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दंश

पहचान
पहचान
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मैं जब गुजरती हूँ
इन परिचित राहों से
मिलते है कई चेहरे
पहचाने, अनजाने से
जिस्म को चीरती नजर
अश्लील फब्तियां, गंदे इशारे से
हो जाती हूँ मैं असहज
ढूंढ़ती हूँ मैं राह
इन सब से बच जाने कि
कभी मन होता है
हिम्मत करूँ आगे बढूँ
सामना करूँ इन ना मर्दों का
फिर चुप हो जाती हूँ
ये सोच कर कल ही तो
इक लड़की खबर बन गयी थी
सभी चैनल और अख़बार में
छप वो गयी थी
किया था हौसला उसने
लिया था फैसला उसने
ऐसे ना मर्दों को सबक सिखाएगी
चुप न बैठेगी वो ललकारेगी
बीच बाजार हुआ तमाशा खूब था
जड़ दिया तमाचा एक जोर का
बात बड़ी, भीड़ बड़ी
तमाशबीन उस भीड़ मे
असली चेहरों कि भी
पहचान खूब हुई
लड़की का हौसला
उन लड़कों को ना हजम हुआ
अगले ही दिन उस लड़की कि
अस्मिता को तार- तार कर गए
बदले की आग मे, तेजाब से
उसका चेहरा भी बेकार कर गए
परछाईं भी छुए तो सहम वो जाती थी
अपना चेहरा देख कर डर वो जाती थी
इसी डर और ख़ौफ़ में
वो फैसला कुछ कर गयी
अपने परिवार को
रोता बिलखता वो छोड़ गयी
जिस दामन से अपना रूप सजाती थी
अपने गले में उसी से
फाँसी का फंदा लगा गयी
इस लिए चुप मैं कर जाती हूँ
रोज नया जहर का घूंट मैं पी जाती हूँ

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बदकिस्मत हैं हमारा  समाज जहां बलात्कार होता है

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