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नेता, अधिकारी और राजनीति

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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देश में कानूनों की अपने अनुसार व्याख्या करने और उसके माध्यम से ही अपने विरोधियों को निपटाने की कला लगभग सभी राजनैतिक दलों को अच्छे से आती है क्योंकि देश के विभिन्न राज्यों के अधिकारियों के खिलाफ जिस तरह से समय समय पर केवल राजनैतिक विचारधारा में भिन्नता होने के चलते सीमित कार्यवाही की जाती है उससे यही लगता है कि आज सरकारी सेवा में लगे हुए किसी भी व्यक्ति के लिए अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की कोई अहमियत नहीं है. आज़ादी के बाद देश के नौकरशाह केवल संविधान और देश के लिए ही जवाबदेह रहें इस इच्छा के साथ ही इनके लिए ऐसे नियम बनाए गए थे कि वे अपन पदों पर रहते हुए किसी भी तरह की दलगत राजनीति से अलग ही रहते हुए अपने दायित्व का निर्वहन करेंगें जिससे अधिकारियों में निष्पक्षता भी बनी रहे. आज़ादी के कई दशक बाद तक तो यह परंपरा आराम से चलती रही क्योंकि तब तक नेता अधिकारियों के अपने दलीय हितों को साधने के लिए दुरूपयोग नहीं किया करते थे पर आज वह स्थिति नहीं रह गयी है और लगभग सभी सरकारों द्वारा विभिन्न अधिकारियों से अपने काम निकलवाने के लिए उनको सेवानिवृत्ति के बाद अच्छे पदों पर बैठाया भी जाता रहा है.
मध्यप्रदेश के दो आईएएस अधिकारियों द्वारा तमिलनाडु में जयललिता की जीत पर सोशल मीडिया में बधाई देने और नेहरू पर आज हो रहे हमलों पर सवाल खड़े करने के बाद जिस तरह से कार्यवाही की गयी उसे कानूनी तौर पर तो सही माना जा सकता है पर क्या वह अपने आप में इन अधिकारियों के पक्ष से सही कदम कहा जा सकता है ? आज के कानून के अनुसार इनके इस आचरण को सही नहीं कहा जा सकता है पर सरकार का ध्यान कभी उन अधिकारियों पर क्यों नहीं जाता है जो इन्हीं नियमों का उल्लंघन करते हुए सरकार की तारीफें करते रहते हैं ? अपनी बात कहने का हक़ सभी को होना चाहिए और आज जब केंद्र सरकार सार्वजनिक रूप से अधिकारियों के लिए सोशल मीडिया पर प्रभावी उपस्थिति की अभिलाषा रखती है तो क्या उसे यह भी नहीं सोचना चाहिए कि यह मंच किस तरह से उपयोग किया जाये. किसी की तारीफ या विरोध को सीधे सरकार के खिलाफ माना जाना ही गलतियों की शुरुवात होती है क्योंकि जब तक सरकार भी सोशल मीडिया पर चलने वाली गतिविधियों का इस तरह से संज्ञान लेती रहेगी तब तक स्थिति में परिवर्तन संभव नहीं है. आज़ादी के समय बनाये गये कानूनों को क्या आज इंटरनेट के युग में इसी तरह से चलने देना चाहिए या फिर उसमें संशोधन किया जाना चाहिए यह सोचना अब सरकार का काम भी है.
भारत जैसे विशाल देश को सँभालने के लिए क्या सरकार को डिजिटल क्रांति की तरफ एक कदम बढ़ाते हुए एनआईसी के सहयोग से हर जिले के शीर्ष अधिकारियों के लिए एक ऐसा राष्ट्रीय पोर्टल नहीं तैयार करना चाहिए जिसके माध्यम से ये अधिकारी जनता से जुड़ सकें साथ ही इस सम्भावना पर भी विचार किया जाना चाहिए कि क्या निजी क्षेत्र की सहभागिता से इस तरह के पोर्टल को चलाया जाना संभव है ? सरकारों के लिए जनता तक सीधी पहुँच बनाए जाने के लिए इस तरह का मंच एक बेहतर हथियार भी साबित हो सकता है जिस पर आम जनता भी अपनी शिकायतें सीधे कर सकती हो और अपने जिले के शीर्ष अधिकरियों से संपर्क भी कर सकती हो. कानूनी रूप से ऐसा होने के बाद सरकार की पहुँच जनता तक और भी प्रभावशाली हो सकती है तथा अधिकारी क्षेत्र में वास्तव में क्या कर रहे हैं यह भी राज्य तथा केंद्र सरकार की सरकार के सामने आ जायेगा. सोशल मीडिया का सही उपयोग किया जाना भी आवश्यक है पर उसके माध्यम से अपने से भिन्न राजनैतिक झुकाव रखने वाले अधिकारियों के साथ दण्डात्मक कार्यवाही करना भी उचित नहीं का जा सकता है इसलिए अब इस मसले पर देश के नेताओं को सोचना ही होगा जिससे समय आने से पहले ही हमारी व्यवस्था इस तरह की समस्याओं से निपटने के लिए सक्षम हो सके.

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