Menu
blogid : 27033 postid : 21

धर्म

ॐ सनातनः
ॐ सनातनः
  • 7 Posts
  • 0 Comment

आजकल लोग जाति, कुल या परम्परा(हिन्दु, मुस्लिम, सिक्ख और इसाई) को धर्म मान लेते है बिना आत्मविश्लेषण किये.

इस कारणवश मै स्वंय आप सभी से यह प्रश्न करता हूँ की क्या बिना विचार किये कुछ भी स्वीकार कर लेना क्या उचित है…?

क्या धर्म पक्षपात या भेदभाव निर्मित करने का निमित्त मात्र है या फिर कुछ अन्य…?
जब हम सभी इस तथ्य को जानते है की इस सृष्टि का प्रत्येक कण ईश्वरः का ही स्वरुप है तब स्वंय से स्वंय के साथ भेदभाव या पक्षपात क्यों…?
क्या ऐसा करना उचित है और ऐसा करने से हम सभी कोई लाभ होगा मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है की यह सब हमारी सबसे बड़ी मूर्खता ही है!

श्रीमद् भगवद्गीता के चतुर्थं अध्याय के 24 वे श्लोक के अनुसार

ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्रौ ब्रह्मणा हुतम्‌।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥

जिस यज्ञ में अर्पण अर्थात स्रुवा आदि भी ब्रह्म है और हवन किए जाने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है तथा ब्रह्मरूप कर्ता द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति देना रूप क्रिया भी ब्रह्म है- उस ब्रह्मकर्म में स्थित रहने वाले योगी द्वारा प्राप्त किए जाने योग्य फल भी ब्रह्म ही हैं.

यहाँ नारायणं के अष्टम अवतार भगवान् श्री कृष्ण ने मूल रुप से इस श्लोक मे यह कहा है की सबकुछ परब्रह्म का ही तो स्वरुप है अर्थात सृष्टि का सूक्ष्म से सूक्ष्मतम् कण भी मै और यह समग्र(समस्त) ब्रह्मण्डं भी मै ही हूँ.

“अद्वैत वेदान्त के अनुसार ‘ब्रह्म सत्यम जगत् मिथ्या,जिवो ब्रम्हैव ना परः”

अर्थात इस सृष्टि मे ईश्वर के अतिरिक्त कुछ भी नही मात्र मन और मष्तिक के अहंकार रुपी विचारों से ऊपर उठने की आवश्यकता है अर्थात अपना दृष्टिकोण परिवर्तित करने की.

जब इस सृष्टि सबकुछ ब्रह्म ही है तो हम सभी स्वंय ही स्वंय के साथ पक्षपात व भेदभाव रुपी अनैतिक कार्य ही तो कर रहे है और यह मूर्खता ही तो है शेष और कुछ भी नही.

मै यहाँ किसी की आलोचना नही कर रहा ना ही किसी पर किसी भी प्रकार का दबाव डालने का प्रयास कर रहा हूँ मुझे कोई अधिकार नही आप सभी की आस्था के खेलने का. मै तो बस आप सभी का मार्ग दर्शन कर रहा हूँ इस विश्वास के साथ आप सभी सत्य के मार्ग पर प्रवास अवश्य करेगें.

इस्लाम के अनुसार मुहम्मद साहब का जन्म 570 ई० के आसपास हुआ था तथा मुहम्मद साहब ने 613 ई० के आसपास उपदेश देना आरंभ किया था.
वही यीशु का जन्म इसाईओं के अनुसार 4 ई० पूर्वं हुआ था
और वही गुरु नानक देव का जन्म 1469 ई० के आसपास हुआ था.
जब सनातन धर्म से इस प्रकार लोग परम्पराओं मे पृथक होने लगे तब कुछ सनातन धर्म को मानने वालों ने हिन्दु परम्परा का निर्माण किया.
अब प्रश्न यह है की अनादि काल अर्थात इस सृष्टि के आरम्भ से चले आ रहे धर्म का त्याग करके लोग पृथक हो गये क्या यह उचित कार्य है.
वृक्ष अपनी पत्तियों का त्याग अवश्य करता है परन्तु अपनी जड़ों का त्याग नही करता क्योंकि वह भी इस सत्य से बिल्कुल भी अनभिज्ञ नही है की ऐसा करने से उसका आस्तित्व ही मिट जायेगा फिर हम मनुष्य होकर ऐसी मूर्खता क्यों कर रहे है जबकी मनुष्य को इस सृष्टि का सबसे बुद्धिमान् प्राणि कहा जाता है क्या इतना बुद्धिमान होना हमारी मूर्खता नही है तो और क्या है आप सब ही उत्तर दीजियेगा.

अब मै धर्म का वर्णन करता हूँ की वास्तव मे धर्म है क्या…

“धारयेति इति धर्म”

अर्थात जो धारण करने करने योग्य हो जो सर्वोत्तम हो वही धर्म है आप ही विचार कीजियेगा की क्या कोई ज्ञानी मनुष्य भला मैले वस्त्र धारण करेगा इसमे मेरा तो यही उत्तर होगा की कदापि नही. धर्म का स्वरुप भी क्षीर अर्थात दुग्ध के समान पवित्रं है जिसमे किसी भी प्रकार की अशुद्धि नही जो किसी अमृतरुपी द्रव्य से बिल्कुल भी न्यून नही जो पृथक करने का कार्य बिल्कुल भी नही करता अपितु इस सृष्टि के सभी जीवों को एकता के सूत्र मे बाँधने का कार्य करता है जो पृथक करने का कार्य करें वह निसंदेह अधर्म ही होगा और भी ऐसी सभी परम्पराओं को मै स्वंय अधर्म घोषित करता हूँ और ऐसे मनुष्यों को भी जिन्होने इस समाज को अधंकार रुपी अज्ञान मे रखा यदी वो सभी वास्तव मे महापुरुष या ईश्वरः होते तो सभी एकता के सूत्र मे बाँधने का कार्यं करते ना की पृथक करने का जिस प्रकार अमेरिका के राष्टपति अब्राहम लिंकन ने उत्तर तथा दक्षिणी अमेरिका को एकता के सूत्र मे बाँधने का कार्य किया था तथा शरीर के आधार पर होने वाले भेदभाव को समाप्त किया था इस कारणवश उनका स्थान मेरी दृष्टि मे एक महापुरुष का है.

नारायणं के सप्तम तथा अष्टम अवतार भगवान श्री राम व भगवान श्री कृष्ण ने भी ऐसा अनैतिक कार्य नही किया अपितु उन्होनें भी सारे समाज को एक ही करने का कार्य किया था जिसमे उन्होने एक वैध के रुप मे उपचार करने का ही कार्य किया था जिसमे पुराने नियमों व परम्पराओं मे सुधार किया जाना तथा नवीन परम्पराओं का मर्यादाओं का उद्भव शामिल था परन्तु उन्होने इस समाज के लोगों को पृथक करने का कार्य बिल्कुल भी नही किया जैसा की अन्य लोगो ने किया था जिनका वर्णन मे पूर्व मे ही कर चुका हूँ.

“यतः कृष्णस्ततो धर्मो यतो धर्मस्ततो जय:”

अर्थात जहाँ श्री कृष्ण विद्यमान है वही धर्म है तथा जिस पक्ष मे धर्म है उस पक्ष की विजय तो पूर्वं ही निश्चित् है.

जयसंहिता(महाभारत) मे इस श्लोक का वर्णन कुल एकादश बार किया गया है परन्तु इस श्लोक को नवदुर्गा के अन्तिम स्वरुप देवी सिद्धिदात्री ने अर्जुनं के युद्धं के पूर्वं शक्ति आराधना करने पर व शिवजी ने पाशुपतास्त्र् के ज्ञान के लिए शिवजी की आराधना करने पर अर्जुनं से कहा था.

मै मात्र अब आप सभी से इतना कहूँगा की समय का प्रवाह अत्यन्त तीव्र है समय मे परिवर्तन होना सुनिश्चित् है इसलिए आप सब भी हृदयं तथा आत्मा का प्रयोग आत्मविश्लेषण के लिए करें तथा धर्म के मार्ग पर प्रवास करें सृष्टि की गति सदा परब्रह्म ओर हो इसके लिए समय तो सबका नाश करने के लिए सदा से तत्पर है. सभी जीवों को जाना तो परब्रह्म की ही ओर है इतना अवश्य है की इस कार्य मे समय अवश्य लग सकता है परन्तु ऐसा होना तो अन्नंतकाल से निश्चित् है तो भला निश्चित् को कौन टाल सकता है मात्र क्षणिक अवरोध उत्पन्नं करने की मूर्खता अवश्य कर सकता है.
जिस प्रकार नदी के प्रवाह मे कुछ ऐसे पत्थर प्रवाहित होते है जो नदी की धारा के साथ ही प्रवास करना सहर्षं स्वीकार कर लेते है तो वही उसके विपरित कुछ ऐसे पत्थर भी होते है जो नदी की धारा को को रोकने का प्रयास करते है इस सत्य जानने के पश्चात् भी की कभी ना कभी उन्हे नदी की धारा के साथ प्रवास तो करना ही है.
आप सब भी विचार अवश्य कीजियेगा की आप सब नदी मे प्रवाहित होने वाले कौन से पत्थर बनना पसंद करेगें.

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh