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भगवान श्रीकृष्ण के अलौकिक व्यक्तित्व का कारण

ॐ सनातनः
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“आप सभी को नारायणं के अष्टम अवतार व सोलह कलाओं से परिपूर्ण युगपुरुष भगवान् श्री कृष्ण के जन्म दिवस की शुभकामनाये”

आज से लगभग 5282 वर्ष पूर्व नारायणं ने स्वंय मानव स्वरुप मे माता देवकी के गर्भं से इस वसुधा पर मथुरा नामक स्थान मे अवतरित् हुये थे.
भगवान् श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को हुआ था उस दिवस चन्द्रदेव अपनी उच्च राशि बृषभ मे भ्रमण कर रहे थे तथा उस दिवस घोर रात्रिः मे बृषभ लग्न का उदय हुआ था जिसमे नारायणं ने यह अवतार धारण किया था.

श्रीमद् भगवद्महापुराण के श्लोकानुसार

उच्‍चास्‍था: शशिभौमचान्द्रिशनयो लग्‍नं वृषो लाभगो जीव: सिंहतुलालिषु क्रमवशात्‍पूषोशनोराहव:।

नैशीथ: समयोष्‍टमी बुधदिनं ब्रह्मर्क्षमत्र क्षणे श्रीकृष्‍णाभिधमम्‍बुजेक्षणमभूदावि: परं ब्रह्म तत्।।

अर्थात बृषभ लग्न मे चन्द्रमा, सूर्य अपनी स्वराशि सिंह मे, बुध अपनी उच्च राशि कन्या मे, शुक्र अपनी स्वराशि तुला मे, शनि अपनी उच्च राशि तुला मे व शनि के साथ केतु, मंगल अपनी उच्च राशि मकर मे, गुरु अपनी स्वराशि मीन मे तथा राहु मेष राशि मे विद्यमान थे.

लग्न( प्रथम भाव)

लग्न मे उच्च का चन्द्रमा होने के कारण इनका स्वरुप उस समय इस सम्पूर्ण वसुधा पर उपस्थित सभी मनुष्यों मे श्यामवर्ण का होने के पश्चात् भी अत्यन्त मनमोहक थे.

पराक्रमं भाव(तृतीय भाव)
पराक्रमं भाव मे अपनी ही स्वराशि पर चन्द्रमा की दृष्टि होने के कारण भगवान श्रीकृष्ण सभी मनुष्यों की मनस्थति जानने मे अत्यन्त निपुणं थे तथा इसके साथ ही इस भाव पर उच्च के शनि व उच्च के मंगल की दृष्टि होने के कारण इनके समक्ष कोई भी शत्रु ना टिक सका व इसी कारण इन्होने अट्ठारह अक्षौहिणी से अधिक सेनाओं के मध्य मे अर्जुन को संबोधित किया.

मातृ भाव( चतुर्थं भाव)
इस भाव मे स्वराशि का सुर्य होने के कारण इन्हे जन्म के पश्चात् ही अपनी माता यशोदा से वियोग सहन करना पड़ा तथा कुछ वर्षो पश्चात् माता यशोदा से वियोग सहन करना पड़ा. इस भाव को सुख भाव भी कहा जाता है इसी कारण भगवान श्री कृष्ण को पृथ्वी का भार कम करने के लिए तथा सन्तुलन स्थापितं करने के लिए इन्हे अनेको यात्राएँ करनी पड़ी.

प्रेम या ज्ञान भाव(पंचम भाव)
इस भाव मे उच्च का बुध होने के कारण ये ज्ञान की पराकाष्ठा भी कहे जाते है और इस भाव पर स्वराशि के गुरुं की पूर्ण दृष्टि होने के कारण इन्होनें श्रीमद् भगवद्गीता की अमृतमयी, मोक्षं प्रदायनी ज्ञान इस सृष्टि को प्रदान किया तथा इनकी अनेकों संताने हुयी.

शत्रु भाव( षष्ठ भाव)
इस भाव मे स्वराशि का शुक्र, उच्च की शनि व केतु विद्यमान होने के कारण था इस भाव पर राहु की दृष्टि होने के कारण भगवान श्री कृष्ण एक महान शत्रुहंता बने.

दाम्पत्य भाव (सप्तम भाव)
इस भाव पर उच्च के चन्द्रमा, उच्च के बुध की दृष्टि व स्वराशि के शुक्र, उच्च के शनि, उच्च के मंगल व केतु से युति होने के कारण इनके सोलह सहस्त्र एक सौ आठ विवाह हुये.

भाग्य भाव(नवम् भाव)
इस भाव मे उच्च के मंगल होने के कारण भगवान श्री कृष्ण अत्यन्त भाग्यशाली थे.

कर्म भाव (दशम भाव)
कर्म भाव पर कर्मफल दाता शनि की स्वराशि पर, शुक्र, केतु की दृष्टि व सूर्य की पूर्ण दृष्टि होने के कारण व गुरुं व मंगल से इस भाव की इस भा से युति होने के कारण भगवान श्री कृष्ण एक महान कर्मयोगी हुये जो इस समाज मे ही रहकर वैराग्यं व संन्यास की पराकाष्ठा थे.

भाग्य भाव(एकादश भाव)
इस भाव पर उच्च के बुध की पूर्ण दृष्टि व स्वराशि का गुरु होने के कारण ये एक महान वक्ता थे जिसके कारणं ही ये अर्जुनं के माध्यम से सम्पूर्ण जगत् को दिव्य ज्ञान स्वरुपी श्रीमद् भगवद्गीता प्रदान कर सके.

मोक्षं भाव(द्वादश भाव)
इस भाव मे अपनी शत्रु अर्थात सूर्य की उच्च राशि मे राहु के होने के कारण इनके शरीर त्याग करने का माध्यम के बहेलिये का तीर बना. इस भाव राहु के विद्यमान होने तथा षष्ट्म भाव पर राहु की पूर्ण दृष्टि होने के कारण इनकी मृत्यु अत्यन्त विचित्र प्रकार से हुई थी.

भगवान् श्रीकृष्ण एक महान कर्मयोगी थे इनका आचरण अतुलनीय था.
मै आप सभी से इतना निवेदन करुँगा की ईश्वरः सदा जन्म लेकर एक नवीन मर्यादा व उदाहरण इस कारणवश प्रस्तुत करते है की इस पृथ्वीं पर वास करने वाले सभी जीव उनकी भाँति सर्वाेत्तम कर्म करते हुये जीवन व्यतीत कर सके ना की उन्हे मात्र ईश्वरः मानकर उनकी आराधना करें.
आजकल लोग यह सोचते है की उन्हे ईश्वरः को कुछ अर्पण करने से या किसी मन्त्रं का जप करने से उनकी सारी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जायेगी इस पर आप सभी से ये कहूँगा की ऐसा सम्भव ही नही क्योंकि हमारे कर्म ही हमारे भाग्य व कर्मफल का निर्धारण करते है ऐसा इसलिए है क्योंकि आप स्वंय मेरे वचनों पर विचार कीजियेगा की…
आप सभी को किसी स्थान की यात्रा करनी है आप उस स्थान स्वंय चलकर जाना पसंद नही करते और ना किसी वाहन या किसी अन्य को इसका निमित्त बनने देते है आप चाहते है की वह स्थान स्वंय आप तक चलकर आये क्या ऐसा सम्भव होगा
मै आप सभी से यह प्रश्न करता हूँ..?
यदी ऐसा सम्भव नही होगा तो क्या ईश्वरः को कुछ अर्पण करने से या मंन्त्रों के जप से यह सम्भव होगा की आपकी मनोकामनाएँ पूर्ण हो.

यदी आप सभी को निश्चित् उद्देश्य की प्राप्ति करनी है तो कर्म कीजिये. इस सृष्टि मे एक क्षणं के लिए भी कोई भी जीव कर्म का त्याग नही कर सकता इस कारणवश आप सभी जगत् कल्याणं को ध्यान मे रखकर अपने सभी दायित्वों को पूर्ण कीजिये और यदी सत्य मे कुछ ईश्वरः को अर्पित करना चाहते है तो वो अपने विकार का अर्पण कीजिये और संकल्प कीजिये आज से आप सभी सदैव धर्म का निर्वहन करेगे.
ईश्वरः की इच्छा आप सभी का जन्म इस वसुधा पर इसलिए हुआ की आप सभी परमसत्य को प्राप्त करे,स्वंय को आत्मा के स्वंरुप मे जानकर अपने ब्रह्म स्वरुप का साक्षात्कार करें यही ईश्वरः का आपका सर्वाेत्तम अर्पण होगा.

“यह अधिक उत्तम है की धीरे-2 ही कुछ श्रेष्ठं करते हुये मृत्यु को प्राप्त हो विपरित इसके की तामसिक प्रवृत्तियों मे लिप्त होकर सहस्त्रों बार जन्म ले और मृत्यु को प्राप्त हो.”

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