प्रजा मूर्ख थी औ अज्ञानी। वो असभ्य थी औ अभिमानी।। बंधन को थी नहीं मानती। न ही नियमों को वो जानती।। एक व्यक्ति था शक्तिशाली। सत्ता उसने वहाँ बना ली।। राजा बना बड़ा था ज्ञानी। नियम बनाने की कुछ ठानी।। विद्वानों को उसने ढूढ़ा। संविधान फिर बना था पूरा।। बने वही उसके दरवारी। बने बाद में धर्माधिकारी।। मान न उसको रही प्रजा थी। राजा ने फिर उन्हें सजा दी।। उनपर कुछ न असर पड़ा था। राजा चिंचित हुआ बड़ा था।। उसने विद्वानों से पूछा। उनको इक उपाय था सूझा।। ईश्वर फिर था एक रचाया। संविधान को धर्म बनाया।। कल्पित उसमें शक्ति सारी। लालच दिया डराया भारी।। स्वर्ग का लालच उन्हें दिखाया। और नर्क से उन्हें डराया।। ईश्वर के ये नियम हैं सारे। हम सब उसके बेटे प्यारे।। जो माने न उसका कहना। उसे नर्क में पड़ेगा रहना।। जो मानेगा उसकी बातें। उसके लिये स्वर्ग सौगातें।। डरे बहुत औ लालच जागा। ईश्वर से डर सबको लागा।। ऐसे बना धर्म औ ईश्वर। राजा बना ईश पैगम्बर।। राज्य के जो मंत्री अधिकारी। बना दिया धर्माधिकारी।। हुआ प्रजा का तब से शोषण। हुआ बाहुबलियों का पोषण।। धर्म ईश ने हमें ठगा जो। वही लिखा, सच मुझे लगा जो।।
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