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मातृभाषा से राजभाषा तक

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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२१ फरवरी १९५२ को पश्चिमी पाकिस्तान द्वारा तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) पर जिस तरह इस्लामिक देश होने के नाते उर्दू को सरकारी भाषा के नाम पर थोपने के प्रयास में प्रदर्शन कर रहे छात्रों पर गोलियां चलवाई थीं जिसमें अब्दुस सलाम, रफ़ीक़उद्दीन अहमद, अब्दुल बरकत और अब्दुल जब्बार की मौत हो गयी थी उसी के चलते बाद में यही उर्दू-बांग्ला का विवाद पाकिस्तान के बंटवारे की नीव रख गया. संयुक्त राष्ट्र पूरी दुनिया में मातृभाषा के समर्थन में २१ फरवरी के दिन मातृभाषा दिवस के रूप में मनाता है जिसमें लोगों और सरकारों से अपनी मातृभाषाओं को अपनाने और उनके विकास की अपेक्षा की जाती है. इस बार जारी अपनी रिपोर्ट में संयुक्त राष्ट्र से फिर से पाकिस्तान में उर्दू को लेकर चलाये जा रहे अभियानों पर सवाल लगाये हैं क्योंकि पाकिस्तान में आज भी लगभग ५२ भाषाओँ को मातृभाषा के रूप में माना जा सकता है और उर्दू किसी भी रूप में उनका स्थान नहीं ले सकती है. उसकी तरफ से पाकिस्तान द्वारा थोपी जा रही उर्दू का विरोध भी रेखांकित किया गया है जो आने वाले समय में पाकिस्तान को एक नयी समस्या में डाल सकता है.
भाषायी विविधता मनुष्यों को जोड़ने का काम कर सकती है पर तभी तक जब सभी मातृभाषाओं के सम्मान की समझ दिखाई जाए क्योंकि जिस बोली को मनुष्य अपने जन्म के साथ जीना शुरू करता है उसकी सोच और समझ भी उसी के अनुरूप तेज़ी से आगे बढ़ती है. दूसरी भाषा में काम करने और पढ़ाई करने के बाद उस स्तर का काम कर पाने में कठिनता होती है और व्यक्ति अपनी प्रतिभा का शत प्रतिशत समाज को नहीं दे सकता है इसलिए मानव की प्रतिभा का सम्मान करने के लिए उसे उसकी अपने मातृभाषा में ही शिक्षा दी जा सके तो उसका सम्पूर्ण विकास हो सकता है और वह पूरी मानव जाति के लिए भी बहुत अच्छे काम कर सकता है. भारत में तो शुरुवात से ही हज़ारों बोलियों का समावेश रहा है और संविधान भी विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओँ को राष्टभाषा हिंदी की तरह बराबरी का दर्ज़ा देता है जिससे तमिलनाडु के भाषायी आंदोलन के बाद से भारत में यह कभी भी कोई समस्या का कारण नहीं बन पाया है. भाषायी समझ को विकसित करने से उसका विकास अच्छी तरह से होता है आज पूरी दुनिया में हिंदी का जो प्रसार हुआ है उसके लिए सरकारी प्रयासों को बहुत श्रेय नहीं दिया जा सकता है क्योंकि हिंदी सिनेमा ने पूरे विश्व में हिंदी को बहुत गौरवान्वित किया है.
भाषा यदि जोड़ने का काम नहीं कर सकती है तो उसके दुष्प्रभावों से बचा भी नहीं जा सकता है और अपनी भाषा के विकास के साथ दूसरे के भाषा का सम्मान करने से ही दूसरों के मन में हम अपनी भाषा के प्रति सम्मान पैदा कर सकते हैं. आज भी देश में हिंदी भाषी क्षेत्र में पैदा हुए लोग आसानी से हिंदी को राष्ट्रभाषा की हैसियत से पूरे देश में लागू किये जाने की पैरवी करते मिल सकते हैं पर अन्य भाषा भाषी क्षेत्रों में जाने पर उनके साथ क्या गति बनती है यह बाहर जाने वाले ही समझ सकते हैं. अच्छा हो कि इस तरह से दबाव बनाने के स्थान पर पूरे देश में इस तरह की व्यवस्था की जानी चाहिए जिसमें विद्यालयों में बच्चों के लिए अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त एक भारतीय भाषा भी सीखने के लिए प्रेरित किया जाये और यदि संभव हो तो विभिन्न भारतीय भाषाओं के सरकारी संस्थानों और विभिन्न एनजीओ को साथ में लेकर दूसरे राज्यों में इस तरह के भाषा केंद्र विकसित किये जाएँ जो वास्तव में देश के नागरिकों को अन्य भाषाओं के साथ जोड़ने का काम कर सकें. राजभाषा का विकास हो पर उसके साथ मातृभाषा के समुचित सम्मान और विकास की बात पर भी ध्यान दिया जाना आवश्यक है तो यह संभव हो सकता है कि आने वाले समय में देश भाषा के स्तर पर किसी भी विवाद से बहुत दूर हो जाये.

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