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आप सभी ने ये कहावत या कहे वक्तव्य हमेशा ही सुना होगा की कि एक औरत ही औरत कि दुश्मन होती है, एक औरत दूसरी को खुश, अपने से आगे बढ़ता हुआ नहीं देख सकती और न ही उसकी मदद कर सकती है ……………क्या ये बात सच है ? क्या सच में नारी, नारी के स्वरूप को उसके ख़ुशी को बर्दाश नहीं कर सकती?
मुझे नहीं लगता है …………ये बात तो पुरूषों के साथ भी लागू होती है वो भी तो अपने आगे दुसरो को कुछ नहीं समझते या कहिये अपने से बढ़ कर उनके लिए दूसरा कोई है हीं नहीं
वैसे दुसरो से चिढना मदद न करना ये एक मानव स्वभाव है वो एक बच्चे में हो सकता है दो दोस्तों में हो सकता है दो सहकर्मी के बीच हो सकता है सहपाठी के साथ हो सकता है पड़ोसियों के बीच हो सकता है यहाँ तक की दो राष्ट्र के बीच भी होता है और ये स्वभाविक भी है क्यूँ की ये मानव स्वभाव है कहीं न कहीं हम सभी कभी न कभी किसी न किसी से चिढ़े है जलन के भाव आये है या दूसरो से अच्छा बनना चाह है ऐसा स्वभाव होना बुरा भी नहीं प्रतिस्पर्धा की भावना तो बनी रहती है और आगे बढ़ने के लिए स्वस्थ प्रतिस्पर्धा होना भी जरुरी है कहने का मतलब है ये स्वभाव किसी भी के साथ हो सकता है इसमें नारी जाती को ही बदनाम किया जाये ये बात गले से नहीं उतरती |
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