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ईश्वर, धर्म और विज्ञान(महान विचारकों के मत)

samajik kranti
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ईश्वर के संबंध में क्रमशः तीन पोस्टें (अनुज अनिल अलीन, भ्राता प्रवीन आनन्द तथा आदरणीय शशिभूषण जी) पढ़कर ईश्वर के संबंध में कुछ लिखने की इच्छा बलवती हुई, जिसके परिणाम स्वरूप यह आलेख पोस्ट कर रहा हूँ। इस आलेख में सारे विचार विचारकों के अपने हैं।
इन विचारों की भी आलोचना हो सकती है। क्योंकि मेरा मानना है कि इस संसार में ईश्वर के अतिरिक्त अन्य कुछ भी पूर्ण नहीं है। हमने अब तक ईश्वर को नहीं जान पाया, इसी आधार पर यह कहा जा सकता है कि ईश्वर को जान पाना किसी भी प्राणी या वस्तु के लिये असंभव है। ईश्वर के होने का एक मात्र कारण उसे मनुष्य का अब तक न जान पाना है। जिस दिन मनुष्य ने ईश्वर को जान लिया, निःसंदेह उसी दिन ईश्वर संसार से विलुप्त हो जायगा।
महान दार्शनिको के संक्षेप में महान विचार-
1. चर्वाक- ऐसी कोई अलौकिक वस्तु नहीं है, जिससे यह साबित हो कि, परलोक तथा पुनर्जन्म भी है।
ईश्वर नहीं है यदि हमारे पास यह प्रमाण नहीं है, तो ईश्वर है ऐसा भी कोई प्रमाण नहीं है।
आत्मा नहीं है क्योंकि उसका न तो जन्म हुआ और न ही उसकी उपलब्धता है।
2. जान स्टुअर्ट मिल(1806 -1873) हम ईश्वर के विषय में कुछ नहीं जानते और न ही जान सकते हैं। अतः यह निश्चुत पूर्वक नहीं कह सकते कि ईश्वर की सत्ता है या नहीं। प्रमाणों और तर्कों के आधार पर उसके अस्तित्व को प्रमाणित या अप्रमाणित नहीं किया जा सकता।अशुभ की समस्या के आधार पर उस ईश्वर को पूर्णतः अस्वीकार किया जा सकता है, जिसकी कल्पना ईश्वरवादियों ने की है।
3. फ्रडिक एगेल्स(जर्मनी 20नवम्बर 1820-1895)- अपने समस्त गुणों को ईश्वर में प्रत्यारोपित करके मनुष्य स्वयं ही ईश्वर के प्रत्यय की रचना करता है, अतः ईश्वर वास्तव में मनुष्य की मानसिक कल्पना है।
4. ओगुस्त कोंत(फ्राँस 1798-1895)- मानवीय ज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टकोण की तीन अवस्थायें हैं-१.ईश्वर परक- यह प्रथम तथा निम्न अवस्था है। जिसे मानव का शैशवकाल कह सकते हैं। इस अवस्था में मनुष्य इन्द्रियातीत सत्ताओं तथा शक्तियों में पूर्णतः विश्वास करता है। बालक की तरह प्रत्येक प्राकृतिक घटना का अनुभवातीत देवीय पुरुष में ही ढ़ूढ़ता है। अनुभवातीत देवीय शक्तियों एवं उनमे विश्वास करने वाले गुरुओं का अधिक महत्व होता है। व्यक्ति और समाज दोनों को इस अवस्था से गुजरना पड़ता है। २.तात्विक- देवीय शक्तियों का महत्तव समाप्त कर उनके स्थान पर मनुष्य नैर्वेयक्तिक अमूर्त शक्ति को ही प्रत्येक प्राकृतिक घटना का हेतु मानता है। ३.प्रत्यक्षवादी- यह ज्ञान के विकास की सर्वोच्च अवस्था है। मनुष्य दैवीय तथा अमूर्त शक्तियों का परित्याग करता है। अपने अनुभव तथा प्रेरक्ष को ही ज्ञान का आधार बनाता है तथा सर्वव्यापी प्राकृतिक को खोजता है। प्रत्येक समस्या पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विचार करता है। विज्ञान को महत्ता प्राप्त होती है।
5. फ्रेड्रिक विल्हेल्म नीचे(15 अक्टूबर 1844-1900)- ईश्वर पर निर्भर होकर मनुष्य अपनी शक्ति को भूल बैठता है। ईश्वर के हनन से ही मानवीय महत्व को समझने का प्रयास हो सकता है। इसे भी अस्वीकारा नहीं जा सकता कि ईश्वर के निषेध से धार्मिक मूल्यों एवं आदर्शों के विलुप्त होने की पूर्णतः आशंका है। अधुनिक युग के आरंभ के लिये नीचे इसे गौण मानता है।
6. पं. मानवेन्द्र नाथ राय(प. बंगाल 1887-1954)- अपने मत को वे रसवेद के उपनिशद के सुत्र २ से निम्नलिखित वाक्य उद्धत करते हैं- कोई अवतार नहीं, न ही ईश्वर है, न स्वर्ग,न नर्क, समस्त पारम्पिरक धर्मशास्त्र का साहित्य दंभी मूर्खों की कृति है।
7. आंरी बेर्गसों(पेरिस 1859 -1941) बुद्धि से स्वार्थ भावना के साथ साथ मृत्यु और असफलता की आशंका भी जन्म लेती है। अपने अहम् भाव के सृजित होने के कारण, विनाश के संभावना की चिंता तथा कर्मों की असफलता की संभावना से उदिग्न होने के कारण बुद्धि प्रतिकार करके, नैतिकता की संभावना बनाती है। उसके उपाय स्वरूप कपोल कल्पनाओं द्वारा धर्म का उदय होता है।
पहली कपोल कल्पना से अलौकिक तथा देवीय अस्तित्व कायम कर, उसकी स्वार्थ परता पर दण्ड की संभावना से नियंत्रित करता है। समाज विरोधी कर्मों पर अंकुश लगाने से समाज व्यवस्थित होता है। दुसरी कपोल कल्पना से आत्मा की अमरता के कारण, मृत्यु की आशंका से मुक्त होता है। तीसरी कपोल कल्पना से, सर्वशक्तिमान दयालु ईश्वर एवं उसकी आराधना के विधान से कठिनाई के समय सहायता द्वारा असफलता की आशंका से मुक्ति होती है।
8. जाँ जाक्स रूसो(जनेवा 1772-1778)- बुद्धि जब संशय का निराकरण नहीं कर पाती, तब आस्था का जन्म होता है। आस्था बुद्धि को ग्रसित कर लेती है। कालान्तर में आस्था विकृत हो जाती है। इस विकृति के निवारण के लिये बुद्धि की आवश्यकता होती है।
9. लाओ-ज(चीन)- ताओ उतना ही विशाल है जितना कि विश्व। वह सर्वत्र विद्यमान एवं शक्तिमान है। पृथ्वी मानवों का नियम है। ईश्वर पृथ्वी का नियम है। ताओ ईश्वर का नियम और पृथ्वी का नियम है। जहाँ ईश्वर के ताओ, साधन सम्पन्न व्यक्तियों से अल्प साधन वाले व्यक्तियों की सहायता की अपेक्षा करता है, वहाँ मानवों के ताओ की प्रवृति ठीक इसके विपरीत दिशा में जाने की है। ईश्वर का ताओ कभी पक्षपात नहीं करता और न ही कोई हानि ही पहुँचाता है। ताओ सब वस्तुओं का रहस्य है। यह सज्जनों द्वारा संचित होता है और दूसरों को भी इसका परिक्षण करना चाहिये। साधु का ताओ(धर्म) का कार्य करता है, संघर्ष नहीं। इस कारण वह अपने लिये कुछ वचित करना नहीं चाहता। उसे यह ज्ञात होता है कि जितना अधिक वह दूसरों के लिये करेगा, उतना ही अधिक उसको प्राप्त होगा। जब ताओ की प्रधानता होती है, तब चारों ओर शांति होती है तथा घोड़ो का प्रयोग भूमि को जोतने के लिये किया जाता है। जब ताओ की प्रधानता नहीं होती, तब युद्ध होता है और युद्ध क्षेत्र में घोड़ियाँ बछेड़ों को जन्म देती हैं।
10. जॉ पॉल सार्त्र(फ्राँस 21 जून 1905 -16 अप्रैल 1980)- ईश्वर का भाव मनुष्य के द्वारा आत्म चेतना के विकास के क्रम में निर्मित भाव है। अपने अस्तित्व की चेतना में व्यक्ति का अन्य व्यक्तियों की, दृष्टि को दूसरों द्वारा देखे जाने की चेतना होती है। कभी कभी व्यक्ति इन मानवीय संबंधों से अलग हो, अन्य अपने से इतर की उपस्थिति के मूल में जाने की चेष्टा करता है। वह जानना चाहता है कि क्या कोई ऐसी चेतना भी है, जो किसी अन्य की दृष्टि का विषय नहीं है, जो शुद्ध चेष्टा भाव है। इसी क्रम में वह ईश्वर भाव की सृष्टि कर लेता है। स्पष्ट है कि यह भाव अवास्तविक ही है।
11. टॉमस हाब्ज(1588 -1679)- ईश्वर तथा आत्मा संबंधी किसी भी प्रकार का विज्ञान संभव नहीं है तथा आत्मा का भी कोई अस्तित्व नहीं है। आदि काल में मनुष्य प्राकृतिक नियमों से अनभिज्ञ था तथा अनेक प्रकार की प्राकृतिक विपत्तियों के फलस्वरूप सदैव असुरक्षित तथा भय के कारण मानव-समाज में धर्म का जन्म हुआ।
12. हबेर्ट स्पेंसर(डरबी में 1820-1903)- सपनों, परछाइयों और प्रतिबिम्बों की व्याख्या के लिये आदिम मानव मे अपने शरीर से प्रथक आत्मा में मिथ्या विश्वास रचा और धारणा बनाई कि मनुष्य के दो भाग हैं। एक दृश्य शरीर है जो सदा परिवर्तित होता रहता है और दूसरी अदृश्य आत्मा है जो बदलती नहीं। इसके बाद यह विचार पनपा कि आत्मा का नित्य अस्तित्व है और उसे देवी देवता और ईश्वर का नाम दिया है। उन देवी देवताओं और ईश्वर के ऊपर मानव स्वभाव का आरोप कर दिया। यह ईश्वर मनुष्य के समान घृणा करने और बदला लेने वाला बन गया।
13. बनेडिक्टस स्पिनोजा(पुर्तगाल 24 नवम्बर 1632-1677)- अद्वतीय, स्वयंभू, असीमित, आत्मनियत विश्व या द्रव्य को स्पिनोजा प्रकृति या ईश्वर कहते हैं। ये विश्व को ईश्वर नाम देकर, ईश्वर शब्द के प्रचिलित अर्थ को त्यागते हैं। ईश्वर का अर्थ वह सत्ता है जो समस्त विश्व से प्रथक है और इसका सृष्टा और रक्षक है। यदि ईश्वर का अस्तित्व समस्त विश्व से प्रथक है तो ईश्वर न तो गुणों में और न शक्ति में असीमित रहेगा, इसलिये ईश्वर नहीं रहेगा। यदि ईश्वर समस्त विश्व से भिन्न है तो भिन्नता तभी संभव है जब समस्त विश्व में ऐसे गुण संभव हों जो ईश्वर के गुणों से भिन्न हों। इसका अर्थ यह हुआ कि ईश्वर में कुछ गुणों का अभाव होगा। इसी प्रकार यदि समस्त विश्व का ईश्वर से प्रथक अस्तित्व है तो ईश्वर की शक्ति सीमित है। कोई भी दो द्रव्य एक दूसरे की शक्ति को सीमित करते हैं। इसलिये ईश्वर का कोई प्रथक अस्तित्व नहीं। प्रकृति और ईश्वर एक अद्वितीय, असीमित और स्वयंभू द्रव्य के दो नाम है, जैसे किसी व्यक्ति के दो नाम होते हैं। स्पिनोजा ने समस्त विश्व को ईश्वर इसलिये कहा है कि वे समस्त विश्व के आध्यात्मिक पक्ष की सत्यता पर जोर देना चाहते थे।
स्पिनोजा के अनुसार प्रकृति या ईश्वर ही स्वतंत्र है। स्वतंत्र साधारणतया अपनी मनमानी इच्छा से काम करने वाले को कहा जाता है। किन्तु असीमित प्रकृति या ईश्वर की कोई इच्छा नहीं हो सकती। इच्छा तो सीमित व्यक्तियों का लक्षण है। जब स्पिनोजा प्रकृति या ईश्वर को स्वतंत्र कहते हैं, तब उनका अभिप्राय यह है कि प्रकृति या ईश्वर का कार्य किसी बाहरी शक्ति के द्वारा निर्धारित नहीं होता, बल्कि उसके अपने स्वभाव का अनिवार्य परिणाम है। विश्व पूर्ण है। इसमें न कुछ बढ़ाया जा सकता और न कुछ घटाया जा सकता, जैसे 2+2=4 के अतिरिक्त अन्य संख्या नहीं हो सकती।
मनुष्य की उच्चतम अवस्था वह है जो ईश्वर को बौद्धिक रूप से प्यार करे। ईश्वर केवल समस्त विश्व का नाम है। जिसका ताना-बाना तार्किक है। समस्त विश्व के लिये प्यार का आधार आवेग नहीं, बल्कि बुद्धि है। जिस चीज को हम प्यार करते हैं, उसके साथ एक हो जाते हैं। जब स्वतंत्र मनुष्य एक अद्वितीय, स्वयंभू, असीमित और नित्य विश्व का द्रव्य के साथ एक हो जाता है, तब वह मानसिक रूप से नित्यता का अनुभव करता हैं। जो अवर्णीय है।
……..
……
क्या आप इन विचारों से सहमत है, यदि हैं तो क्यों? यदि सहमत नहीं हैं, तो क्यों?
समस्या है तो समाधान करना ही होगा।
शेष अगले अंक में

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