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चुनाव सुधार में नैतिकता

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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देश में होने वाले चुनावों में नेताओं की भाषा और नैतिकता का स्तर जिस तरह से निरंतर रसातल की तरफ जा रहा है उसको देखते हुए अब चुनाव सुधारों में ही इस बात की आवश्यकता भी समझी जानी चाहिए कि नेताओं को दंड के भय से अनुचित बातें कहने और आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन करने से रोकने के बारे में भी उचित और कठोर संशोधन किये जाएँ. एक समय था जब बड़े नेताओं से लगाकर छोटे स्तर तक की राजनीति में सक्रिय लोग किसी भी परिस्थिति में नैतिकता की सीमाओं का सम्मान किया करते थे पर आज जिस तरह से हम आधुनिक हुए उसके साथ ही हम अपनी सभ्यता और शिष्टाचार के साथ संस्कारों को कहीं बहुत पीछे छोड़ चुके हैं. इसका समाज पर तो कुछ कम असर दिखाई देता है पर राजनेता हर स्तर पर निरंतर अपने निम्नतम स्तर तक पहुँचने में लगे हुए हैं. इस परिस्थिति से निपटने के लिए अब चुनाव आयोग के पास केवल प्राथमिकी दर्ज कराने से आगे बढ़कर तुरंत ही इस पर सुनवाई करके नेताओं को त्वरित रूप से प्रचार से वंचित कर दिया जाना चाहिए जिससे वे आने प्रचार को ध्यान में रखते हुए शालीनता को किसी भी स्तर पर छोड़ने से पहले कई बार सोचने को मजबूर हो जाएँ.
आज सोशल मीडिया चुनाव प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगा है पर उसके लिये स्पष्ट दिशा निर्देश नहीं होने के चलते वहां पर भी चुनावी लाभ के लिए विभिन्न दलों द्वारा विरोधी दलों पर हमले करने के लिए फ़र्ज़ी वेबसाइट्स चलायी जा रही हैं और जिनके माध्यम से समाज में विभाजन के माध्यम से वोट बटोरने के काम किया जाता रहता है. नियमों में कमी के चलते आज चुनाव आयोग केवल शिकायतों के सही पाए जाने पर प्राथमिकी दर्ज करने तक ही सीमित रह जाता है और नेता भी जानते हैं कि उनकी इस समाज को विभाजित करने वाली भाषा या व्यक्तिगत आरोपों से जो चुनावी लाभ मिलना है वह तो मिल ही जायेगा पर आयोग तुरंत उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ पायेगा. आज जब आयोग के पास सीमित अधिकार ही हैं तो उन्हें बढ़ाये जाने की आवश्यकता पर कोई क्यों विचार नहीं करता है ? किसी भी चुनावी क्षेत्र में किसी भी नेता द्वारा आचार संहिता का उल्लंघन करने के मामले को चुनाव आयोग के प्रेक्षक को शिकायत आने के स्थान पर स्वतः संज्ञान के माध्यम से देखना चाहिए और राज्य या केंद्रीय स्तर पर इस पर विचार करने के स्थान पर जिला जज की अदालत में उपलब्ध सबूतों के आधार पर विशेष चुनावी अदालत में एक सुनवाई में ही फैसला देने का प्रावधान किया जाना चाहिए और जिस नेता के विरुद्ध मामला दर्ज हो जाये उसे फैसला आने तक प्रचार से दूर कर दिया जाना चाहिए.
एक ज्वलंत प्रश्न यह भी है कि आज की परिस्थिति में चुनाव आयोग को क्या देश कि विधायिका इतनी अधिक शक्तियां देना भी चाहेगी क्योंकि अंत में यह उनके कुछ भी बकवास करने के असीमित अधिकार पर ही वार करने में प्रयुक्त किये जाने वाला हैं ? पर अब समय आ गया है कि सभी दलों को इस बारे में विचार करना ही होगा वर्ना एक दिन किसी जनहित याचिका की सुनवाई में कोर्ट की तरफ से ऐसा कोई आदेश आ जायेगा जिसमें ऐसे संशोधनों को करने के अतिरिक्त संसद और सरकार के पास विकल्प शेष ही नहीं बचेंगें. इसलिए इतने महत्वपूर्ण मुद्दे पर अनमने ढंग से संशोधन करने के स्थान पर एक चुनाव संशोधन आयोग बनाया जाए जिसमें केंद्र और राज्य चुनाव आयोग के पूर्व आयुक्तों के साथ सभी पक्षों की राय को व्यापक रूप से जानने का प्रयास किया जाये तथा इंटरनेट और पत्राचार के माध्यम से आम जनता को भी इस मामले में अपनी राय देने के लिए कहा जाये. इतना महवपूर्ण संधोधन केवल संसद के माध्यम से ही न किया जाए क्योंकि आम लोग इस बारे में क्या कमियां पाते हैं इस पर भी विचार अवश्य किया जाना चाहिए. चुनाव संशोधन में समग्रता की आवश्यकता है क्योंकि आज चुनाव देश की आवश्यकता से अधिक विकास और नीतियों से जुड़े हुए हो गए हैं कोई भी राजनैतिक दल अपने लाभ के लिए किसी भी स्तर पर मनमानी न कर सके इसे रोकने के बारे में अब सोचने का सही समय आ गया है.

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