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इसमें मै अहंकार की उत्पति तथा किस प्रकार अहंकार द्वारा किसी का विनाश किया जाता है उसके विषय मे वर्णित करुँगा.
अहंकार एक ऐसी अशुद्धि है जो इस सृष्टि के किसी भी शक्तिशाली शक्ति का अन्त अत्यन्त सरलता से कर देती है जिसने अत्यन्त सरलता से इस सृष्टि के महानतम ज्ञानी लंकापति रावण का भी समूल नाश करा दिया.
इसकी उत्पत्तिं मूलतः “मै” नामक शब्द से होती है प्रायः इस जगत् मे सभी यही सोचते है की मै ये हूँ वो हूँ परन्तु क्या यह सत्य है की कोई क्या है और कौन है तथा क्यों है.
इस सृष्टि का सनातन सत्यं जब यही है की यहाँ सबकुछ नश्वर है तो भला कोई क्या कुछ भी कैसे हो सकता है.
इस समाज मे लोग सत्य को जानने के उपरान्त भी इस सत्य से दूर भागते का प्रयत्न करते है और ऐसा इसलिए होता है की इस सृष्टि मे सभी मे सत्य स्वीकार करने का सामर्थ्य ही नही होता और इसी कारण अहंकार की उत्पति होती है.
इस त्रिलोक की सत्यता तो यही है की यहाँ पर सबकुछ परमात्मा का ही स्वरुप है.
ऐसे मे सत्य तो यही है की कोई भी कुछ नही है और जो इस सत्य को जान लेता है उसमे लेशमात्र का अहंकार नही होता.
चलिए अब मै ईश्वरः द्वारा प्रदत्त ज्ञानं के अनुसार आप सभी को यह बताने का प्रयत्न करता हूँ की अहंकार की उत्पति कैसे होती है…
जब कोई मनुष्य स्वंय को औरों से अधिक श्रेष्ठ समझने की मूर्खता करता है और दूसरों को निम्न कोटी का समझने लगता है अर्थात अपने अतिरिक्त दूसरों को नीचा दिखाने का कार्य करता है तब उस व्यक्ति मे अहंकार की उत्पति होती है.
स्वंय को महान समझना उचित है परन्तु औरों को निम्न कोटी का समझना पूर्णतः अनुचित है क्योंकि स्वंय को महान समझने से स्वाभिमान की उत्पति होती है परन्तु दूसरों को निम्न कोटी का समझने से अहंकार की उत्पति होती है.
जब कोई व्यक्ति किसी अन्य से अपनी शक्तियों व उपलब्धियों का प्रमाणं माँगता है अर्थात उसे स्वंय की शक्तियों पर विश्वास ही नही होता तब भी अहंकार की उत्पति होती है.
ऐसा इसलिए है क्योंकि सम्मान व अपमान तो स्वंय की दृष्टिकोण मे होता है ना किसी अन्य के क्योंकि इस सृष्टि मे कोई अन्य व्यक्ति या संस्था पूर्णतः किसी की योग्यता का प्रमाणं ही नही दे सकती.
इस कारणवश जो इन पर अपनी योग्यता को प्रमाणित करवाने के लिए आश्रित् हो जाये वह व्यक्ति इस प्रकृति के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का त्याग कर देते है जिनके लिए उनका जन्म हुआ था और वो सभी अनैतिक मार्गे का चयन कर लेते है.
ज्ञानी मनुष्य कभी भी अपनी प्रशंसा नही करता क्योंकि वह इस सत्य से भली-भाँति अवगत होता है की वह जो कुछ इस प्रकृति के प्रति कर्म कर रहा है वह उसका उत्तरदायित्व है ना की इस प्रकृति या समाज के प्रति किसी भी प्रकार का उपकार और इसी कार्य की पूर्ति के लिए उनकी उत्पत्तिं हुई है ना की अपनी महानता का वर्णन करने के लिए.
जो मनुष्य यह सोचते है की उन्होने इस समाज के लिए अनेकों प्रकार के कार्य किये है और अपनी महानता का बखान करते है उन सभी से मै यह कहना चाहता हूँ की इस समाज का निर्माण इस प्रकृति ने परब्रह्म की इच्छा से चौरासी लाख प्रकार के जीवों के स्वरुप मे किया है और वो सभी जीव किसी से अपनी महानता का बखान नही करते और निरन्तर इस प्रकृति के कल्याणं के लिए अपनी-2 भूमिकाओ का निर्वहन करते है.
आप सभी अपने चारों ओर अपनी दृष्टि द्वारा उन जीवों का इस प्रकृति के प्रति निर्वहन किये जा रहे उत्तरदायित्व को देख सकते है जो निरन्तर अपनी-2 भूमिकाओं का निर्वहन कर रहे है तथा जिन पर स्वंय मनुष्य भी निर्भर है.
इस प्रकृति मे वास करने वाला कोई जीव अकारण नही है ईश्वरः ने सभी को अपनी योजनाओं की पूर्ति के लिए इस प्रकृति मे अवतरित किया है इसलिए सभी जीव समान है क्योंकि किसी के दायित्वों की पूर्ति कोई अन्य जीव कर ही नही सकता इस कारणवश हमें इस बात का सम्मान करना चहिए की प्रकृति ने हमें ऐसे कर्तव्यों के योग्य समझकर हमे इतनी शक्ति प्रदान की है की हम सभी अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन उचित प्रकार से सम्पन्नं कर सकें.
जो मनुष्य अपने उत्तरदायित्वों का त्याग कर देते है और परमात्मा द्वारा दी गई शक्तियों का अपने स्वार्थंपूर्ति के लिए प्रयोग करते है ऐसे मनुष्य परमात्मा के विश्वास को तोड़ने का कार्य करते है जिनके लिए परमात्मा ने उन्हे इतनी शक्तियाँ प्रदान की थी.
ऐसा करने के कारण ऐसे मनुष्यों मे धर्म का क्षय हो जाता है और जिस स्थानं पर प्रेम अर्थात धर्म नही ऐसे स्थान पर विकार का उत्पन्नं होना भी सुनिश्चित् हो जाता है.
समय भी ऐसे मनुष्यों का नाश करने के लिए सदैव तत्पर होता है.
श्री रामचरित्र मानस के अनुसार…
“जाको प्रभु दारुण दुख देही ताकी मति पहिले हरि लेही”
जब ईश्वरः किसी दुष्टं जीव को कष्ट देना चाहते है तो उसकी बुद्धि का नाश पहले ही कर देते है.
अर्थात जो परमात्मा द्वारा दिये गये ज्ञान तथा शक्तियों का दुरुपयोग करके ईश्वरः का विश्वास तोड़ने का कार्य करता है ईश्वरः उसे उचित मार्ग पर लाने के लिए उसकी बुद्धि का नाश करने के पश्चात् उसे उसके कर्मो के अनुपात मे उचित दण्ड देते है.
श्रीमद् भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय के 62वें तथा 63वें श्लोक के अनुसार…
“ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥”
विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है.
“क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥”
क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है.
अर्थात जब किसी मनुष्य की किसी अनुचित् विषय के प्रति आसक्ति होती है और वह जब उसकी पूर्ति नही कर पाता तो उसमे क्रोध की उत्पति होती है और से मोह की उत्पन्नं होता है
और मोह से मनुष्य अपने अाचार विचार का ज्ञानं भूल जाता है जिससे उसमे अहंकार की उत्पति हो जाती है ऐसे मनुष्य की यह सम्पूर्ण प्रकृति शत्रु बन जाती है और इसके उपरान्त ऐसे मनुष्य का पूर्णतः पतन हो जाता है.
आप सब भी अपने साथ पूर्ण रुप से ईमानदार होकर स्वंय से पूछियेगा की आप सभी क्या इस सृष्टि के प्रति अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन पूरी निष्ठा व समर्पण के साथ कर रहे है या नही…?
यदी आप सम्पूर्ण समर्पण के साथ अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे होगें तो आप सभी के जीवन मे सघर्षं अवश्य होगें परन्तु पीड़ा प्रदान करने वाले कष्ट कदापि नही होगें और यदी आप सभी के जीवन मे पीड़ा रुपी कष्ट है तो आप सभी को अपने दृष्टिकोण तथा कार्यशैली मे परिवर्तन की अत्यन्त अावश्कता है.
ऐसा करने से जीवन निसंदेह आपका जीवन सुखमय हो जायेगा.
स्वंय विचार कीजियेगा आप सभी अपनी आत्मा द्वारा आप सभी को उचित मार्ग का ज्ञानं अवश्य होगा क्योंकि आत्मा तो अन्नंत ज्ञानं का स्त्रोत् है.
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