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गाय पर चर्चा

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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२०१४ के आम चुनावों के बाद जिस तरह से देश में सनातन धर्म और हिंदुत्व की विचारधारा को बदनाम करने के लिए कुछ संगठनों की तरफ से लगातार प्रयास किये जा रहे हैं आज उनका असर देश की राजनीति पर भी दिखाई देने लगा है. बहुत सारे विवादित मुद्दों या अभी तक विवाद से पर रहने वाले कुछ मुद्दे अचानक ही सुर्ख़ियों में आने से जहाँ समाज में एक नए विभाजन का खतरा बढ़ता हुआ दिखाई देने लगा है वहीं केंद्र और राज्य सरकारों की तरफ से इन मुद्दों पर केवल न्यूनतम कानूनी कार्यवाही करने से मामले और भी उलझते से ही नज़र आने लगे हैं. अमेरिकी अख़बार में गौ हत्या पर देश में बढ़ती हुई असहिष्णुता के बारे में मोदी सरकार से एक तरह से खुला जवाब मांग लिया गया जिसका असर इंदिरा गाँधी स्टेडियम में हुए पीएम मोदी के पहले टाउन हॉल कार्यक्रम में स्पष्ट रूप से दिखाई भी दिया. हालाँकि अपने क़दमों से सभी को चौंकाने की राजनीति करने वाले मोदी इतनी जल्दी इस मुद्दे पर बोलेंगें इसकी उम्मीद किसी को भी नहीं थी पर दादरी, गुजरात और एमपी के दलितों/मुस्लिमों पर गाय के नाम पर किये गए अत्याचारों के बाद मोदी सरकार भी दबाव में तो थी जिस दबाव को अपनी राय के बाद पीएम ने कम करने की एक कोशिश कर दी है.
पीएम का यह कहना कि ८०% गो रक्षकों को “गोरखधंधे” में लिप्त बताया इससे पता चलता है कि केंद्र सरकार इस बात को अच्छी तरह से समझ रही है कि मसला कहाँ पर पहुंच हुआ है फिर भी जिस तरह से राज्यों से इस मसले पर गृह मंत्रालय से रिपोर्ट मंगवाने और पूरे देश की रिपोर्ट तैयार करवाने के लिए कुछ ठोस आश्वासन देने के स्थान पर मोदी ने केवल खानापूरी ही कर दी है. चुनावी राज्यों में छोटी छोटी बातों पर भी राजनाथ सिंह का बयान आ जाता है कि राज्य सरकार से रिपोर्ट मंगवाई गयी है पर गो रक्षकों द्वारा किये जाने वाले अत्याचारों पर आज तक गृह मंत्रालय स्वतः संज्ञान क्यों नहीं ले पा रहा है ? ज़ाहिर है कि देश के अंदर विवाद खड़ा करने वाले मुद्दों पर पीएम इस तरह से केवल बयानबाज़ी करके ही अपने को सुरक्षित साबित कर देना चाहते हैं और साथ ही यह भी कि कड़े शब्दों में बयान दिए जाएँ जिससे यह विदेशों में यह सन्देश भी चला जाये कि केंद्र सरकार इस तरह की बातों का समर्थन नहीं करती है. यहाँ पर पीएम यह भूल जाते हैं कि विदेशी निवेशकों का इस तरह की घटनाओं पर लगातार ध्यान बना ही रहता है और किसी भी परिस्थिति में सरकार की दोहरी नीति का लाभ देश को नहीं मिलने वाला है.
यदि सरकार को लगता है कि गो रक्षकों में अराजक तत्व घुसे हुए हैं तो सबसे पहले उसे अपनी तरफ से एक नीति बनाने के बारे में सोचना चाहिए जिसमें गाय समेत सभी तरह के पशु तस्करों को नियन्त्रति करने के लिए एक सामाजिक व्यवस्था बनायीं जा सके और इस मुद्दे पर राजनीति को बंद किया जाये. राजस्थान में सरकार के संरक्षण में चलने वाली गौ शाला के कर्मचारियों को तीन महीने से वेतन नहीं मिला है जिससे वहां से लगभग ५०० गायों के मर जाने की सूचनाएं आज सबके सामने हैं शुक्र है कि घटना राजस्थान की है यदि यूपी की होती तो अखिलेश यादव से जवाब देते नहीं बनता और सरकार पर यह आरोप लगाए जाते कि वह गौ और हिन्दू विरोधी है. राजे सरकार के खिलाफ कौन से हिंदूवादी संगठन और गौ रक्षक दल प्रदर्शन करने गए यह आज तक पता नहीं चल पाया है. राजनीति में पांसे किस तरह से उलटे भी पड़ जाते हैं यह मोदी के बयान और राजे सरकार की गायों के प्रति निष्ठा और समर्पण से समझ जा सकता है. कुछ दिन पहले तक जो “अराजक” ८०% लोग मोदी को सबसे बड़ा गो रक्षक बता रहे थे आज उनकी स्थिति का अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है पर मोदी सरकार इस मामले में ज़मीनी हकीकत को सुधारने के लिए अपने इस बयान से आगे भी बढ़ पायेगी इसमें बहुत संदेह भी है.
आज मरने के बाद गाय जिस तरह से आर्थिक रूप से बहुत लाभ देने वाली साबित हो रही है उसे देखते हुए यह समझने की बहुत आवश्यकता है कि आखिर पिछले एक दशक में गाय की तस्करी क्यों बढ़ रही है. सामान्य रूप से डेढ़ दो हज़ार रूपये की गाय मरने के बाद आसानी से पांच सात हज़ार रुपयों में बिक जाती है तो मांस का व्यापार करने वालों के बीच में गाय इसलिए भी आय बढ़ाने के बेहतर साधन के रूप में प्रचलित होती जा रही है. गांवों में जिस तरह से दूध न देने वाले गोवंश को औने पौने दामों में बेचा जाता है उसके बाद उनके मांस के लिए उनको मारा भी जाता है क्योंकि जो लोग इन्हें खरीदते हैं वे कोई गोशाला खोलकर नहीं बैठे हैं इसलिए गायों की रक्षा के लिए सबसे पहले ग्राम समाज के स्तर पर चारागाह और अन्य संसाधनों को उपलब्ध कराये जाने के बारे में सोचना चाहिए. केवल गाय की महिमा बताने से उनकी स्थिति पर कोई ख़ास अंतर नहीं पड़ता है और कहीं से भी गाय के संरक्षण में सफलता भी नहीं मिलती है उसके लिए निचले स्तर से संसाधनों को दुरुस्त किये जाने की आवश्यकता भी है. गुजरात में गाय के मुद्दे पर दलितों के साथ हुए अन्याय के बाद आज हिंदुत्व की प्रयोगशाला के परिणाम अच्छे नहीं दिखाई दे रहे हैं जिसके चलते वहां नेता का परिवर्तन करने के लिए मोदी को बाध्य होना पड़ा है. दुर्भाग्य से आज गाय भी केवल हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण का साधन ही बन कर रह गयी है और उसके लिए ठोस काम किये जाने में सरकार समाज और कानून पूरी तरह से विफल ही साबित हो रहे हैं.

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