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कश्मीर – अलगाववाद और सम्भावनाएं

***.......सीधी खरी बात.......***
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आज़ादी के समय विभिन्न कारणों से जिस तरह सम्पूर्ण कश्मीर का भारत में विलय पूरी तरह नहीं हो सका और भौगोलिक परिस्थितियों के चलते भी उस समय मुग़ल रोड पर पाकिस्तान का कब्ज़ा हो जाने से घाटी तक पहुँच संभव न होने से जो समस्या शुरू हुई थी वह आज भी उसी तरह से जारी है. कश्मीर के साथ सबसे बड़ी समस्या यही है कि उसे देश दुनिया में सभी अपने नज़रिये और चश्मे से ही देखना पसंद करते हैं क्योंकि १९४७ से इस पर जो कुछ भी कहा सुना गया है वह पूरी तरह से आज भी वहीं पर ही रुका हुआ है जिससे कश्मीर की प्रगति में रुकावट के साथ उसकी क्षमताओं के दोहन पर भी ग्रहण सा लग गया है. पिछले तीन दशकों में बढे इस्लामी चरमपंथियों ने कश्मीर घाटी को अपनी राजनीति का मोहरा बना लिया है. पंजाब में अस्सी के दशक में बढे आतंक पर काबू पाने के लिए राजीव सरकार ने जिस तरह से सीमा पर कांटेदार बाड़ लगाने का काम बड़े स्तर पर शुरू किया था उसके वहां बेहतर परिणाम भी मिले थे जिसको देखते हुए जम्मू कश्मीर में भी एलओसी तथा सीमा पर यही काम शुरू किया गया. आज यदि घाटी में घुसपैठ को कम करने और विदेशी आतंकियों को रोकने में देश को सफलता मिली है तो यह उस निर्णय के कारण ही है जिसे बाद की सभी सरकारों ने पूरी तत्परता के साथ आगे बढ़ाया भी है.
अलगाववाद के मुद्दे पर घाटी के लोगों से सख्ती से निपटने के लिए जिस तरह से पूरे भारत में दो तरह के विचार सामने आते रहते हैं उन पर भी सोचने का समय आ चुका है क्योंकि इतनी बड़ी आबादी के साथ यदि किसी भी तरह की अनावश्यक सख्ती की जाती है तो केंद्र सरकार को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भी आलोचना का शिकार होना पड़ सकता है साथ ही पाकिस्तान को अपने उस दुष्प्रचार को आगे बढ़ाने में भी मदद मिल जायेगी जो सदैव ही उसकी मंशा में शामिल रहा करता है कि वह पूरे विश्व को यह बता सके कि भारत कश्मीरियों पर ज़ुल्म कर रहा है. आज भारत के बड़े आर्थिक बाजार के रूप में उभरने के बाद से कोई भी बड़ा देश इस तरह के मामलों में अपने हितों को देखते हुए पूरी चुप्पी ही लगा जाता है और यह कहकर अपना पीछा भी छुड़ा लेता है कि यह द्विपक्षीय मसला है और इसमें किसी भी अन्य देश के दखल का कोई मतलब भी नहीं बनता है. राजनाथ सिंह को सरकार चलाने में सामने आने वाली चुनौतियों का मुकाबला करने के बाद अब यह पता चल गया है कि विपक्षी दलों की बेंचों पर बैठकर सरकार पर आरोप लगाना कितना आसान होता है और सरकार के गृह मंत्री होने पर कितने मसलों पर किस तरह से बयान देने पड़ते हैं. पेलेट गन का उपयोग संयम के साथ ही किया जाता है क्योंकि किसी को मार डालने के लिए घाटी में सुरक्षा बल यदि लगे होते तो अब तक घाटी को साफ़ कर चुके होते वे वहां पर पूरी ज़िम्मेदारी के साथ अपने काम को अंजाम देने में लगे हुए हैं इसलिए उन पर और उनके निर्णयों पर अनावश्यक बोलने से किसी को भी कुछ हासिल नहीं होने वाला है.
अब घाटी के अलगाववादी तत्वों के साथ पाकिस्तान को भी यह समझना ही होगा कि इस तरह आतंक फैलाकर बलपूर्वक कश्मीर को हासिल करने की उसकी नीति किसी भी तरह से उसके काम नहीं आने वाली है और जिस तरह से घाटी के लोगों पर राज्य के बड़ा बजट खर्च किया जाता है उसे लेकर लद्दाख और जम्मू में भी घाटी के लिए कोई सद्भावना नहीं है. यह ऐसी परिस्थिति है जिसमें राज्य के तीन हिस्से करना देश और कश्मीर के लिए एक बड़ा कदम हो सकता है. बेशक धारा ३७० का प्रावधान घाटी के स्वरुप को बनाए रखने के लिए ही किया गया था पर १९८९ के बाद कश्मीरी पंडितों के पलायन के बाद क्या घाटी १९४७ जैसी स्थिति में रह गयी है ? यदि कश्मीर के अलगाववादी नेता इसी तरह से राज्य को देश से अलग करने के मंसूबे पालते रहे तो यह भी संभव है कि भारतीय संविधान की धारा ३७० को केवल कश्मीर घाटी तक सीमित करने या पूरी तरह से ख़त्म करने का कोई प्रस्ताव भी संसद में आसानी से पारित हो जाये. आज कश्मीर घाटी की जो भी विशेष स्थिति है वह भारतीय संविधान द्वारा ही दी गयी है न कि कश्मीरियों को वह असीमित समय के लिए मिली हुई है भारतीय संसद पूर्ण संप्रभु है और कश्मीरियों के इस तरह के क्रियाकलापों से कभी उनको मिले हुए इस विशेष दर्ज़ पर भी चर्चा शुरू हो सकती है. पाकिस्तान के हिस्से वाले कश्मीर और भारतीय कश्मीर में स्पष्ट अंतर यह है कि यहाँ विकास की बात होती है और वहां पर अलगाववादियों के कैंप लगाकर विनाश की राह पर चलने के लिए उकसाने का काम किया जाता है.

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