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अखिलेश सरकार के चार साल

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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२०१२ के आम चुनावों में स्पष्ट बहुमत पाने के बाद जिस तरह से सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश यादव को आगे कर सीएम बनाने का निर्णय लिया था उसके बाद एक बार यह लगने लगा था कि सड़कों पर संघर्ष करके पार्टी को सत्ता तक पहुँचाने वाले अखिलेश एक बदली हुई सपा सरकार के मुखिया साबित होंगें पर सरकार के चार वर्ष पूरे होने पर यदि उनकी सरकार के काम काज का आंकलन किया जाये तो यह सरकार भी मुलायम सिंह सरकार से अलग नहीं दिखाई दी. बेशक अपनी नयी सोच के चलते अखिलेश ने लखनऊ को मेट्रो देने की तरफ कामयाब कदम बढ़ाये और आगरा से लखनऊ और लखनऊ से बलिया तक एक्सप्रेस वे जैसे बड़े प्रोजेक्ट्स पर भी ध्यान दिया और वे अपने निर्माण के अंतिम चरणों में पहुँचने वाले हैं जिससे निश्चित तौर पर आने वाले समय में यूपी में इनके माध्यम से औद्योगिक गतिविधयां बढ़ने ही वाली हैं. इस पूरी कवायद के साथ सरकार की तरफ से कई अन्य कल्याणकारी काम भी किये गए पर भ्रष्टाचार पर नियंत्रण न कर पाने के कारण उनका लाभ कुछ लोगों तक ही पहुँच पाया और सरकार की मंशा के अनुरूप धरातल पर परिवर्तन नज़र नहीं आया.
मुलायम सिंह ने खुद को सरकार से अलग रखने का निर्णय तो किया पर वे सपा के अन्य वरिष्ठ नेताओं को सरकार में शामिल होने से नहीं रोक पाये जिस कारण भी अखिलेश को अपने अनुसार काम करने की छूट भी नहीं मिल पायी. प्रदेश के विकास में महत्वपूर्ण साबित होने वाले मंत्रालय जिस तरह से सपा के वरिष्ठों के पास ही रह गए उससे यही लगता है कि मुलायम सिंह भी अखिलेश पर एक तरह का अंकुश रखना चाहते थे पर वह निर्णय अंकुश से अधिक अखिलेश के पांवों की बेड़ी ही साबित हुआ. सरकार चलाने के लिए जिस नयी सोच का समावेश होना चाहिए था उसके स्थान पर अखिलेश केवल पिता के सहयोगियों के कार्यों पर किंकर्तव्यविमूढ़ ही साबित हुए जिसका असर उनकी नए सिरे से बन सकने वाली छवि पर भी पड़ा. यदि गंभीरता से देखा जाये तो अखिलेश जिन मसलों पर वरिष्ठ नेताओं के चलते बोल पाने में अक्षम साबित हुए उन्हीं मुद्दों ने उनके लिए नकारात्मक छवि गढ़ने का काम भी खुले तौर पर किया. निश्चित तौर पर उनकी मंशा सही थी पर बंधनों के चलते वे सपा को आज के युग के अनुरूप ढली हुई पार्टी के रूप में प्रस्तुत करने में सफल नहीं हो सके.
सपा सरकार की बड़ी नाकामयाबियों में कानून व्यवस्था का मुद्दा सदैव ही सबसे ऊपर आता है और इस बार भी अखिलेश के नेतृत्व में सरकार पश्चिमी यूपी के दंगों की आहट नहीं जान पायी और दंगें भड़कने के बाद भी जिस तरह से हिंसा का लम्बा दौर चलता रहा वह सरकार की बड़ी विफलता भी थी. अनिर्णय का शिकार प्रशासन जिस तरह से इन दंगों को होते हुए देखते रहा वह अपने आप में बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण भी था क्योंकि इसका असर किस तरह से समाज के सभी वर्गों पर पड़ा यह २०१४ के चुनावों में स्पष्ट हो गया था जब सपा सरकार के साथ समाज का कोई वर्ग उस तरह खड़ा नहीं दिखाई दिया जैसा २०१२ के चुनावों में था तो सरकार को चेत जाना चाहिए था पर आज भी कानून व्यवस्था के लिए ही सपा सरकार सबसे अधिक बदनाम दिखाई दे रही है जिस छवि से अब अथक प्रयास करने के बाद भी उबर पाना आसान साबित नहीं होने वाला है. इस तरह की परिस्थिति में अखिलेश को सीमित अधिकारों के साथ सरकार चलाने की छूट देने से मुलायम सिंह ने उनके अपने अस्तित्व पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिया है क्योंकि भविष्य में होने वाले किसी भी चुनावों में सपा सरकार की कानून व्यवस्था से जुड़े मुद्दे पर अब अखिलेश और मुलायम अपने को बचा पाने की स्थिति में नहीं रह गए हैं.

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