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प्रेम से ऊपर कोई दुनिया नहीं!

ॐ सनातनः
ॐ सनातनः
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प्रेम है तो सब है सबकुछ सम्भव है प्रेम नही तो कुछ भी नही तथा बिना प्रेम के सम्भव भी असम्भव है, वास्तव मे आप सभी को यही प्रतीत हो रहा होगा ना की प्रेम ढाई अक्षरों का शब्द अत्यन्त न्यून है और आप सभी इससे भली-भाँति परिचय होगें इसलिए मै मात्र इस संदर्भ मे इतना कहना चाहता हूँ आगे पढ़ियेगा उसके उपरान्त यह विचार कीजियेगा की क्या आप प्रेम के इस स्वरुप से वास्तव मे परिचित थे या नही. चलिये आप सभी को ले चलता हूँ इस सृष्टि के निर्माण के पूर्व के समय मे क्योंकि प्रेम की उत्पति तो इस सृष्टि के निर्माण से पूर्वं ही परब्रह्म के ही दो अनादि स्वरुपों द्वारा हुई थी जिसका वर्णन मै स्वंय कर रहा हूँ और आभारी हूँ इस समग्र ब्रह्मण्डं के स्वामिनी अर्थात आदिशक्ति का जिनकी इच्छा से मुझे यह असीम मोक्षस्वरुपी ज्ञान प्राप्त हुआ.

 

जब इस ब्रह्मण्डं मे कुछ भी नही था तो एक हिरण्यगर्भः था अर्थात स्वंय “ॐ” अर्थात परब्रह्म थे उनके ही भीतर विघमान उनके ही एक स्वरुप देवी कामाख्या जो योनीस्वरुप मे असम की राजधानी दिसपुर के पास गुवाहाटी के समीप नीलांचल पव॑त पर जिनका मंदिर स्थित है जहाँ देवी सती का योनी भाग गिरा था इस कारण देवी का यह मंदिर शक्तिपीठों मे प्रमुख स्थान रखता है इन्ही देवी कामाख्या के ही कारण परब्रह्म के हृदयं मे एक कामना ने जन्म लिया की “एकोहम् बहुस्याम” अर्थात मै एक हूँ और मै अनेक हो जाऊँ और अपने भीतर विघमान सभी अन्नंत अशों की अनेकों प्रकार से परिक्षाये लूँ और अपनी ऊर्जा का निर्माण उत्तम से सर्वाेत्तम करुँ जिस प्रकार कोई योद्धां अपनी एक भुजा से शस्त्रों का संधान करता है और वही प्रयास वह अपनी दूसरी भुजा के साथ साथ करता है ताकि युद्धक्षेत्र मे वह अपनी दोनों भुजाओं से सर्वाेत्तम प्रदर्शन कर सके. इस प्रकार की कामनाओं के साथ परब्रह्म ने भी स्वंय से अपनी दो प्रकार की ऊर्जाओं को पृथक किया जिन्हे पुरुष तथा प्रकृति कहा गया. जिन्हे कुछ लोग ज्ञान तथा शक्ति कहते है, कुछ आदिपुरुष तथा आदिशक्ति कहते है जिन्हे पुराणों मे ब्रह्मा व ब्रह्माणी, नारायणं व नारायणी एवं शिव तथा शिवा कहा जाता है परन्तु वास्तव मे ये तीनों पुरुष और प्रकृति के ही स्वरुप है जिन्हे उनके कर्मों के आधार पर विभक्त किया गया है. प्रकृति ने इस सृष्टि की निर्गति के लिए स्वंय को तेइस भागों मे पृथक किया जिन्हे पाँच महाभूत(पृथिवी, जल, अग्नि, वायु व आकाश), पाँच कोश(अन्नंमय, प्राणमय, मनाेमय, विज्ञानमय तथा आन्नंदमय), पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ(नेत्र, कर्ण, नासिका, जिह्वा एवं त्वचा), पाँच कर्मेन्द्रियाँ (काम, क्रोध, मोह, लोभ और मदिरा) तथा तीन गुण (सत्वः, रजसः व तमस:) कहाँ जाता है प्रकृति ने अपनी ऊर्जाओं से इस प्रकार चौरासी लाख प्रकार के यन्त्रों का निर्माण किया और इन यन्त्रो से एक ऊर्जा का निर्माण हुआ जिसे चेतना अर्थात मन कहा गया. परब्रह्म के अनादि स्वरुप पुरुष को परब्रह्मस्वरूपिणी प्रकृति से इतना प्रेम था की पुरुष ने प्रकृति द्वारा निर्मित किये गये सभी यन्त्रों मे आत्मा बनकर वास किया और इस प्रकार इस सृष्टि मे चौरासी लाख प्रकार के प्राणियों का उद्भव हुआ.

आप सभी को तो अब इस तथ्य का ज्ञान हो ही चुका होगा की प्रेम जैसे महावाक्य की उत्पति कैसे हुई और अब मै इसके स्वरुप का वर्णन करता हूँ

शास्त्रों मे धर्म के पाँच स्तम्भों का वर्णन मिलता है प्रेम, धैर्यं सत्य, ज्ञान व समर्पण जबकी मै ईश्वरः द्वारा प्रदत्त ज्ञान के आधार पर कहता हूँ की प्रेम के पाँच स्तम्भ होते है सत्य, ज्ञान, समर्पण, धैर्य तथा न्याय. मै ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मेरे अनुसार प्रेम व धर्म मे कोई भेद ही नही.

प्रेम तो मोक्षं प्रदान करने का सबसे सरल मार्ग है बिना प्रेम के कोई मोक्षं प्राप्त ही नही कर सकता यह सदैव नवीन से भी नवीनतम मर्यादा स्थापित करने का माध्यम रहा है सभी नवीन परम्पराओं के उद्भव का कारण भी प्रेम ही है जो स्वंय किसी बन्धन मे नही बँधता जो सदैव मुक्त करता है यह किसी एक जीव के दूसरे जीव के शरीर से किया ही नही जा सकता यह दो आत्माओं अर्थात परब्रह्म के ही दो अशों के मिलन से उत्पन्नः होता है इस कारणवश दो प्रेमियों को इस सृष्टि की कोई शक्ति पृथक ही नही कर सकती परन्तु इतना अवश्य है की कुछ समय के लिए बाधाओ का निर्माण करने की मूर्खता अवश्य कर सकती है वो इस प्रकार जैसे वर्षा होने पर जल छोटी-2 धाराओं द्वारा नदी मे मिलता है तथा नदी का सागर मे मिलन होना ही नदी की ही नियति होती है ठीक उसी प्रकार सभी आत्माओं का मिलन परमात्मा मे होना भी निश्चित् ही नही सुनिश्चित् है फिर उसमे बाधा उत्पन्नः करने का व्यर्थ प्रयास भला क्यों करना जबकी प्रेम एक अद्भुत् तथा अलौकिक अनुभूति है.

आप को प्रेम के इसके अतिरिक्त जिस भी स्वरुप का ज्ञानं है वह वास्तव मे प्रेम नही अपितु मोह है और मोह ही अनेकों प्रकार के दुष्कृतं कराने का निमित्त बनता है ना की प्रेम.

इस समाज कुछ मनुष्यों से जो प्रेम अर्थात धर्म के मार्ग मे आने का अनैतिक प्रयास करते है मै उनसे मात्र कहूँगा की

” ईश्वरः तथा नियति की योजनाओं मे जो बाधा उत्पन्नः करते है उन्हे या तो ज्ञान का अहंकार होता है या वो पूर्णतः मूर्ख होते है.”

भविष्य मे प्रेम द्वारा पुनः नवीन मर्यादा व परम्पराओं का निर्माण होगा जो प्रेम अर्थात धर्म व इस प्रकृति के समक्ष समर्पण करेगे उनका इस प्रकृति द्वारा उद्धार होगा और जो इस परिवर्तन को स्वीकार नही करेगें समय स्वंय उन सबका नाश कर देगा ठीक उसी प्रकार जैसे नदी की धाराएँ जब तीव्र होती है तब जो वृक्ष (बेत या बाँस) नदी की धाराओं के समक्ष समर्पण करते है वो सकुशल होते है नदी उन्हे कोई क्षति नही पहुँचाती और वही उसके विपरित जो वृक्ष अथवा भवन नदी के समक्ष समर्पण नही करते नदी उन सबका नाश कर देती है. परिवर्तन इस सृष्टि का अलौकिक गुण है आप सभी तो इस बात को जानते ही होगें और आप सब इस प्रकृति की स्थित को देख ही रहे है इसलिए मै आप सभी से यह पूछता हूँ क्या यह प्रकृति पूर्णतः संतुलित है क्या यहाँ ठीक प्रकार से कोई धर्म का वहन कर रहा है मात्र धर्म को जान लेने से धर्म का वहन नही हो जाता धर्म का उचित रुप से पालन करने के लिए तो सघर्ष करने पड़ते और अनेकों प्रकार के बलिदान को देना पड़ता है. स्वंय इस प्रकृति ने मुझे एक सत्य की अनुभूति बहुत समय पूर्वं करायी थी जिसे मै आप सभी के समक्ष शेयर कर रहा हूँ वो ये की इस पृथिवी पर सात से आठ अरब की संख्या मे मनुष्य निवास करते है परन्तु उनमे से उचित तथा न्याय संगत होकर एक सहस्त्र मनुष्य भी ठीक प्रकार से धर्म का वहन नही करते कितनी अजीब परिस्थिति है ना धर्म पालन करने का दिखावा तो बहुत से करते है परन्तु वहन नही.

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