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-:अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च:
इस सृष्टि का सनातनः सत्यं यही है की अहिंसा ही परम धर्म है क्योंकि जब इस सृष्टि का प्रत्येक कण परब्रह्म का ही अंश है जिस प्रकार सुर्यदेव का अंश उनकी प्रकाश की किरणें होती है जो सुर्य की उपस्थिति की अनुभूति सदैव हमें कराती रहती है!
“सर्व खलु इदं ब्रह्म”
अर्थात इस सृष्टि का प्रत्येक सुक्ष्म से भी सुक्ष्मतम कण व यह समग्र ब्रह्माण्ड परमात्मा का ही स्वरुप है
अतः इस मे ईश्वरः के अतिरिक्त और कुछ भी नही तथा इस सृष्टि के किसी भी जीव मे कोई भेद नही सभी समान है.
जब इस सृष्टि का प्रत्येक जीव ईश्वरः का ही स्वरुप है तो किसी भी जीव मे किसी भी प्रकार का भेद यदी किया जा सकता है तो वह उसके ज्ञान, कर्म व विचारों के आधार पर ना की जाति, कुल या परम्परा व किसी अन्य जीव के आधार पर.
श्रीमद् भगवद्गीता के अनुसार
किसी भी जीव का निर्माण उसके विचारों के आधार पर होता है.
नारायणं के दशावतार के नवम् अवतार गौतम बुद्ध के अनुसार
हम जैसा सोचते है वैसा बन जाते है.
अर्थात इस सृष्टि का कोई भी जीव अपने मन, मष्तिक के द्वारा जिस प्रकार के विचारों का विश्लेषण करता है उसका निर्माण उसी के अनुरुप होता है.
जब इस सृष्टि का प्रत्येक जीव ईश्वरः का ही अन्नंत स्वरुप है तो हम किसी जीव के साथ अनावश्यक हिंसा करना वो मात्र और मात्र अपने परम्पराओं व स्वाद् के कारण किसी निर्दोष व निरीहं(निर्बल) जीव की हत्या करना क्या उचित कृत्य है.
श्रीमद् भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय के 59 वें श्लोकानुसार
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते॥
अर्थात स्वाद से मुक्त होने के लिए जो मनुष्य भोजन का त्याग कर देते है उनका शरीर भोजन द्वारा प्राप्त होने वाली ऊर्जा के आभाव मे निर्बल हो जाता है इस कारणवश हमें किसी भी परिस्थिति या ईश्वरः को प्रसन्नं करने के लिए भोजन का त्याग कदापि नही करना चाहिए अपितु वही उसके विपरित हमें स्वाद की लालसा का त्याग करना चाहिए.
अब प्रश्न यह उठता है की…
ईश्वरः का ही एक स्वरुप उसी ईश्वरः को प्रसन्नं करने के लिए भोजन का त्याग करें तो क्या ईश्वरः उसके इस कृत्य से प्रसन्नं होगें भी या नही…?
स्वंय विचार कीजियेगा आपकी आत्मा आपका मार्गदर्शन अवश्य करेंगी.
श्रीमद् भगवद्गीता के सोलहवे अध्याय के द्वितीय व तृतीय श्लोकानुसार…
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्॥
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहोनातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत॥
अर्थात हे भरतवंशी अहिंसा, सत्यं, क्रोध न करना शान्ति व शरीर, मन व मष्तिक की शुद्धता जीवों के प्रति दया भाव, मन, वचन व कर्मो से किसी को क्षति ना पहुँचाना. अपनी समस्त इन्द्रियों को अपने वश मे रखना किसी भी कार्य के प्रति पूर्णतः समर्पित होना. तेज, क्षमा, धैर्यं व किसी से भी शत्रुता न रखना तथा सम्मान का मोह ना होना व अपमान का भय ना होना ये सभी लक्षणं देवतुल्य मनुष्यों मे विद्यमान होते है.
इस श्लोक का सम्पूर्ण सार यह है की कोई भी मनुष्य जाति, कुल व परम्परा के आधार पर निम्न कोटी का व उच्च कोटी का कहा ही नही जा सकता है अपितु उसे उसके कर्मो व विचारों के आधार पर निम्न कोटी का व उच्च कोटी का कहा जाता है. पूर्वंकाल मे जिन जीवों को दैत्य, दानव व राक्षस कहा जाता था वो भी उनकी प्रवृत्ति, कर्मो तथा दृष्टिकोण के कारण राक्षस कहा जाता था ना की इस वसुधा(पृथिवीं) पर उपस्थित थे.
“तद् पुरुषेणहविष्यः यज्ञ देवाः तनबद्धः अस्तिनों तस्मादों जीवोंः
यद् विहव्वनें जीवों:”
अर्थात यज्ञ मे आहुति अवश्य दी जा सकती है जिसमे किसी भी जीव के मांस की भी आहुति अवश्य दी जा सकती है परन्तु वह निर्दोष या निरीहं(दुर्बल) जीव की आहुति नही दी जा सकती अपितु वही इसके विपरीत किसी अपराधी व अधर्मी जीव की बलि अवश्य दी जा सकती है.
कुछ लोग यह भी कहते है की यज्ञ किये जाने पर जो बलि दी जाती है वह जीव जिसकी बलि दी जाती है वह स्वंय बलि के लिए तैयार हो जाता है अर्थात स्वंय की बलि देने की अनुमति प्रदान करता है. आप स्वंय विचार कीजियेगा की यदी किसी भी छोटे शिशु पर प्रहार किया जाता है तो वह भी स्वंय के बचाव के लिए तत्पर हो जाता है.
अब प्रश्न यह उठता है की कोई ऐसा जीव जो किसी शिशु की आयु से कही अधिक बड़ा होता है जिसकी बलि दी जाती है वह अपने बचाव का प्रयत्न भला क्यों नही करेगा.
स्वंय विचार कीजियेगा आप सभी..?
प्रकृति द्वारा प्रदत्त ज्ञानानुसार व हमारे शास्त्रों के अनुसार
इस समस्त पृथिवी पर दो ही ऐसे मनुष्य इस वसुधा पर होते है जो मृत्यु से भयभीत बिल्कुल भी नही होते प्रथम कोई ज्ञानी मनुष्य व द्वितीय सन्यासी. इनके अतिरिक्त शेष अन्य सभी जीव मृत्यु से भयभीत अवश्य होते है. वेदों मे कहा गया है की सहस्त्रों अश्वमेध यज्ञों से अधिक पुण्य किसी निर्दोष व निरीहं जीव के प्राणों की रक्षा करने से प्राप्त होता है. ईश्वर की आराधना करने मे परम्पराओं और यज्ञों का पुण्य तभी साधक को प्राप्त होता है जब साधना करने वाला व्यक्ति का त्याग प्रदर्शित करना चाहिए ना की किसी अन्य निर्दोष जीव का.
अब प्रश्न यह उठता है की
किसी निर्दोष जीव की बलि देने मे किसी साधक की महानता भला कैसे निर्भर हो सकती है किसी की महानता का माध्यम एक निर्दोष जीव कैसे हो सकता है
जब इस सृष्टि का प्रत्येक जीव ईश्वरः का ही अंश है इस कारण अहिंसा ही परम धर्म है और यदी हम किसी भी जीव को किसी भी प्रकार की क्षति पहुँचाने का प्रयत्न भी करेगें तो हमारे द्वारा प्रहार किया जाने वाला प्रत्येक प्रहार प्रहार हम पर ही होगा जैसे कोई मनुष्य मनुष्य किसी पौधे की पत्तियों या पुष्पों और क्षीरं अर्थात दुग्ध ईश्वरः को अर्पित करता है जिससे वह किसी पौधे या वृक्ष की पत्तियाँ व पुष्पं तोड़कर उस पौधे को पीड़ा पहुँचाने का कार्य करता है जबकी उसके द्वारा तोड़ा गया वह पुष्प अनेकों मधुमक्खियों व नर मच्छरों का भोजन नष्ट करता है तथा वह जो क्षीर ईश्वरः को अर्पित करता है वह क्षीरं नलियों मे बहकर नष्ट हो जाता है उस क्षीरं का प्रयोग अर्पण करने वाला किसी योग्य व्यक्ति को दान कर सकता है अथवा अपनी सन्तानों को उस क्षीर का पान करा सकता है क्योंकि वेदों मे तो किसी शिशु को ईश्वरः का स्वरुप कहा गया है और उस साधक को अपनी आराधना का फल निसंदेह प्राप्त होगा जबकी इन पदार्थों और वनस्पत्तियों को नष्ट करके उसे मात्र इस प्रकृति का अपराधी कहा जायेगा शेष अन्य कुछ भी नही.
नारायणः के नवम् अवतार गौतम बुद्ध के अनुसार
अप्पों दीपों भवः
अर्थात अपना दीपक स्वंय बनों अर्थात किसी के द्वारा कही गयी, सुनी-सुनायी बातों, शास्त्रों, उपनिषदों, पुराणों व वेदों मे लिखी गयी कोई भी बात या मेरे द्वारा कहे गये किसी भी वचन व नियमों का पालन तभी करना जब वो तुम्हारी मनस्थति पर खरे उतरे व उनका पालन करने के लिए तुम्हारी आत्मा तुम्हे अनुमति प्रदान करें अन्यथा कदापि नही.
वै मूढ़ा नांन पश्यन्ति: पश्यन्ति ज्ञान चक्षुष:
अर्थात वे जीव मूर्ख होते है जो सामान्य नेत्रों से अपनी मनस्थति के अनुरुप कुछ भी देखकर मात्र और मात्र उसे ही सत्य मान लेते है जबकी सत्य प्रत्यक्ष नही अपितु परोक्ष होता है सत्य को सामान्य दृष्टि से देखा ही नही जा सकता अपितु उसे देखने के लिए ज्ञान के नेत्रो की आवश्यकता होती है न की सामान्य नेत्रो की.
मै आप सभी से यह कदापि नही कह रहा हूँ की किसी जीव का वध करना पूर्णतः अनुचित् है मै मात्र इतना कह रहा हूँ की किसी निर्दोष व निरीहं जीव की हत्या करना पूर्णतः अनुचित् व अत्यन्त अशोभनीय कृत्य है और ऐसा कृत्य जो करेगा किसी परम्परा या यज्ञ के कारण उसे निसंदेह भविष्य मे एक दैत्य की संज्ञा दी जायेगी.
किसी निर्दोष व निर्बल की हत्या करने से किसी का भी पौरुषं सिद्ध नही हो सकता अपितु वही ऐसे जीवों को संरक्षणं प्रदान करने से किसी का पौरुषं अवश्य सिद्ध हो सकता है. वेदों मे यह कहा गया है की जो निर्बलों की सुरक्षा करें उन्हे संरक्षणं प्रदान करे उसे क्षत्रिय कहा जाता है.
धर्मस्थापना के लिए किसी भी अपराधी जीव की हत्या करना भी धर्म का ही स्वरुप है क्योंकि ऐसा करने से वह जीव नवीन शरीर को धारण करेगा और उस शरीर मे उसके उद्धार की सम्भावनाएं और अधिक होगीं.
श्रीमद् भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय के 22 वे श्लोकानुसार…
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥
जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को धारण करता है उसी प्रकार आत्मा पुराने शरीर का त्याग करके नवीन शरीर को धारण करती है.
अर्थात शरीर का त्याग करने के उपरान्त भी किसी जीव की मृत्यु नही होती है.
श्रीमद् भगवद्गीता के अध्याय द्वितीय के 23 व 24 वे श्लोकानुसार…
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥
आत्मा को तो शस्त्रों के पृथक किया जा सकता है ना ही उसे अग्नि जला सकती है ना ही उसे जल भिगों सकती है और ना ही पवन उसे सुखा सकती है.
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥
आत्मा अखण्डित व अघुलनशील है और न ही इसे जलाया जा सकता है ना ही सुखाया जा सकता है यह सनातन, सर्वव्यापी, अविकारी, स्थिर व सदा एक सा रहने वाला है.
श्रीमद् भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय के 26वे व 27वे श्लोकानुसार…
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि॥
अर्थात यदी तुम यह सोचते हो की आत्मा सदैव जन्म लेता है तथा सदैव उसकी मृत्यु होती है तो हे महाबाहु तुम्हारे पास व्यर्थ मे शोक करने का कोई कारण ही नही.
जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि॥
जो जन्मा है अवश्य उसकी मृत्यु होगी और जिसकी मृत्यु होती है उसका पुनः जन्म लेना भी निश्चित् है इस कारण तुम्हे अपने दायित्व का निर्वहन करने के लिए शोक कदापि नही करना चाहिए.
अर्थात जो जन्मा है उसकी मृत्यु भी निश्चित् है और जिसकी मृत्यु होती है उसका जन्म लेना भी निश्चित् है और तब तक ऐसा ही होता रहेगा जब की वह सम्पूर्ण रुप से ज्ञान अर्जित करके स्वंय को ईश्वरः के स्वरुप मे अर्थात आत्मा के स्वरुप मे ना जान ले यही इस सृष्टि का सनातनः सत्यं है जिसे परिवर्तित किया ही नही जा सकता.
अनावश्यक व अपने अहंकारवश किसी जीव की हत्या करना पूर्णतः अनुचित् है परन्तु किसी अपराधी की हत्या करना भी धर्म का ही स्वरुप है.
इस सृष्टि मे अनेकों परम्पराओं मे परिवर्तन होना अनिवार्य है बहुत सी परम्परायें मनुष्यों तथा अन्य जीवों के लिए विष बन गयी जिस प्रकार किसी सड़े हुयें फल को ग्रहण किया ही नही जा सकता है अपितु वही उसके विपरित उसके बीज को पृथ्वी मे दबा दिया जाता है जिसके कुछ समय उपरान्त उससे एक नवीन वृक्ष की उत्पति होती है और जब उस वृक्ष पर लगने वाले फल मधुर हो जाते है तभी उनका सेवन किया जाता है ठीक उसी प्रकार परम्परायें मनुष्य व अन्य जीवों को व्यवस्थित करने व उनके निर्माण से सहायक सिद्ध होती है और जब वो परम्परायें विष का स्वरुप धारण कर ले तो उनमे परिवर्तन व नवीन पर का उद्भव(निर्माण) अत्यन्त अनिवार्य हो जाता है.
किसी भी निर्दोष या निरीहं जीव के जीवन के साथ खेलने का अधिक इस प्रकृति ने किसी को भी नही दिया चाहे वो व्यक्ति स्वंय को धर्म का ही कोई ठेकेदार क्यों ना समझता हो. सभी को स्वतन्त्रं रुप से जीवन व्यतीत करने का अधिकार इस प्रकृति ने प्रदान किया है किसी के माता-पिता भी किसी अपनी महत्वकांक्षाओं के कारण बन्धन मे नही बाँध सकते उनका ऐसा करना भी अधर्म का ही स्वरुप माना जायेगा क्योंकि धर्म किसी भी प्रकार का बन्धन निर्मित ही नही करता अपितु वही उसके विपरित मुक्त करने का कार्य करता है.
कुछ मनुष्य यह भी कहते है की वह इन जीवों का भक्षण करके इस प्रकृति को संतुलित करने का कार्य करते है उन मनुष्यों से मै मात्र इतना कहना चाहता हूँ की वो ऐसे जीवों को अनावश्यक संरक्षणं ही ना प्रदान करें जिससे उनकी संख्या मे अत्याधिक मात्रा मे वृद्धि ही नही होगी. यह प्रकृति स्वंय को संतुलित करने के लिए पूर्णतः सक्षम है और मनुष्यो को उसमे अनावश्यक हस्ताक्षेप करने की आवश्यकता ही नही. इस सृष्टि का कोई भी मनुष्य ऐसे अशोभनीय कारण व्यक्तं करके अपने द्वारा किये गये अपराधों से मुक्त नही हो सकता क्योंकि सत्यं को छिपाना सम्भव ही नही.
इस सृष्टि मे तीन ही ऐसे कारक है जिन्हे सदा के लिए छिपाना पूर्णतः असम्भव है प्रथम सुर्यदेव का प्रकाश पृथिवी तक कुछ ही समय के लिए बादलों द्वारा अवरुद्ध किया जा सकता है ठीक उसी प्रकार द्वितीय चन्द्रदेव का प्रकाश अत्यन्त न्यून समय के लिए ही बादल अवरुद्ध कर सकते है किन्तु सदा के लिए बादलों द्वारा सुर्यदेव व चन्द्रदेव का प्रकाश अवरुद्ध किया ही नही जा सकता है ठीक उसी प्रकार तृतीय कारक अर्थात सत्य को सदा के लिए इस सृष्टि की कोई भी शक्ति नही छिपा सकती. सत्य के मार्ग मे बाधाएँ अवश्य आ सकती है परन्तु सदा के लिए उसे रोका नही जा सकता.
कार्यं कुरुवें नमन्यः रक्षायः करोति भिन्नंः (धनुर्वेद)
अर्थात किसी भी कार्य को करने से पूर्वं यह सुनिश्चित् करना चहिए की उससे किसी को भी किसी भी प्रकार की क्षति ना पहुँचे व वह कार्य सदा धर्म के पक्ष मे हो.
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् | उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् || ॥ (महोपनिषद्, अध्याय ४, श्लोक ७१)
अर्थात यह अपना है और यह उसका है ऐसी विचारधारा निम्न कोटी के सोच रखने वालों की होती है जबकी वही उसके विपरित करुणामयी मनुष्यों के लिए तो यह सम्पूर्ण पृथिवीं ही उनका परिवार है.
“इस सृष्टि की नियति व परब्रह्म की योजनाओ मे जो हस्ताक्षेप करते है वो या तो मूर्ख होते है या फिर उन्हे ज्ञान का अहंकार होता है”
मै आशा करता हूँ की आप सभी इस विषय मे आत्मविश्लेषण अवश्य करेगें और इसके उपरान्त वही निर्णय लेगें जो निर्णय स्वंय आपका होगा ना की किसी परम्परा या विचारधारा का.
स्वंय विचार कीजियेगा आपकी आत्मा जो अन्नंत ज्ञान का स्त्रोत् है वह आपको उचित उत्तर अवश्य प्रदान करेगी.
इस सृष्टि का सनातनः सत्यं यही है की अहिंसा ही परम धर्म है क्योंकि जब इस सृष्टि का प्रत्येक कण परब्रह्म का ही अंश है जिस प्रकार सुर्यदेव का अंश उनकी प्रकाश की किरणें होती है जो सुर्य की उपस्थिति की अनुभूति सदैव हमें कराती रहती है!
“सर्व खलु इदं ब्रह्म”
अर्थात इस सृष्टि का प्रत्येक सुक्ष्म से भी सुक्ष्मतम कण व यह समग्र ब्रह्माण्ड परमात्मा का ही स्वरुप है
अतः इस मे ईश्वरः के अतिरिक्त और कुछ भी नही तथा इस सृष्टि के किसी भी जीव मे कोई भेद नही सभी समान है.
जब इस सृष्टि का प्रत्येक जीव ईश्वरः का ही स्वरुप है तो किसी भी जीव मे किसी भी प्रकार का भेद यदी किया जा सकता है तो वह उसके ज्ञान, कर्म व विचारों के आधार पर ना की जाति, कुल या परम्परा व किसी अन्य जीव के आधार पर.
श्रीमद् भगवद्गीता के अनुसार
किसी भी जीव का निर्माण उसके विचारों के आधार पर होता है.
नारायणं के दशावतार के नवम् अवतार गौतम बुद्ध के अनुसार
हम जैसा सोचते है वैसा बन जाते है.
अर्थात इस सृष्टि का कोई भी जीव अपने मन, मष्तिक के द्वारा जिस प्रकार के विचारों का विश्लेषण करता है उसका निर्माण उसी के अनुरुप होता है.
जब इस सृष्टि का प्रत्येक जीव ईश्वरः का ही अन्नंत स्वरुप है तो हम किसी जीव के साथ अनावश्यक हिंसा करना वो मात्र और मात्र अपने परम्पराओं व स्वाद् के कारण किसी निर्दोष व निरीहं(निर्बल) जीव की हत्या करना क्या उचित कृत्य है.
श्रीमद् भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय के 59 वें श्लोकानुसार
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते॥
अर्थात स्वाद से मुक्त होने के लिए जो मनुष्य भोजन का त्याग कर देते है उनका शरीर भोजन द्वारा प्राप्त होने वाली ऊर्जा के आभाव मे निर्बल हो जाता है इस कारणवश हमें किसी भी परिस्थिति या ईश्वरः को प्रसन्नं करने के लिए भोजन का त्याग कदापि नही करना चाहिए अपितु वही उसके विपरित हमें स्वाद की लालसा का त्याग करना चाहिए.
अब प्रश्न यह उठता है की…
ईश्वरः का ही एक स्वरुप उसी ईश्वरः को प्रसन्नं करने के लिए भोजन का त्याग करें तो क्या ईश्वरः उसके इस कृत्य से प्रसन्नं होगें भी या नही…?
स्वंय विचार कीजियेगा आपकी आत्मा आपका मार्गदर्शन अवश्य करेंगी.
श्रीमद् भगवद्गीता के सोलहवे अध्याय के द्वितीय व तृतीय श्लोकानुसार…
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्॥
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहोनातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत॥
अर्थात हे भरतवंशी अहिंसा, सत्यं, क्रोध न करना शान्ति व शरीर, मन व मष्तिक की शुद्धता जीवों के प्रति दया भाव, मन, वचन व कर्मो से किसी को क्षति ना पहुँचाना. अपनी समस्त इन्द्रियों को अपने वश मे रखना किसी भी कार्य के प्रति पूर्णतः समर्पित होना. तेज, क्षमा, धैर्यं व किसी से भी शत्रुता न रखना तथा सम्मान का मोह ना होना व अपमान का भय ना होना ये सभी लक्षणं देवतुल्य मनुष्यों मे विद्यमान होते है.
इस श्लोक का सम्पूर्ण सार यह है की कोई भी मनुष्य जाति, कुल व परम्परा के आधार पर निम्न कोटी का व उच्च कोटी का कहा ही नही जा सकता है अपितु उसे उसके कर्मो व विचारों के आधार पर निम्न कोटी का व उच्च कोटी का कहा जाता है. पूर्वंकाल मे जिन जीवों को दैत्य, दानव व राक्षस कहा जाता था वो भी उनकी प्रवृत्ति, कर्मो तथा दृष्टिकोण के कारण राक्षस कहा जाता था ना की इस वसुधा(पृथिवीं) पर उपस्थित थे.
“तद् पुरुषेणहविष्यः यज्ञ देवाः तनबद्धः अस्तिनों तस्मादों जीवोंः
यद् विहव्वनें जीवों:”
अर्थात यज्ञ मे आहुति अवश्य दी जा सकती है जिसमे किसी भी जीव के मांस की भी आहुति अवश्य दी जा सकती है परन्तु वह निर्दोष या निरीहं(दुर्बल) जीव की आहुति नही दी जा सकती अपितु वही इसके विपरीत किसी अपराधी व अधर्मी जीव की बलि अवश्य दी जा सकती है.
कुछ लोग यह भी कहते है की यज्ञ किये जाने पर जो बलि दी जाती है वह जीव जिसकी बलि दी जाती है वह स्वंय बलि के लिए तैयार हो जाता है अर्थात स्वंय की बलि देने की अनुमति प्रदान करता है. आप स्वंय विचार कीजियेगा की यदी किसी भी छोटे शिशु पर प्रहार किया जाता है तो वह भी स्वंय के बचाव के लिए तत्पर हो जाता है.
अब प्रश्न यह उठता है की कोई ऐसा जीव जो किसी शिशु की आयु से कही अधिक बड़ा होता है जिसकी बलि दी जाती है वह अपने बचाव का प्रयत्न भला क्यों नही करेगा.
स्वंय विचार कीजियेगा आप सभी..?
प्रकृति द्वारा प्रदत्त ज्ञानानुसार व हमारे शास्त्रों के अनुसार
इस समस्त पृथिवी पर दो ही ऐसे मनुष्य इस वसुधा पर होते है जो मृत्यु से भयभीत बिल्कुल भी नही होते प्रथम कोई ज्ञानी मनुष्य व द्वितीय सन्यासी. इनके अतिरिक्त शेष अन्य सभी जीव मृत्यु से भयभीत अवश्य होते है. वेदों मे कहा गया है की सहस्त्रों अश्वमेध यज्ञों से अधिक पुण्य किसी निर्दोष व निरीहं जीव के प्राणों की रक्षा करने से प्राप्त होता है. ईश्वर की आराधना करने मे परम्पराओं और यज्ञों का पुण्य तभी साधक को प्राप्त होता है जब साधना करने वाला व्यक्ति का त्याग प्रदर्शित करना चाहिए ना की किसी अन्य निर्दोष जीव का.
अब प्रश्न यह उठता है की
किसी निर्दोष जीव की बलि देने मे किसी साधक की महानता भला कैसे निर्भर हो सकती है किसी की महानता का माध्यम एक निर्दोष जीव कैसे हो सकता है
जब इस सृष्टि का प्रत्येक जीव ईश्वरः का ही अंश है इस कारण अहिंसा ही परम धर्म है और यदी हम किसी भी जीव को किसी भी प्रकार की क्षति पहुँचाने का प्रयत्न भी करेगें तो हमारे द्वारा प्रहार किया जाने वाला प्रत्येक प्रहार प्रहार हम पर ही होगा जैसे कोई मनुष्य मनुष्य किसी पौधे की पत्तियों या पुष्पों और क्षीरं अर्थात दुग्ध ईश्वरः को अर्पित करता है जिससे वह किसी पौधे या वृक्ष की पत्तियाँ व पुष्पं तोड़कर उस पौधे को पीड़ा पहुँचाने का कार्य करता है जबकी उसके द्वारा तोड़ा गया वह पुष्प अनेकों मधुमक्खियों व नर मच्छरों का भोजन नष्ट करता है तथा वह जो क्षीर ईश्वरः को अर्पित करता है वह क्षीरं नलियों मे बहकर नष्ट हो जाता है उस क्षीरं का प्रयोग अर्पण करने वाला किसी योग्य व्यक्ति को दान कर सकता है अथवा अपनी सन्तानों को उस क्षीर का पान करा सकता है क्योंकि वेदों मे तो किसी शिशु को ईश्वरः का स्वरुप कहा गया है और उस साधक को अपनी आराधना का फल निसंदेह प्राप्त होगा जबकी इन पदार्थों और वनस्पत्तियों को नष्ट करके उसे मात्र इस प्रकृति का अपराधी कहा जायेगा शेष अन्य कुछ भी नही.
नारायणः के नवम् अवतार गौतम बुद्ध के अनुसार
अप्पों दीपों भवः
अर्थात अपना दीपक स्वंय बनों अर्थात किसी के द्वारा कही गयी, सुनी-सुनायी बातों, शास्त्रों, उपनिषदों, पुराणों व वेदों मे लिखी गयी कोई भी बात या मेरे द्वारा कहे गये किसी भी वचन व नियमों का पालन तभी करना जब वो तुम्हारी मनस्थति पर खरे उतरे व उनका पालन करने के लिए तुम्हारी आत्मा तुम्हे अनुमति प्रदान करें अन्यथा कदापि नही.
वै मूढ़ा नांन पश्यन्ति: पश्यन्ति ज्ञान चक्षुष:
अर्थात वे जीव मूर्ख होते है जो सामान्य नेत्रों से अपनी मनस्थति के अनुरुप कुछ भी देखकर मात्र और मात्र उसे ही सत्य मान लेते है जबकी सत्य प्रत्यक्ष नही अपितु परोक्ष होता है सत्य को सामान्य दृष्टि से देखा ही नही जा सकता अपितु उसे देखने के लिए ज्ञान के नेत्रो की आवश्यकता होती है न की सामान्य नेत्रो की.
मै आप सभी से यह कदापि नही कह रहा हूँ की किसी जीव का वध करना पूर्णतः अनुचित् है मै मात्र इतना कह रहा हूँ की किसी निर्दोष व निरीहं जीव की हत्या करना पूर्णतः अनुचित् व अत्यन्त अशोभनीय कृत्य है और ऐसा कृत्य जो करेगा किसी परम्परा या यज्ञ के कारण उसे निसंदेह भविष्य मे एक दैत्य की संज्ञा दी जायेगी.
किसी निर्दोष व निर्बल की हत्या करने से किसी का भी पौरुषं सिद्ध नही हो सकता अपितु वही ऐसे जीवों को संरक्षणं प्रदान करने से किसी का पौरुषं अवश्य सिद्ध हो सकता है. वेदों मे यह कहा गया है की जो निर्बलों की सुरक्षा करें उन्हे संरक्षणं प्रदान करे उसे क्षत्रिय कहा जाता है.
धर्मस्थापना के लिए किसी भी अपराधी जीव की हत्या करना भी धर्म का ही स्वरुप है क्योंकि ऐसा करने से वह जीव नवीन शरीर को धारण करेगा और उस शरीर मे उसके उद्धार की सम्भावनाएं और अधिक होगीं.
श्रीमद् भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय के 22 वे श्लोकानुसार…
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥
जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को धारण करता है उसी प्रकार आत्मा पुराने शरीर का त्याग करके नवीन शरीर को धारण करती है.
अर्थात शरीर का त्याग करने के उपरान्त भी किसी जीव की मृत्यु नही होती है.
श्रीमद् भगवद्गीता के अध्याय द्वितीय के 23 व 24 वे श्लोकानुसार…
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥
आत्मा को तो शस्त्रों के पृथक किया जा सकता है ना ही उसे अग्नि जला सकती है ना ही उसे जल भिगों सकती है और ना ही पवन उसे सुखा सकती है.
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥
आत्मा अखण्डित व अघुलनशील है और न ही इसे जलाया जा सकता है ना ही सुखाया जा सकता है यह सनातन, सर्वव्यापी, अविकारी, स्थिर व सदा एक सा रहने वाला है.
श्रीमद् भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय के 26वे व 27वे श्लोकानुसार…
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि॥
अर्थात यदी तुम यह सोचते हो की आत्मा सदैव जन्म लेता है तथा सदैव उसकी मृत्यु होती है तो हे महाबाहु तुम्हारे पास व्यर्थ मे शोक करने का कोई कारण ही नही.
जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि॥
जो जन्मा है अवश्य उसकी मृत्यु होगी और जिसकी मृत्यु होती है उसका पुनः जन्म लेना भी निश्चित् है इस कारण तुम्हे अपने दायित्व का निर्वहन करने के लिए शोक कदापि नही करना चाहिए.
अर्थात जो जन्मा है उसकी मृत्यु भी निश्चित् है और जिसकी मृत्यु होती है उसका जन्म लेना भी निश्चित् है और तब तक ऐसा ही होता रहेगा जब की वह सम्पूर्ण रुप से ज्ञान अर्जित करके स्वंय को ईश्वरः के स्वरुप मे अर्थात आत्मा के स्वरुप मे ना जान ले यही इस सृष्टि का सनातनः सत्यं है जिसे परिवर्तित किया ही नही जा सकता.
अनावश्यक व अपने अहंकारवश किसी जीव की हत्या करना पूर्णतः अनुचित् है परन्तु किसी अपराधी की हत्या करना भी धर्म का ही स्वरुप है.
इस सृष्टि मे अनेकों परम्पराओं मे परिवर्तन होना अनिवार्य है बहुत सी परम्परायें मनुष्यों तथा अन्य जीवों के लिए विष बन गयी जिस प्रकार किसी सड़े हुयें फल को ग्रहण किया ही नही जा सकता है अपितु वही उसके विपरित उसके बीज को पृथ्वी मे दबा दिया जाता है जिसके कुछ समय उपरान्त उससे एक नवीन वृक्ष की उत्पति होती है और जब उस वृक्ष पर लगने वाले फल मधुर हो जाते है तभी उनका सेवन किया जाता है ठीक उसी प्रकार परम्परायें मनुष्य व अन्य जीवों को व्यवस्थित करने व उनके निर्माण से सहायक सिद्ध होती है और जब वो परम्परायें विष का स्वरुप धारण कर ले तो उनमे परिवर्तन व नवीन पर का उद्भव(निर्माण) अत्यन्त अनिवार्य हो जाता है.
किसी भी निर्दोष या निरीहं जीव के जीवन के साथ खेलने का अधिक इस प्रकृति ने किसी को भी नही दिया चाहे वो व्यक्ति स्वंय को धर्म का ही कोई ठेकेदार क्यों ना समझता हो. सभी को स्वतन्त्रं रुप से जीवन व्यतीत करने का अधिकार इस प्रकृति ने प्रदान किया है किसी के माता-पिता भी किसी अपनी महत्वकांक्षाओं के कारण बन्धन मे नही बाँध सकते उनका ऐसा करना भी अधर्म का ही स्वरुप माना जायेगा क्योंकि धर्म किसी भी प्रकार का बन्धन निर्मित ही नही करता अपितु वही उसके विपरित मुक्त करने का कार्य करता है.
कुछ मनुष्य यह भी कहते है की वह इन जीवों का भक्षण करके इस प्रकृति को संतुलित करने का कार्य करते है उन मनुष्यों से मै मात्र इतना कहना चाहता हूँ की वो ऐसे जीवों को अनावश्यक संरक्षणं ही ना प्रदान करें जिससे उनकी संख्या मे अत्याधिक मात्रा मे वृद्धि ही नही होगी. यह प्रकृति स्वंय को संतुलित करने के लिए पूर्णतः सक्षम है और मनुष्यो को उसमे अनावश्यक हस्ताक्षेप करने की आवश्यकता ही नही. इस सृष्टि का कोई भी मनुष्य ऐसे अशोभनीय कारण व्यक्तं करके अपने द्वारा किये गये अपराधों से मुक्त नही हो सकता क्योंकि सत्यं को छिपाना सम्भव ही नही.
इस सृष्टि मे तीन ही ऐसे कारक है जिन्हे सदा के लिए छिपाना पूर्णतः असम्भव है प्रथम सुर्यदेव का प्रकाश पृथिवी तक कुछ ही समय के लिए बादलों द्वारा अवरुद्ध किया जा सकता है ठीक उसी प्रकार द्वितीय चन्द्रदेव का प्रकाश अत्यन्त न्यून समय के लिए ही बादल अवरुद्ध कर सकते है किन्तु सदा के लिए बादलों द्वारा सुर्यदेव व चन्द्रदेव का प्रकाश अवरुद्ध किया ही नही जा सकता है ठीक उसी प्रकार तृतीय कारक अर्थात सत्य को सदा के लिए इस सृष्टि की कोई भी शक्ति नही छिपा सकती. सत्य के मार्ग मे बाधाएँ अवश्य आ सकती है परन्तु सदा के लिए उसे रोका नही जा सकता.
कार्यं कुरुवें नमन्यः रक्षायः करोति भिन्नंः (धनुर्वेद)
अर्थात किसी भी कार्य को करने से पूर्वं यह सुनिश्चित् करना चहिए की उससे किसी को भी किसी भी प्रकार की क्षति ना पहुँचे व वह कार्य सदा धर्म के पक्ष मे हो.
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् | उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् || ॥ (महोपनिषद्, अध्याय ४, श्लोक ७१)
अर्थात यह अपना है और यह उसका है ऐसी विचारधारा निम्न कोटी के सोच रखने वालों की होती है जबकी वही उसके विपरित करुणामयी मनुष्यों के लिए तो यह सम्पूर्ण पृथिवीं ही उनका परिवार है.
“इस सृष्टि की नियति व परब्रह्म की योजनाओ मे जो हस्ताक्षेप करते है वो या तो मूर्ख होते है या फिर उन्हे ज्ञान का अहंकार होता है”
मै आशा करता हूँ की आप सभी इस विषय मे आत्मविश्लेषण अवश्य करेगें और इसके उपरान्त वही निर्णय लेगें जो निर्णय स्वंय आपका होगा ना की किसी परम्परा या विचारधारा का.
स्वंय विचार कीजियेगा आपकी आत्मा जो अन्नंत ज्ञान का स्त्रोत् है वह आपको उचित उत्तर अवश्य प्रदान करेगी.
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