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कुम्भ हादसा और ज़िम्मेदारी

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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मौनी अमावस्या के अवसर पर स्नान कर वापस घरों को लौट रहे श्रद्धालुओं को जिस तरह से अपने हाल पर छोड़ दिया गया इलाहाबाद जंक्शन पर हुआ हादसा उसी का परिणाम था. देश में यह आम तौर पर देखा जाता है कि इतने बड़े आयोजनों पर इस तरह की दुर्घटनाएं आम तौर पर होती रहती हैं फिर भी आज तक हम कोई ऐसी व्यवस्था नहीं बना पाए हैं जिसके माध्यम से इस तरह के हादसों को या तो रोकने में सहायता मिल सके या फिर उनके घटित होने पर उनकी तीव्रता को कम करने में कुछ उपाय किये जा सकें. इस दुर्घटना से जिस तरह से राज्य सरकार और रेलवे ने अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ने का काम किया है उस स्थिति में दोनों ही दोषी हैं क्योंकि इस पूरी दुर्घटना में इन दोनों की पूरी ज़िम्मेदारी थी और अब जब इतने लोग हताहत हो चुके हैं तो भी किसी को अपनी ग़लती ही नहीं दिखाई दे रही है और एक दूसरे पर आरोप लगाये जाने का क्रम शुरू हो चुका है. इस तरह की दुर्घटनाओं को पूरी तरह से तो नहीं रोका जा सकता है पर मृतकों और घायलों के प्रति संवेदना के कुछ बोल तो बोले ही जा सकते हैं पर अखिलेश एक इन्सान के रूप में यह कर पाने में असफल रहे हैं जिससे राज्यपाल को उन्हें राजभवन बुलाकर अपनी चिंता ज़ाहिर करने की आवश्यकता पड़ी है.
यह भी सही है कि रेलवे को परिचालन के लिए अंतिम समय पर कई बार आने वाली गाड़ी का प्लेटफार्म बदलना पड़ता है पर जब इतनी बड़ी भीड़ स्टेशन पर इकट्ठी हो तो इस तरह से किसी भी बदलाव के बारे में पहले उसके प्रभाव पर विचार किया जाना चाहिए क्योंकि जो भी लोग इस तरह के आयोजनों में आते हैं वे स्नान के बाद जल्दी से जल्दी अपने घरों को लौटना चाहते हैं जिससे भी बहुत अव्यवस्था हो जाती है. हो सकता है कि रेलवे ने जिस तरह से अंतिम समय में प्लेटफार्म बदला इस दुर्घटना के लिए पूरी तरह से वही ज़िम्मेदार हो पर एक साथ इतने लोगों को स्टेशन तक पहुँचने देना क्या कुम्भ प्रशासन की भी नाक़ामी नहीं है ? रेलवे स्टेशन पर एक क्षमता से अधिक लोगों के पहुँचने पर जो कुछ हो सकता है इस बार भी वही सब हुआ है इतने बड़े आयोजनों के समय रेलवे को भीड़ जल्दी से जल्दी कम करने के प्रयास में इस तरह के कोई परिवर्तन करने से बचना चाहिए क्योंकि भीड़ तंत्र में कोई भी व्यवस्था आसानी से ध्वस्त हो जाया करती है और उसका आरोप सम्बंधित विभाग एक दूसरे पर लगाते रहते हैं.
कई वर्षों से कुम्भ की तैयारी में लगे हुए मेला प्रशासन को इस बारे में रेलवे से समन्वय स्थापित करने चाहिए था और लोगों के केवल स्नान-दर्शन के बाद उनके हाल पर छोड़ देने का कोई मतलब नहीं बनता है. पूरे दिन इस तरह से कई स्थानों पर अव्यवस्था फैलने की ख़बरें आती रहीं जिसमें पुलिस के रेडियो सम्पर्क फेल होने की भी खबर है अब इतने बड़े आयोजन पर यदि पुलिस का नेटवर्क भी काम करना बंद कर दे तो स्थिति की तैयारियों का अंदाज़ा लगाया जा सकता है ? यह सही है कि मंत्री के रूप में आज़म खान ने अपनी तरफ़ से कोई कमी नहीं छोड़ी थी पर जब इतना बड़ा आयोजन था और सरकार के वरिष्ठ मंत्री अन्य सामान्य प्रशासन में लगे हुए थे तो अपने भारी भरकम मंत्रियों की फौज से किसी प्रशासनिक दक्षता वाले मंत्री को इन मुख्य स्नानों के दिन प्रभारी बनाकर मेला क्षेत्र में रहने के निर्देश भी दिए जा सकते थे जिससे अधिकारियों पर अपनी क्षमता से काम करने का दबाव बना रहता और किसी भी अप्रिय स्थिति से निपटने में सहायता मिल जाती. आज़म द्वारा मेला समिति से इस्तीफ़ा देने के स्थान पर खुद बनारस जाने के स्थान पर मेला क्षेत्र जाकर स्थिति पर काबू करने की कोशिश करनी चाहिए थी क्योंकि उनके सख्त मिजाज़ को भांपकर अधिकतर काम खुद ही सही तरह से होने लगते हैं और इसका लाभ घायलों को सहायता पहुँचाने में मिल सकता था.

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