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भारतीय विदेश नीति की एक बड़ी खूबी आज़ादी के बाद से ही यह रही है कि दुनिया भर में समय समय पर आने वाली विभिन्न समस्याओं से भी वह अपने अनुसार ठीक ढंग से निपट लिया करती है. ताज़ा मामले में ग़ाज़ा पट्टी पर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की आपातकालीन बैठक में भारत ने इसराइल के खिलाफ आये प्रस्ताव के पक्ष में मत देकर फिलिस्तीन के साथ अपनी एकजुटता प्रदर्शित कर दी है. इस प्रस्ताव के पक्ष में २९ और विरोध में केवल अमेरिका का वोट गया जबकि १७ देशों ने मतदान में भाग नहीं लिया. यहूदियों के साथ अरबों के इस संघर्ष में भारत ने सदैव शांति की वकालत की है और कई बार इसराइल के रुख का विरोध करते हुए डेविस कप जैसे महत्वपूर्ण आयोजन में भी इसराइल के साथ लम्बे समय तक खेलने से इंकार भी किया है. भारत में राजग की सरकार होने के कारण कई लोग भारत की नीति बदलने की बात कर रहे थे पर अब यह स्पष्ट हो चुका है कि भारत सरकार अपनी स्थापित विदेश नीति में फिलहाल कोई बदलाव नहीं कर रही है.
देश में नरसिम्हा राव की सरकार के समय भारत ने इसराइल से महत्वपूर्ण राजनयिक संबंधों को आगे बढ़ाने के बारे में सोचना शुरू किया था और तब से आज तक सामरिक और विज्ञानं के क्षेत्र में भारत और इसराइल बहुत करीब आ चुके हैं तथा दोनों देशों के बीच रक्षा सम्बन्ध भी निरंतर ही मज़बूत होते जा रहे हैं. भारत को भी आतंकियों से जुड़ी समस्या से देश के विभिन्न भागों में लगातार निपटना पड़ता है जिससे इसराइल के साथ उसके रक्षा समझौते बहुत महत्वपूर्ण हो जाते हैं. देश घरों की तरह नहीं चला करते हैं और उन्हें सही दिशा में पूरी गति से आगे बढ़ाने के लिए दीर्घकालिक नीतियों की आवश्यकता होती है. आज भारत के इसराइल के साथ चल रहे रक्षा और अन्य अनुसंधान सम्बन्धी सहयोग के चलते क्या भारत उसकी एकदम से अनदेखी कर सकता है ? किसी भी सही और व्यापक सोच वाले देश से तो कम से कम ऐसी आशा नहीं की जा सकती है. भारत का अरब देशों की राजनीति और व्यापार में भी बहुत बड़ा सहयोग है तो उसे उन संबंधों को भी देखना ही पड़ता है.
चीन और पाक सीधे तौर पर भारत के साथ अनावश्यक दुश्मनी बढ़ाने में लगे रहते हैं पर इसके साथ ही भारत और पाक में रोज़मर्रा कि चीज़ें मंहगी होने पर बहुत बार दोनों देश ही एक दूसरे को राहत पहुँचाने का काम किया करते हैं. चीन चाहे कितनी बार भी सीमा का उल्लंघन कर ले पर आज के समय में विश्व के सबसे बड़े उभरते हुए आर्थिक बाज़ार भारत की अनदेखी नहीं कर सकता है. समस्याओं को आज की तारीख में आर्थिक और सामाजिक मूल्यों की कसौटी पर कसा जाता है और भारत की तरफ से इन संबंधों को निभाने में कोई समस्या कभी भी नहीं आई है. भारतीय संसद भले ही इसराइल के खिलाफ कोई प्रस्ताव न लाए पर यूएन में भारतीय रुख की जानकारी पूरी दुनिया को हो ही गयी है. मध्यपूर्व की स्थिति को सुधारने के लिए अब हमास को मिस्र के प्रस्ताव पर विचार करना चाहिए क्योंकि बिना कोई बीच का रास्ता निकले बात सुधरने वाली नहीं है. इसराइल जैसे दुश्मन से लड़ने के लिए जितनी शक्ति चाहिए वह आज तक मिस्र, सीरिया आदि देश भी नहीं पा सके हैं इसीलिए वे इसराइल को नाराज़ कर इस संघर्ष में अपने दम पर कुछ भी नहीं करना चाहते हैं और यूएन के प्रस्तावों पर वोट करने तक ही खुद को सीमित किये हुए हैं.
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