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नेताओं का ह्रदय परिवर्तन या षड्यंत्र

***.......सीधी खरी बात.......***
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उत्तराखंड में जिस तरह से बागी कांग्रेसी विधायकों के बारे में कोर्ट का निर्णय आने तक रुकने से पहले खुद बागियों और भाजपा ने अपने सत्ता परिवर्तन के गठजोड़ को सबके सामने स्पष्ट हो जाने दिया उससे यही लगता है कि भले ही भाजपा ने इस पूरे प्रकरण को कांग्रेस का अंदरूनी मामला बताकर पल्ला झाड़ने की कोशिश की हो पर इस पूरे मसले में परदे के पीछे असल में सारा खेल उसकी तरफ से ही खेला जा रहा था. बागियों के भाजपा में शामिल हो जाने के बाद अब किसी को भी इस बात पर कोई संदेह नहीं रहा गया है कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने एक और राज्य में घटनाक्रम को समय से पूर्व अपने पक्ष में मोड़ने की कोशिश की जिसका खामियाजा उसको भुगतना भी पड़ा है और सम्भवतः भविष्य में इसकी आंच उसे अगले चुनावों में भी अच्छी तरह से महसूस हो. उत्तराखंड जैसा छोटा राज्य बनने और यूपी जैसे बड़े राज्य में प्रभाव की राजनीति कर चुके भाजपा और कांग्रेस के उन बड़े नेताओं के लिए आज यही सबसे बड़ी समस्या है कि हर नेता राज्य के सीएम के रूप में ही अपना भविष्य देखता है तथा उससे अलग होकर उसे कुछ भी सोचने की फुर्सत भी नहीं है.
यूपी जैसे राजनैतिक रूप से बेहद प्रभावी और महत्वपूर्ण राज्य की राजनीति करने के बाद उत्तराखंड में केवल मंत्री बनकर किसी भी बड़े नेता को संतोष नहीं होता है जिसका सीधा असर राज्य की राजनैतिक परिस्थितियों और स्थिरता पर भी पड़ता ही रहता है. आज भाजपा में गए इन नेताओं में से स्पष्ट रूप से दो लोग तो राज्य के सीएम के रूप में खुद ही अपने को प्रबल दावेदार के रूप में देखते हैं क्योंकि विजय बहुगुणा के नेतृत्व में जिस तरह से राज्य में सरकार चली उससे कांग्रेस को निश्चित तौर पर नुकसान हुआ था तथा २०१३ की जलप्रलय के समय बहुगुणा आगे बढ़कर राज्य के नेतृत्व करने में असफल ही साबित हुए थे जिसके बाद २०१४ में कांग्रेस ने उनके स्थान पर हरीश रावत को राज्य की कमान सौंप दी थी. २०१२ के चुनावों के बाद ही यदि कांग्रेस के सामने इस तरह से नेतृत्व का संकंट न होता तो हरीश रावत के अच्छा प्रत्याशी कोई और नहीं था पर सतपाल महाराज और हरीश रावत के बीच का रास्ता निकालने के लिए कांग्रेस ने खुद ही विजय बहुगुणा को आगे कर दिया था और वे किसी भी तरह से राज्य कांग्रेस के लिए अच्छे साबित नहीं हुए.
वैसे तो इस पर्वतीय राज्य में भी सत्ता का परिवर्तन लगातार होता रहता है फिर भी दोनों राष्ट्रीय दलों के नेताओं के पास अभी भी इस समस्या का कोई विकल्प शेष नहीं है क्योंकि दोनों ही दलों में सीएम के लिए लम्बी लाइन लगी हुई है. इस पूरे प्रकरण ने अब जहाँ जमीन से जुड़े हुए हरीश रावत को अपने पत्ते खुलकर खेलने का अवसर दे दिया है वहीं उनके खिलाफ अब किसी भी तरह की बगावत की सम्भावनाएं भी समाप्त हो गयी हैं छह महीने तक उन्हें विश्वास प्राप्त करने की आवाश्यकता नहीं है और उसके बाद सम्भवतः चुनावी मोड़ शुरू हो जाने के कारण कोई भी दल इस तरह के झमेले में नहीं उलझना चाहेगा. हरीश रावत ने इस पूरे प्रकरण में अपनी राजनैतिक कुशलता भी साबित कर दी है और अगले वर्ष होने वाले चुनावों में उनके लिए प्रत्याशी तय करने में कोई अधिक समस्या भी सामने नहीं आने वाली है क्योंकि अब कांगेस आलाकमान भी उनकी इस उपलब्धि के चलते उनकी अनदेखी करने की स्थिति में नहीं है. इस पूरे प्रकरण से एक बात तो स्पष्ट ही है कि किसी भी दल के नेताओं लिए अब दलीय निष्ठां का कोई महत्व नहीं रह गया है क्योंकि जब शीर्ष स्तर पर बैठे हुए लोग भी अपने ही दलों के खिलाफ षड्यंत्र करते हैं तो इससे भारतीय राजनीति के निम्न स्तर का ही पता चलता है.

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