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लखनऊ के एक स्कूल में सातवीं में पढ़ने वाली एक छात्रा ने जिस तरह से पहली कक्षा के मासूम बच्चे पर जानलेवा हमला कर उसे जान से मारने की कोशिश की वह हमारे समाज की वर्तमान व्यवस्था को झकझोरने के लिए काफी है क्योंकि भले ही पहली दृष्टि में हम सभी को यह एक असामान्य घटना लगे जिसमें सिर्फ एक दिन की छुट्टी हो जाने की आशा में कोई ११ साल की लड़की इस हद तक चली गयी हो पर गंभीरता से विचार करने पर यह पूरी तरह से सामाजिक, पारिवारिक उत्तरदायित्वों को सहेज पाने की हमारी विफलता ही दिखाई देती है. अब जिस तरह से पूरे मामले को घुमाने की कोशिशें हो रही हैं वे अपने आप में इसे भी कुछ दिनों में भूल जाने वाली घटना में बदल देंगीं और जब कभी कहीं से इस मामले की किशोर न्याय बोर्ड में सुनवाई होगी तब इस बारे में हम एक बार फिर अपनी चिंताएं व्यक्त कर आगे बढ़ जायेंगें. लखनऊ के एसएसपी द्वारा जो बयान दिया गया वह वास्तव में चौंकाने वाला है कि यह छात्रा पहले भी दो बार घर से गायब हो चुकी थी जिसके बारे में पुलिस के पास भी सूचना दी गयी थी फिर भी छात्रा के परिजनों, स्कूल या पुलिस ने इतनी कम उम्र की इस छात्रा की उचित कॉउन्सिलिंग कराने के बारे में क्या कदम उठाया यह सामने नहीं आया है.
अभी भी जिस तरह की जानकारियां सामने आ रही हैं उनसे यही लगता है की इस घटना के पीछे कोई अन्य कारण भी हो सकता है क्योंकि जिस तरह से स्कूल ने घटना के बारे में पुलिस प्रशासन को सूचित नहीं किया और २४ घंटे बाद इस मामले में पुलिस का हस्तक्षेप शुरू हुआ वह भी संदेह उत्पन्न करता है. नियमतः किसी भी स्कूल प्रबंधन को किसी भी दुर्घटना की जानकारी पुलिस को देना कानूनी और सामाजिक रूप से सही और आवश्यक होता है पर इस मामले में पुलिस को पता ही बहुत देर से चला जिससे प्रबंधन भी संदेह के घेरे में आ गया. यदि स्कूल की तरफ से पहले ही यह प्रयास किया जाता कि घटना पुलिस के संज्ञान में हो तो संभवतः मामला इतना नहीं बिगड़ता. यदि मौके से साक्ष्यों को मिटाने का प्रयास किया गया है तो स्कूल पर शक और भी गहरा जायेगा भले ही इसमें सिर्फ छात्रा ही शामिल रही हो. पुलिस को स्कूल और वहां पढ़ने वाले बच्चों के अभिभावकों से भी गहन पूछताछ करनी चाहिए जिससे प्रबंधन के बारे में किसी गड़बड़ी का अंदाज़ा लग सके और यह भी हो सकता है कि स्कूल ने बदनामी से बचने के लिए मामले को खुद अपने स्तर से निपटाने की कोशिश की हो जिसमें बच्चे को लगी गंभीर चोटों के कारण मामला बिगड़ गया.
समाज के तौर पर हमें अब अपने निरीक्षण की आवश्यकता भी है क्योंकि आखिर वे क्या कारण है कि हमारी एक बच्ची इतनी हिंसक हो जाती है कि वह दूसरे बच्चे की जान लेने तक सोच जाये ? क्या हमारे घरों में पहुंची टीवी और हाथों में आये इंटरनेट वाले मोबाइल फ़ोन इस दिशा में बच्चों के कोमल मन को प्रभावित तो नहीं कर रहे हैं ? आखिर टीवी पर कुछ भी दिखाए जाने को सही कैसे ठहराया जा सकता है क्योंकि अपराधों के बारे में आने वाले अधिकांश कार्यक्रमों में अपराधी के काम करने का तरीका क्या था यही बताया जाता है और उन कार्यक्रमों को देखने वाले हमारे बच्चे यह निर्णय नहीं कर पाते हैं कि इस जानकारी का क्या किया जाये ? संयुक्त परिवारों से दूर होते छोटे परिवारों में आज माता-पिता के पास इतना समय ही नहीं है कि वे अपने बच्चों के साथ रह पाएं और उनकी गतिविधियों पर भी ध्यान दें क्योंकि कोई बच्चा एक दिन में इतनी आपराधिक प्रवृत्ति से भर नहीं सकता है. कई बार घर में मिलने वाली उपेक्षा या अत्यधिक लाड प्यार भी उनके इस दिशा में बढ़ जाने का एक बड़ा कारण हो सकता है. आखिर क्यों आज हम समाज की एक मज़बूत इकाई बनकर जीने के स्थान पर अपने एकल इकाई में परिवारों को संभालना सीखते जा रहे हैं ? क्या इस तरह का जीवन हमारे घरों में हमारे बच्चों पर बुरा प्रभाव नहीं डाल रहा है और क्या अब इस समस्या से निपटने के लिए हमारे पारिवारिक मूल्यों की तरफ बढ़ने की आवश्यकता महसूस नहीं हो रही है ? यह कुछ ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब हम केवल अपनी सुविधा के अनुरूप ही खोजने की कोशिशें करते रहते हैं और कुछ घट जाने पर केवल यह कहकर ही अपने कर्तव्य से मुक्त हो जाते हैं कि बहुत बुरा समय आ गया है. समय बुरा नहीं आया है हमने अपने बच्चों को अच्छाइयों और बुराइयों के अंतर को समझाना बंद कर दिया है और उनके विकास के लिए उन्हें आज की दुनिया में खुला छोड़ दिया है जबकि हम सभी को यह सोचना चाहिए की खुलापन सिर्फ उतना ही हो जिसमें घुटन न हो घर के लोगों और समाज से बच्चों का अपनापन बना रहे और वे आने वाले समय में अच्छे नागरिक बनकर देश के लिए कुछ ठोस कर सकें तभी कुछ सुधार संभव है.
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