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गांवों की तरफ जाता बजट

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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मोदी सरकार द्वारा पेश किया गया तीसरा बजट इस बात के लिए भी जाना जायेगा कि उसने देश की वास्तविक स्थिति को समझने में दो वर्ष लगा दिए और अब जाकर उसे यह समझ में आया कि यदि भारत की आर्थिक गाड़ी की रफ़्तार को हर हाल में बनाये रखना है तो देश के औद्योगिक विकास के साथ सबसे अहम कृषि क्षेत्र को सुधारने और उसमें अधिक धन डालने की आवश्यकता भी है क्योंकि देश की अधिकांश आबादी जो कि कृषि पर ही निर्भर करती है उसकी अनदेखी करने से किसी भी सरकार के हितों और किसानों को रक्षा नहीं की जा सकती है. जिस देश में आज भी रोजगार का ६५% हिस्सा कृषि के माध्यम से ही आता हो वहां पर सिर्फ औद्योगिकीकरण की बातों के माध्यम से देश को आगे बढ़ाना संभव भी नहीं है. जिस मनरेगा को संसद में गड्ढे खोदने वाला कार्यक्रम बताकर खुद पीएम मोदी ने पिछले वर्ष मजाक उड़ाया था आज उनकी मज़बूत सरकार को मजबूरी में ही सही पर उसके लिए अब तक का सर्वाधिक बजट देने को मजबूर होना पड़ा है जिससे यह पता चलता है कि देश के ग्रामीण क्षेत्रों की उपेक्षा करने से समस्या पर नियंत्रण नहीं पाया जा सकता है. यह भी संभव है कि मोदी सरकार राहुल गांधी के भाषणों में प्रमुखता पाने वाली सूट बूट की सरकार वाली छवि को तोड़ने का काम भी करना चाहती हो.
बजट बनाने के लिए देश के अर्थशास्त्रियों की गंभीर राय ली जानी चाहिए और राजनेताओं का उसमें न्यूनतम हस्तक्षेप होना चाहिए इस बात से कोई भी इंकार नहीं करता है पर जब तक राजनेता अर्थशास्त्रियों द्वारा बनायीं गयी नीतियों को पूरे मन से लागू नहीं करेंगें तब तक देश की आर्थिक प्रगति को सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है. संसद में सत्ता को साधने के साथ सरकार चलाने को मजबूर नरसिंह राव और अटल बिहारी की सरकारों ने कई मामलों में देश को अच्छी नीतियां देने के साथ आर्थिक प्रगति के चक्के को तेज़ी से घुमाने में सफलता पायी क्योंकि दोनों ने ही अपने वित्त मंत्रियों को सुधारात्मक कदम उठाने की पूरी छूट दे रखी थी. वित्त मंत्री के रूप में अरुण जेटली भी कुछ अच्छा कर पाने में सफल हो सकते हैं यदि उन्हें भी पीएम की तरफ से खली छूट दी जाये और सरकार अपने फ्लोर मैनेजमेंट को थोड़ा और सुधारने का प्रयास करे. वित्त मंत्री के पास देश की आर्थिक नब्ज़ को पहचानने वाले लोगों की एक संगठित टीम होती है और वे उससे और भी अच्छा काम निकलवा सकते हैं. वैश्विक बाज़ार जैसी परिस्थितियों का लाभ उठाया जा सकता है पर अचानक से देश की मूलभूत संरचना के साथ बदलाव नहीं किया जा सकता है जिसमें कृषि क्षेत्र सबसे महत्वपूर्ण भी है.
मोदी सरकार द्वारा जिस तरह से प्रारम्भ में मनमोहन सरकार की आर्थिक नीतियों की खुली आलोचना की गयी और उसके बाद आज वह खुद भी मनमोहन के बताये रास्ते पर ही चलती हुई नज़र आ रही है इससे पता चलता है की कई बार हमारे देश के नेता गण कभी भी कुछ भी बोल सकते हैं जिसका धरातल पर कोई अस्तित्व कभी भी नहीं होता है. बरेली में पीएम मोदी द्वारा किसानों की आय दोगुनी करने का संकल्प बहुत अच्छा है पर जिस तरह से पिछले दो वर्षों से कृषि की विकास दर १.५% पर ही टिकी हुई है तो १४% की विकास दर अचानक से कैसे हासिल की जा सकती है ? इस बात को पूर्व पीएम मनमोहन सिंह ने भी अपनी प्रतिक्रिया में रेखांकित भी किया है और यह दिखाई भी दे रहा है कि मौसम की मार के चलते कृषि पर संकट के बादल लगातार मंडरा रहे हैं. अच्छा हो कि मानसून इस वर्ष से कुछ सुधर जाये जिससे सरकार को अपने लक्ष्य भले ही न मिल सकें पर वह उसके कुछ नज़दीक तक तो अवश्य ही पहुँच जाये. देश की आर्थिक प्रगति का चक्र फिलहाल तो गांवों से ही घूमता है और इस बार इस बात को समझते हुए सरकार ने अपनी नीतियों में बड़ा बदलाव करने के बारे में सोच लिया है जो देश के लिए बहुत अच्छा कहा जा सकता है.

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