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“मौत”

पहचान
पहचान
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मृत्यु का सार है क्या
इन्सान कि हार है क्या
जीता है ये सब से
बेबस क्यूँ है आगे इसके
किस बात का फिर दंभ भरता है
मौत के आगे झुक के
जीवन का अंत करता है
रोता बिलखता छोड़ ये सब को
अनंत कि और ये चलता है
रोक सका न कोई इसको
किसी के आगे न ये रुक  पाई है
फिर भी इन्सान को जीने कि कला कहाँ आ पाई है

क्रोध, लोभ, हिंसा, व्यभिचार, का

तांडव ये रच रहा
मौत के आगे फिर क्यूँ
बेबस ये दिख रहा

मौत के आगे फिर क्यूँ
बेबस ये दिख रहा

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