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नक कटा सम्प्रदाय (पोप लीला भाग-३)

samajik kranti
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एक  चोर जब गया था पकड़ा,

जंजीरों से गया था जकड़ा।

न्यायधीश  ने दिया था दण्ड,

किया नाक  को उसकी खण्ड। (नाक  को काटने का आदेश)

उसकी ज्यों ही काटी नाक,

हँसा और वह लगा था नाच।

लोगों ने पूछी, “क्या बात?”

बोला- “प्रभु दिखते सक्षात”।

लोग कहें “न  हमें दिखाय”।

बोला “नाक  बीच में आय”।

बोला “जो भी नाक  कटाय ,

उसको प्रभु दर्शन हो जाय।”

कई लोगों ने नाक  कटाई,

नाक  कटो की लाइन  लगाई।

चोर आज  बन गया था संत,

देता जाता सबको मंत्र।

“मेरी करनी तुम  दुहराव,

नाचो हंस मुख  छवि बनाव।”

जाकर उनके कान के पास,

“करो नहीं तो हो उपहास।”

नाक गई इज्जत न जाय।

नाक  कटे वह ही दुहराय।

नारायण दर्शी कहलाय,

इनकी संख्या बढ़ती जाय।

राजा मूर्ख  सुनी जब बात,

नारायण  दर्शन साक्षात।

उसको बुलवाया दरवार,

बोला “यह हो किस  प्रकार।”

“जो भी अपनी काट कटाय,

प्रभु दर्शन  उसको हो जाय।”

बात लगी राजा को ठीक,

ज्योतिष  बैठे थे नजदीक।

“ज्योतिष जी कोई मुहूर्त  बतायँ,

हम भी अपनी नाक  कटायँ।”

दशमी के दिन और हो प्रात,

समय बताया उसने आठ।
नाक  काटने का था मुहूर्त,

ज्योतिष  जी भी निकले धूर्त।

नब्बे वर्ष  का था दीवान,

वह था बहुत  अधिक विद्वान।
वह पहुँचा राजा के पास,

राजा का उसपर विश्वास।

“लेंय परीक्षा इसकी आप,

नहीं तो होगा पश्चाताप।”

“झूठ क्या बोलें पुरुष  सहस्त्र,

आप क्यों शंका करते व्यक्त।”

समझा कर बोला दीवान,

“बिना परीक्षा न सच मान।

राजा जी इक बात बताऊँ,

प्रथम  मैं अपनी नाक  कटाऊँ।

उम्र  गई है मेरी बीत,”

बात लगी राजा को ठीक।

बुलवाया फिर ज्योतिष धूर्त,

शुक्ल पंचमी निकला मूहूर्त।

भरा हुआ  उस दिन दरवार,

नाक  कटे भी आय हजार।

राजा से बोला दीवान,

“मेरी एक बात लें मान।

दो हजार सैनिक  बुलवायँ,

प्रश्न न इसपर कोई उठायँ।”

सेनापति को दे आदेश,

“दो हजार सैनिक दो भेज।”

आया था फिर गुरु घंटाल,

नाक  काट थाली में डाल।

रुधिर नाक  से निकला तेज,

और हुआ चेहरा निस्तेज

अपना मुख  ला उसके कान,

“कहूँ मैं जो बोलो दीवान।

अब तो कट ही गई है नाक,

बात न मानी उड़े मजाक।”

राजा निकट गये दीवान,

बोले राजा जी के कान।
“मुझे नरायण नहीं हैं दीख,

इस धूर्त से लीजै सीख।

इसे शीघ्र करिये गिरफ्तार,

बना राज्य के लिये ये भार।”

उसे गधे पर दिया बिठाय,

जूतों की माला पहनाय।

चेहरे पर दी कालिश पोत,

जूतों से पहुँचाई चोट।

कुत्तों से उसको नुचवाय,

ऐसे दिया उसे मरवाय।

बुरे कर्म का बुरा था अंत,

सम्प्रदाय वह हुआ था बंद।
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महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा रचित  विश्व की सबसे महान, सत्य का दिग्दर्शन  कराने वाली, विश्व में उथल  पुथल  मचाने वाली, धार्मिक  कुरीतियों, अंधविश्वास  और अधर्म  पर प्रहार करने वाली क्राँतिकारी पुस्तक  की एक  कथा पर आधारित कविता का प्रस्तुति। फिर भी महर्षि् की कुछ  बातों से मैं सहमत  नहीं हूँ।

कई धर्मों, सम्प्रदायों एवं मतों का आरंभ  भी इसी तरह विवादित  ढंग  से हुआ  होगा। प्रत्येक  चमत्कार  के पीछे इसी तरह की कहानियाँ हैं। जिनसे हम सब अनभिज्ञ  हैं अथवा  उनको जानने तथा कहने से डरते हैं।

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