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कानून अनुपालन और वास्तविकता

***.......सीधी खरी बात.......***
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भाजपा नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी के खिलाफ देश की विभिन्न अदालतों में चल रहे मुक़दमों की सुनवाई से जुड़े एक मामले में मोदी सरकार ने जिस तरह से कार्यवाही करने से जुड़ा हलफनामा दिया है उसे यही पता चलता है कि सैद्धांतिक रूप से वैचारिक दल होने की बातें करने वाली भाजपा किस तरह से परिस्थितियों को अपनी सुविधानुसार मोड़ने में पारंगत है. एक तरफ जहाँ उसके नेता यह मानने को तैयार ही नहीं होते हैं कि उनकी तरफ से कोई भी नेता हेट स्पीच जैसी किसी भी गतिविधि में शामिल भी है वहीं केंद्रीय गृह मंत्रालय के माध्यम से सरकार सुप्रीम कोर्ट में यह कहती है कि देश के किसी भी हिस्से में किसी भी व्यक्ति को किसी भी समुदाय विशेष के खिलाफ भड़काऊ बातें कहने और करने का अधिकार नहीं है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को हेट स्पीच के साथ नहीं जोड़ा जा सकता है और जो भी इसमें शामिल हैं उनके विरुद्ध मुक़दमें चलाये जाने चाहिए. कानूनी रूप से काफी मज़बूत स्वामी ने जिस तरह से अपने खिलाफ लगाये गए अभियोगों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जोड़ा था उसी मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार की राय मांगी थी जिस पर उसने यह बात कही है.
स्वामी के कहीं भी कुछ भी बोलने के खिलाफ दिल्ली, मोहाली, केरल और असम में कई मुक़दमें दर्ज़ किये जा चुके हैं जिनके बारे में उनका खुद का यह मानना है कि संविधान उन्हें इस तरह से बोलने की आज़ादी देता है जबकि सभी को यह पता है कि उनके भाषण और बयान स्पष्ट रूप से अभिव्यक्ति की आज़ादी के अंतर्गत नहीं वरन हेट स्पीच के अंतर्गत ही आते हैं और उस तरह के मामलों में केंद्र सरकार केवल संविधान में दिए गए प्रावधानों का उल्लेख ही कर सकती है. केंद्र ने जो कुछ भी कहा है वह अपनी जगह पर न्याय सांगत ही है क्योंकि भले ही भाजपा या संघ से जुड़े हुए संगठन और लोग इस तरह कि बयानबाज़ी करते रहें पर कहीं न कहीं से भारतीय संविधान में उन्हें मिले हुए अधिकारों का यह खुला दुरूपयोग ही होता है और इसे अभिव्यक्ति की आज़ादी के अंतर्गत नहीं वरन हेट स्पीच के अंतर्गत ही रखा जाना उचित है. भाजपा से जुड़े हुए लोगों को अधिकतर मामलों में संवैधानिक प्रावधानों पर उंगली उठाने की आदत बन गयी है जिससे वे किसी भी तरह पीछा नहीं छुटा पा रहे हैं तभी अनर्गल बयान देने वाले लोग आज मोदी सरकार में मंत्री पद पर भी बैठे हुए हैं तो सरकार किस तरह से निचली श्रेणी के कार्यकर्ताओं और नेताओं को ऐसी बयानबाज़ी से रोक पाने में सफल हो सकती है ?
यहाँ पर सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा यह भी है कि यदि सरकार को लगता है कि देश के किसी भी हिस्से में किसी भी जाति, वर्ग, धर्म या समूह के खिलाफ आपत्तिजनक बातें कहना हेट स्पीच में आता है तो वह अपने संगठन और संघ से जुड़े हुए लोगों पर ऐसी बातें करने के लिए कड़ाई से रोक क्यों नहीं लगाती है ? संभवतः सरकार इस मामले में चुप रहकर ही अपना काम करने की मंशा रखती है और जब पानी सर से ऊपर हो जाता है तो वह अपने स्तर से मजबूरी में कानूनी बाध्यताओं के चलते बयान या हलफनामा देने में भी संकोच नहीं करती है. यदि सरकार इस मामले में गंभीर है तो उसे सबसे पहले मंत्रिमंडल के सहयोगियों के अनर्गल प्रलापों पर रोक लगानी चाहिए और यदि कोई भी मंत्री यदि इस स्थापित सीमा का उल्लंघन करता है तो उसे अविलम्ब मंत्रमंडल से बर्खास्त भी किया जाना चाहिए. गिरिराज जैसे मंत्रियों की प्रासंगिकता वैसे भी बिहार चुनावों के बाद समाप्त ही होने वाली है तो अगली बार यदि एक तीर से दो निशाने करने की कोशिश में उनको भी बाहर का रास्ता दिखाया जा सकता है. केंद्र सरकार को हर परिस्थिति में संघ और भाजपा के अतिरिक्त इनसे जुड़े हुए हर व्यक्ति के विवादित बयानों पर चुप्पी के स्थान पर कड़ी कार्यवाही करने के बारे में आगे बढ़ना चाहिए तभी सुप्रीम कोर्ट में दिए गए हलफनामे का कोई मतलब निकल सकता है.

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