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कांग्रेस, भाजपा और देश की राजनीति

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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पांच राज्यों में हुए विधान सभा चुनावों में जिस तरह से कांग्रेस के लिए कोई अच्छी खबर नहीं आई और भाजपा ने २०१४ के अपने प्रदर्शन को सुधारते हुए आगे बढ़ने का क्रम जारी रखने में सफलता पायी है उससे यही लगता है कि जिन राज्यों में वह सीधे कांग्रेस से मुक़ाबले में है वहां पर उसकी तरफ से बेहतर प्रबंधन किया जा रहा है और संघ के कार्यकर्ताओं की भूमिका की इस पूरी कवायद में अनदेखी नहीं की जा सकती है. असम में २०१४ के प्रदर्शन के बाद भाजपा को यह लगने लगा था कि यह राज्य उसके लिए भारत के पूर्वोत्तर राज्यों के समूह के प्रवेश द्वार के रूप में काम कर सकता है और अंत में उसकी यही सोच राज्य में उसके लिए बड़ी कामयाबी का कारण भी बनी. कांग्रेस के लिए इस मामले में स्थिति इतनी ख़राब तो नहीं थी पर उसका अकेल ही चुनाव लड़ने का फैसला सम्भवतः उसके लिए सबसे बड़ी समस्या बन गया क्योंकि भाजपा ने असम के चारों हिस्सों में जिस तरह से अलग अलग रणनीति पर काम करते हुए काम किया वहीं कांग्रेस अपने असंतुष्ट नेताओं को समझा पाने में भी सफल नहीं रही और सरमा जैसे नेता ने अपने भविष्य के रूप में भाजपा में जाना पसंद किया और भाजपा को भरपूर लाभ भी दिया. रणनीति कई बार उल्टा असर भी कर देती है और कई बार बहुत ही कारगर तरीके से उसके बेहतर परिणाम भी सामने आते हैं.
कांग्रेस के सामने अब सबसे बड़ी समस्या यही है कि आज राज्यों में उसके सत्ता का सुख भोगने वाले बुजुर्ग होते नेताओं के बाद प्रभावी नयी पीढ़ी नज़र नहीं आती है और राज्यों के बड़े नेता केवल अपने केंद्रीय नेताओं के सहारे ही सरकार चलाने की कोशिशें किया करते हैं. जिन राज्यों में कांग्रेस लम्बे समय से सत्ता से बाहर है वहां पर आज केवल बड़े नाम ही नेता के रूप में बचे हैं वैसे तो तरुण गोगोई के खिलाफ ऐसा कोई माहौल भी नहीं था पर प्रबंधन के स्तर पर केंद्र और राज्य में समन्वय न होने की दिशा में कांग्रेस ने जिन नेताओं को खुले हाथ दिए वहां पर असंतुष्ट नेताओं ने खुद ही विद्रोह किया या वे आसानी से भाजपा ने चले गए. इन नेताओं ने अपने सीमित प्रभाव के बाद भी कांग्रेस को बड़ा नुकसान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. भाजपा ने इन नेताओं के सीमित महत्व को समझते हुए सदैव ही इन्हें अपने पाले में किया और इनके प्रभाव का अपने दल के लिए सही तरीके से इस्तेमाल भी किया. आज इन दोनों दलों के लिए देश की ५०% आबादी पर ही आपस में राज करने का विकल्प शेष बचा है क्योंकि यूपी, बिहार, बंगाल, उड़ीसा केरल और तमिलनाडु जैसे बड़ी आबादी वाले राज्यों में इन दोनों ही दलों के लिए क्षेत्रीय दलों से निपटना आसान नहीं रहा है पर यूपी के अगले वर्ष के विधान सभा चुनावों में यह भी स्पष्ट हो सकता है कि भाजपा वहां पर २०१४ का प्रदर्शन दोहरा पाती है या नहीं.
इतने बड़े देश में आज एक पार्टी के लिए समग्र स्वीकर्ता बना पाना आसान भी नहीं है और जिस तरह से भाजपा उन राज्यों तक पहुँचने का काम कर रही है जहाँ आज तक उसे कोई नहीं जानता था उससे उसकी नीतियां अवश्य ही आम लोगों तक पहुँचने वाली हैं और कांग्रेस को उन सभी राज्यों में अपनी रणनीति पर फिर से विचार करने की आवश्यकता भी है जहाँ पर उसकी प्रभावी पहुँच तो है पर वह जनता से दूर हो चुकी है. लोगों से जुड़ने में भाजपा आज कांग्रेस से बाज़ी मारती हुई दिखाई दे रही है और कांग्रेस की सरकार को बदलकर भाजपा को राज्यों में आजमाने की एक प्रवृत्ति के चलते भी दिल्ली और असम की कांग्रेस सरकारें उसके हाथ से जा चुकी हैं. शीला दीक्षित और तरुण गोगोई के लिए दिल्ली और असम में कोई बड़ा विरोध तो नहीं था पर वे भाजपा के उस प्रचार से नहीं बच सके जिसमें कांग्रेस पर लगातार आरोप लगाए जाते रहे हैं. लोकतंत्र में हार-जीत तो होती रहती है पर जया और ममता ने भी सत्ता में रहते हुए दोबारा सत्ता को पाने की कोशिश को कम नहीं किया जबकि कांग्रेस केरल और असम में सम्भवतः आधे अधूरे मन से ही चुनाव लड़ रही थी जिसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ा है. यदि कांग्रेस को लगता है कि उसे राहुल के हाथों पार्टी का नेतृत्व सौंप देना चाहिए तो उसे यह काम करने में विलम्ब नहीं करना चाहिए क्योंकि कांग्रेस आज बिखरे हुए विपक्ष नहीं बल्कि एक काडर आधारित पार्टी भाजपा से चुनावी समर में दो दो हाथ करती है जिसके पास केंद्र की सत्ता और संघ की शक्ति भी है. राहुल को अपने आप को साबित करने देना चाहिए क्योंकि यदि वे पार्टी को संभाल सके तो ठीक वर्ना उनके असफल होने पर अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए पार्टी नया नेतृत्व खुद ही तलाश कर लेगी.

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