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तेल की गिरती कीमतें

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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देश की राजनीति में तेल की कीमतें सदैव ही एक बड़ा रोल निभाती रही हैं और अंतर्राष्ट्रीय परिवेश के चलते २०१३ में कच्चे तेल की कीमतों में रिकॉर्ड ऊँचाई देखने के बाद जिस तरह से लगातार कमी होती जा रही है उसे देखते हुए केवल यही कहा जा सकता है कि यह कमी भले ही केंद्र सरकार के वार्षिक बजट घाटे को नियंत्रित करने का काम करे पर इसके कारण उत्पन्न होने वाली वैश्विक अनिश्चितता के चलते भारत सरकार द्वारा किये जा रहे विभिन्न प्रयासों का सही लाभ नहीं दिखाई देने वाला है. यह सही है कि आज चीन के कारण सामने आने वाली वैश्विक मंदी और उससे निपटने का सही उपाय दुनिया के किसी भी देश के पास नहीं है और भारत ने भी जिस तरह से अपनी आर्थिक गतिविधियों में चीन को बहुत अच्छे से शामिल किया हुआ है उस परिस्थिति में देश का आर्थिक परिदृश्य भी बहुत अच्छा नहीं रहने वाला है. जिस खुले बाज़ार की वकालत आज मोदी सरकार द्वारा की जा रही है उसे यदि कुछ समय पहले ही खोल दिया गया होता तो आज भारत पर भी इस मंदी का गहरा प्रभाव दिखाई देता पर अच्छी बात यह है कि भारत की सीमित स्तर पर खुली अर्थव्यवस्था के संचालन से आज परिस्थितियां काबू में ही हैं.
अब पूरे तेल बाज़ार पर नज़र डालने से यह पता चलता है कि केंद्र सरकार द्वारा जिस तरह से ड्यूटी बढाकर जनता से इस तरफ से धन संग्रह किया जा रहा है वह कहीं से भी अनुचित नहीं है क्योंकि यदि देश की जनता मंहगे तेल को खरीद सकती है तो उसे देश के बजट घाटे को कम करने के लिए इस तरह से अपना सहयोग देना भी चाहिए. इस नयी स्थिति में जहाँ केंद्र सरकार को हज़ारों करोड़ रुपयों का लाभ हो रहा है वहीं बजट घाटे को भी नियंत्रत किया जा रहा है पर इस सस्ते तेल का दुष्प्रभाव दूसरी तरह से देश की अर्थ व्यवस्था पर पड़ता हुआ दिखाई दे रहा है और रुपया एक बार फिर से अपने निम्नतम स्तर तक पहुंचा जा रहा है जिससे तेल की वास्तविक कमी को जनता तक पहुँचाने और ठोस नीति बनाने के लिए सरकार को भी मशक्कत करनी पड़ रही है. ऐसी स्थिति में देश के लिए क्या आदर्श स्थिति हो सकती है इस पर भी विचार करने की आवश्यकता है क्योंकि तेल की कीमतों के भरोसे अपने बजट को साधने का काम लम्बे समय तक कारगर नहीं हो सकता है और देश को इससे विपरीत परिस्थिति में गंभीर आर्थिक चुनौतियों का सामने करना पड़ सकता है.
सरकार द्वारा फिलहाल जिस तरह के कदम उठाये जा रहे हैं उनका विरोध केवल राजनैतिक कारणों से ही किया जा सकता है पर मौसम के चलते लगातार चौथी फसल तबाही के कगार पर पहुँच रही है ऐसी परिस्थिति में यदि सस्ते डीज़ल से किसानों को सिंचाई और अन्य कृषि कार्यों में सहायता दी जा सके तो आने वाले समय में यह देश के ग्रामीण क्षेत्र के भरोसे चलने वाली आर्थिक गतिविधियों को गति देने का काम करता रह सकता है. केंद्र सरकार के कुछ आर्थिक सुधारों की कोशिशों के बाद और अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के चलते आज देश से निर्यात लगातार घटता ही चला जा रहा है तो इस परिस्थिति में सरकार के महत्वाकांक्षी कार्यक्रम मेक इन इंडिया के लिए बाज़ार कहाँ से आएगा ? वैश्विक मंदी के समय अधिकांश खुली अर्थव्यवस्थाएं कुछ अधिक नहीं कर सकती है पर २००८ की मंदी से यदि देश अच्छी तरह से जूझ पाया था तो उसका एक बड़ा कारण हमारे घरेलू बाज़ार की मज़बूती और ग्रामीण भारत की क्रय शक्ति पर निर्भर था. आज विभिन्न सामाजिक योजनाओं में मोदी सरकार द्वारा बड़ी कटौती किये जाने के बाद ग्रामीण भारत की क्रय शक्ति की स्थिति में बड़ा बदलाव आ गया है और किसानों के फसली घाटे और मनरेगा के सीमित होने से ग्रामीण भारत में मांग कम हुई है. इस परिस्थिति में केवल तेल से ही नहीं बल्कि समग्र रूप से भारतीय परिस्थितियों पर विचार कर देश को आगे बढ़ने के बारे में सोचना चाहिए.

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