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अरे तू तो बेटी है

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घर में एक पुत्री का जन्म, एक बोझ, पराये घर की अमानत…. यही है सोच आज के सामान्य जन की। आश्चर्यजनक तथ्य तो यह है कि इस सोच को सबसे पहला और सबसे अधिक प्रश्रय नारी ही देती है।

एक सर्वेक्षण के अनुसार जन्म के समय पैदा हुये बच्चों में लड़के और लड़कियों का अनुपात करीब-करीब बराबर होता है। गर्भावस्था के सातवें महीने से जन्म के एक सप्ताह बाद तक के बच्चों में मृत्यु की दर बालिकाओं की अपेक्षा बालकों में अधिक होती है पर यही मृत्यु दर जन्म के बाद के पहले वर्ष व अगले पांच वर्षों में बालिकाओं में बालकों की अपेक्षा कहीं अधिक हो जाती है। स्त्री भ्रूणों  की अपेक्षा पुरुष  भ्रूणों  में गर्भपात की दर भी अधिक होती है। यदि आप भारत की जनसंख्या पर नजर डालें तो पता लगता है कि प्रति एक हजार पुरुषों  पर 935 महिलाएं हैं और उत्तर प्रदेश में तो इनकी संख्या मात्र 885 है। क्यों आया यह अन्तर इस प्रश्न का एक ही उत्तर है, हमारा पुत्री के प्रति पक्षपातपूर्ण व्यवहार।

क्या पुत्री परिवार पर सचमुच एक बोझ है ?

प्रश्न यह है कि पुत्री क्या परिवार पर सचमुच एक बोझ है ? गांव की एक लड़की प्रतिदिन 9 से 10 घण्टे काम करती है और इस प्रकार के दिन वर्ष में औसतन 315 होते हैं। यदि इसका मूल्य 100 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से भी लगायें तो उसके द्वारा किये गये इस कार्य का मूल्य औसतन यह 31,500 रूपये प्रतिवर्ष आता है। यह क्रम विवाह तक चलता है। इस प्रकार कार्य करने योग्य उम्र होने से विवाह होने तक एक बालिका औसतन 13 से 15 वर्षों तक कार्य करती है।  और इस पूरे कार्य का मूल्य होता हे करीब 4,72,500 रूपये। इतने रुपए में किसी भी मध्यमवर्गीय परिवार में पुत्री का विवाह आसानी से सम्पन्न किया जा सकता है। विचारणीय है कि बोझ कौन है?

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कहां से प्रारम्भ होता है यह भेद भाव?

पुत्री के प्रति यह भेद भाव उसके गर्भ में आने के पूर्व ही प्रारम्भ हो जाता है। एक मां देवी देवताओं से मन्नत मांगती है, मजारों पर नाक रगड़ती है पर किसके लिये? एक पुत्र के लिये पर क्या कभी किसी मां ने पुत्री के लिये मन्नत मांगी ? हमारे धर्म ग्रन्थों में भी राम के, कृष्ण के बचपन के मनोहारी दृश्य तो मिलते हैं पर क्यों नहीं मिलती सीता व राधा के बचपन के बारे में, एक भी पंक्ति ? क्या उनकी बाल लीलायें मनोहारी नहीं रही होंगी?

अब तक चोरी छिपे जारी प्रसव पूर्व लिंग निर्धारण क्या है….स्त्री के अस्तित्व को नकारने का एक षडयंत्र। लिंग निर्धारण के पश्चात गर्भपात कराये जाने वाले  शिशुओं में स्त्री भ्रूणों की संख्या पुरूश भ्रूणों की अपेक्षा कई गुना होती है।

यही हाल  शिक्षा का है। पुत्रियां या तो स्कूल भेजी ही नहीं जातीं और यदि भेजी भी जाती हैं तो उन्हें शिक्षा पूरी करने से काफी पहले ही स्कूल छोड़ने को बाध्य किया जाता है, कभी सुरक्षा के नाम पर, कभी मर्यादा के नाम पर, कभी अर्थाभाव के नाम पर और कभी विवाह के नाम पर। भारत में आज प्रति दो बालकों पर एक ही बालिका प्राथमिक शिक्षा पाती है और माध्यमिक शिक्षा तक यह अनुपात घटकर प्रति तीन बालक पर एक बालिका का रह जाता है।

स्त्री शिशु एवं स्वास्थ्य

विशेष  कर मध्यम व निम्न आय वर्ग में में देखा यह गया है कि बालिकाओं को चिकित्सा कम अवसरों पर ही उपलब्ध हो पाती हैं। अधिकांशत: का काम घरेलू नुस्खों से चला लिया जाता है।  कई बडे़ अस्पतालों के के बाहय रोग विभागों में आने वाले बच्चों की संख्या का अध्ययन करने पर पता चलता है कि चिकित्सकीय सहायता के लिये माता पिता के द्वारा लाये गये बच्चों में बालकों और बालिकाओं के बीच अनुपात 60:40 था। क्या बालिकायें कम बीमार होती हैं ? जी नहीं उनकी बीमारी पर ध्यान कम दिया जाता है जो दुर्भाग्य का सूचक है। लम्बे समय तक चलने वाले उपचार में बीच में ही इलाज बन्द हो जाने की की सम्भावनायें बालकों की अपेक्षा बालिकाओं में दो गुनी अधिक होती हैं।

यदि हम भारत के विभिन्न आयु वर्ग की मृत्यु दर पर दृष्टिपात करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि हर आयु वर्ग में चाहे वे शहरी हो या ग्रामीण, बालिकाओं में मृत्यु दर बालकों की अपेक्षा कहीं अधिक होती है जब कि यह माना जाता है कि रोग से लड़ने की प्रकृति प्रदत्त क्षमता स्त्री शिशु में पुरूष शिशु की अपेक्षा काफी अधिक होती है।

बालिकाओं के स्वास्थ्य के प्रति उदासीनता इस बात से स्पष्ट हो जाती है कि 3,113 बच्चों के एक सर्वेक्षण में यक्ष्मा या टी0 बी0 का टीकाकरण केवल 28 प्रतिशत में ही था।  कालीं खांसी, डिप्थीरिया व धनुर्वात या टेटेनेस का टीकाकरण केवल 31.8 प्रतिशत स्त्री शिशुओं में पाया गया जब कि पुरूष शिशुओं में ये 66 प्रतिशत में दिया गया था।

बालिकायें और पोषण

हाल में ही पिछड़े वर्ग की बस्तियों में रहने वाले 4,245 शिशुओं के स्वास्थ्य परीक्षण में पाया गया कि गम्भीर रूप से कुपो्षित बच्चों का प्रतिशत पुरूष शिशुओं के मुकाबले बालिकाओं में डेढ़ गुना था।

निम्न आयु वर्ग के बच्चों में रक्ताल्पता या एनीमिया व विटामिन हीनता जन्य रोगों के एक सर्वेक्षण में विटामिन ए, बी व सी की कमी बालकों में 13.9 प्रतिशत में पाई गयी जबकि बालिकाओं में यह 18.3 प्रतिशत में थी।  यह बालिकाओं को मिलने वाले पोषण की गुणवत्ता पर एक प्रश्नचिन्ह खड़ा करती है।

कहा जाता है बच्चे देश का भविष्य होते हैं पर एक बालिका तो इस भविष्य की भी मां होती है। उसकी की कोख से जन्म लेता है राष्ट्र का भविष्य….. उसी की गोद में खेलती है, राष्ट्र की प्रगति और वही है जो अपने रक्त से  सींचती है, देश की इस आशा को। यदि आप को भारत के भविष्य की चिन्ता है तो भारत की बालिकाओं पर ध्यान दीजिये, ये ही भारत का अच्छा भविष्य आपको उपहार में देंगी। इनकी उपेक्षा करके यह समाज मात्र एक बालिका की ही उपेक्षा नही करता अपितु एक पूरी पीढ़ी की उपेक्षा करता है।

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