजभाषा अधिकारी को राजभाषावादी होना आवश्यक है। सरकारी कार्यालयों विशेषकर राष्ट्रीयकृत बैंकों में निर्मित हो रही वर्तमान राजभाषा की परिस्थितियों के अंतर्गत राजभाषावादी स्वतः उत्पन्न शब्द है।


राजभाषावाद की व्युत्पत्ति यथार्थवाद से हुई है। यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि राजभाषावाद और यथार्थवाद पूर्णतया सरकारी कार्यालयों के परिवेश से जुड़ा शब्द है। राजभाषावाद से यथार्थवाद जब अलग हो जाता तो है तब यथार्थवाद अपने प्रचलित अर्थों को स्वतंत्र रूप से अभिव्यक्त करता है किन्तु राजभाषावाद से जुडते ही यथार्थवाद पारिभाषिक और ग्रहीत शब्द बन जाता है। वर्तमान में राजभाषा कार्यान्यवन राजभाषावाद और यथार्थवाद के द्वंद्व से गुजर रहा है। कल तक राजभाषावादी दिखनेवाले राजभाषा अधिकारियों में से विशेषकर नए राजभाषा अधिकारी परिस्थितियों को यथार्थ की कसौटी पर कस कर राजभाषावाद से स्थूल रूप से नाता तोड़ रहे हैं। राजभाषावाद अपने मौलिक स्वरूप में राजभाषा कार्यान्यवन की प्रतिबद्धता को क्षेत्र विशेष के आधार पर प्रचारित, प्रसारित और परिमार्जित करता है। जनवाद या जनतंत्रवाद की धारा पर अवलंबित राजभाषावाद कार्यालय की प्रक्रियाओं में ऐसी संलिप्त हो जाती है कि उसका अपना राजभाषा के नाम से कोई स्वतंत्र इयत्ता नहीं होती है परिणामस्वरूप कार्यालय के किसी भी प्रक्रिया में (हिन्दी दिवस को छोडकर) राजभाषा के उपस्थिती की अनिवार्यता सुनिश्चित नहीं की जाती है। कुछ स्टाफ सदस्यों को यह स्थिति अप्रिय लगती है। ऐसे लोगों का मत है कि कार्यालय के अन्य मदों की तरह राजभाषा को वरीयता दी जाय। महज औपचारिकता निर्वहन के लिए राजभाषा की टंकार ध्वनित ना की जाय। यह कार्यान्यवन की एक आक्रामक स्थिति है जो नकारात्मक परिणामों की जनक भी हो सकती है। राजभाषा कार्यान्यवन का सरित प्रवाह और कार्यालय के विभिन्न कार्यों में समामेलन से ही राजभाषा अपनी बुनियाद सुगठित कर सकती है।


राजभाषावादी केवल राजभाषा कार्यान्यवन की धुन में रहता है और जहां भी उसे अवसर मिलता है वहाँ राजभाषा को स्थापित करने का प्रयास करता है। राजभाषा को स्थापित करने की प्रक्रिया में राजभाषावादी को रचनात्मकता का सुख मिलता है इसलिए कुछ स्टाफ की यदि तटस्थ या नकारात्मक भूमिका हो तो राजभाषावादी के कार्यनिष्पादन पर प्रभाव नहीं पड़ता है। राजभाषावादी राजभाषा कार्यान्यवन में मौलिकता का हिमायती होता है, परिणामों को उपलब्धियों में परिवर्तित करने का नायक होता है, प्रेरणा, प्रोत्साहन और पुरस्कारों के आधार पर अपनी प्रतिबद्धता का वाहक होता है। सामान्यतया सभी राजभाषा अधिकारियों को राजभाषावादी होना चाहिए। राजभाषावाद का प्रमुख उद्गम केंद्र कार्यालयों के राजभाषा विभाग हैं जहां से राजभाषावाद का फैलाव होता है। एक सुखद स्थिति यह है कि यदि भारत सरकार, गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग द्वारा प्रतिवर्ष जारी राजभाषा के वार्षिक कार्यक्रम और कार्यालयीन आवश्यकता के अनुरूप राजभाषावाद रचनात्मक और सर्जनात्मक उद्देश्य के लिए पनपती है तो प्रबंधन भी उसे सहयोग प्रदान करता है। यहाँ यह भी उल्लेख करना आवश्यक है कि सरकारी कार्यालयों में राजभाषा विभाग, राजभाषा अधिकारी तो मिल जाएंगे किन्तु अत्यधिक अल्प संख्या में राजभाषावादी मिल पाएंगे क्योंकि अधिकांश राजभाषा अधिकारी राजभाषा कार्यान्यवन से निकली यथार्थवाद के पगडंडी के राही हैं।


यथार्थवादी राजभाषा के प्रति पूर्णतया प्रतिबद्ध नहीं होता है। यह राजभाषा के बजाय स्वयं की प्रगति में विश्वास रखानेवाला होता है। यद्यपि यथार्थवादी राजभाषा अधिकारी ही होता है किन्तु राजभाषा कार्यान्यवन उसका उद्देश्य नहीं बल्कि एक माध्यम होता है। यथार्थवादी कार्यालय में विशेषकर अपने वरिष्ठों के अनुदेशों का अविलंब अनुपालन करने के लिए प्रतिबद्ध रहता है। यदि यथार्थवादी को कहा जाय कि राजभाषा का कार्य रोक कर कार्यालय के अन्य कार्य में सहयोग दें तो यथार्थवादी तत्काल राजभाषा का कार्य रोक कर कार्यालय के अन्य कार्य में सहयोग प्रदान करने लगेगा। यथार्थवादी यह नहीं कहेगा कि राजभाषा का कार्य पूर्ण कर यथासंभव सहयोग प्रदान कर दूंगा क्योंकि उसका लक्ष्य सबको खुश कर अपनी पदोन्नति को सुनिश्चित करना होता है, राजभाषा की उन्नति उसकी वरीयता सूची में दोयम नंबर पर होती है। पदोन्नति, मनचाहे स्थान पर स्थानांतरण आदि प्रत्येक कर्मी की अभिलाषा होती है किन्तु राजभाषा को सीढ़ी बनाकर स्वयं की प्रगति करने का प्रयास राजभाषा कार्यान्यवन के लिए बाधक और घातक है। वर्तमान में नियुक्त हो रहे अधिकांश राजभाषा अधिकारी यथार्थवादी हैं और जैसे ही अवसर मिलता है राजभाषा को छोडकर यथार्थवाद की पगडंडी पकड़ लेते हैं, एक नयी राह पर चलने के लिए, एक नए और ऊंचे ओहदे को पाने के लिए। राजभाषा कार्यान्यवन की प्रगति इससे प्रभावित हो रही है। राजभाषावादी सही हैं या यथार्थवादी दूरदर्शी हैं यह एक विवाद का विषय हो सकता है किन्तु राजभाषा कार्यान्यवन की गतिशीलता का क्या?

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply