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कश्मीर-सौदेबाज़ी और सरकार

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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मुफ़्ती मोहम्मद सईद के निधन के बाद एक माह पूरा होने पर भी अभी तक जम्मू कश्मीर में नयी सरकार के गठन का रास्ता पूरी तरह से खुलता हुआ नज़र नहीं आ रहा है जो कि अभी तक सत्ता संभाल रहे पीडीपी-भाजपा गठबंधन के लिए बड़ी चुनौती के रूप में सामने आ रहा है. लम्बे समय से अशांत रहने वाले इस राज्य में अब जब स्थितियां काफी हद तक नियंत्रण में हैं तो इस परिस्थिति में वहां इस तरह से चुनी हुई सरकार के स्थान पर केंद्र का अप्रत्यक्ष दखल के चलते राज्य की जनता को एक बार फिर से अलगाववादी लोकतंत्र के खिलाफ भड़काने का काम कर सकते हैं क्योंकि अभी तक जिस तरह से राज्य में विभिन्न प्रमुख दलों के साथ राष्ट्रीय दलों ने अपनी भूमिका का निर्वाह किया है उससे भी राज्य की परिस्थितियों को सामान्य करने में महत्वपूर्ण योगदान मिला है. राजनैतिक रूप से चुनी हुई सरकार के होने पर जहाँ राज्य में सक्रिय अलगाववादी केंद्र और सेना पर आसानी से प्रतिबन्ध लगाने के झूठे आरोप नहीं लगा पाते हैं वहीं सीधे राज्यपाल शासन होने के कारण वे राजनेताओं को किनारे किये जाने और दिल्ली पर मनमानी करने के आरोप लगाने से भी नहीं चूकने वाले हैं.
किसी भी बहु-दलीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था में खंडित जनादेश का आने कोई नयी बात नहीं है पर जिस तरह से कई महत्वपूर्ण राज्यों और केंद्र में कई दशकों से साझा सरकारों का दौर चलता रहा है और उसमे दलीय हितों के चलते कई बार दरारें भी स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं तो इस परिस्थिति से निपटने के लिए क्या अब देश को नए सिरे से सोचने की आवश्यकता नहीं है ? इस तरह की परिस्थिति में सभी दलों की एक राज्य स्तरीय सरकार बनाये जाने के विकल्प पर सोचने की बहुत आवश्यकता आ गयी है क्योंकि चुनाव के बाद परिस्थितियां बदल जाएंगीं ऐसा कोई भी नहीं कह सकता है तो जिन लोगों को जिस रूप से स्थानीय कारणों के चलते विधानसभाओं में जाने का अवसर मिला है उनके सभी के साथ मिलकर एक साझा कार्यक्रम बनाकर सरकार के गठन के विकल्प पर विचार किया जाना चाहिए. इससे जहाँ असमय चुनावों से बचा जा सकेगा वहीं देश के संसाधनों को बचाया जा सकेगा जो कि चुनावों में लगाने पड़ते हैं. इस बार पीडीपी और भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि दोनों के वोट बैंक बिलकुल विपरीत ध्रुवों से आते हैं और जब एक अपने हितों की बात करता है तो दूसरे के हित उससे स्पष्ट रूप से टकराने लगते हैं.
वर्तमान परिस्थिति में यदि दोनों दलों के बीच कोई सामंजस्य नहीं बन पाता है तो यह राज्य के लिए अच्छा साबित नहीं होने वाला है क्योंकि भाजपा से सम्बन्ध जोड़कर पीडीपी ने निश्चित रूप से अपने वोटबैंक को नाराज़ किया है साथ ही भाजपा भी जम्मू क्षेत्र में अपने पुराने प्रदर्शन को दोहराने के लिए आश्वस्त नहीं दिखाई दे रही है संभवतः यही कारण है कि वह भी अगले पांच वर्षों तक सरकार चलने की संभावनाओं को लगातार टटोलने का काम करने में लगी हुई है. मुफ़्ती मोहम्मद सईद पुरानी पीढ़ी के नेता थे जिन्होंने देश की मुख्य राजनीतिक धारा के साथ भी लम्बे समय तक काम किया था जिस कारण उनके सोचने और खतरे उठाने की क्षमता का महबूबा किसी भी स्तर पर मुक़ाबला नहीं कर सकती हैं और यही तथ्य दोनों दलों के १० महीने पुराने गठबंधन को आगे चलाने के लिए रोड़े का काम कर रहा है. कश्मीर के हितों पर बात होनी चाहिए पर साथ ही जम्मू और लद्दाख के लोग जिस तरह से कश्मीर घाटी के नेताओं के नेतृत्व में बनने वाली किसी भी सरकार पर अपने क्षेत्रों की उपेक्षा के आरोप लगाते हैं आज उनसे भी निपटने की आवश्यकता है. महबूबा भाजपा पर दबाव बनाकर अपनी शर्तें मनवाना चाहती हैं और इस स्थिति में बात आगे न बढ़ने पर वे कांग्रेस के साथ भी जा सकती है यह बात भाजपा भी समझ रही है जिसके बाद राज्य की जनता को केंद्र से मिलने वाली सहायता और सहयोग में कमी आ सकती है यह बात भी सभी जान रहे हैं. फिलहाल सभी दलों कि यह ज़िम्मेदारी बनती है कि वे वर्तमान में चल रहे गतिरोध को तोड़ने के लिए नए सिरे से खुले मन से सोचने का काम शुरू करें.

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