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मानसून सत्र

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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आज से शुरू हो रहे संसद के मानसून सत्र में एक बार फिर से जनता वही सब होते हुए देखेगी जिसे देखने की आदत उसे पड़ चुकी है यह एक ऐसा खेल है जिसके बारे में यह कहा जा सकता है कि इसमें कोई भी जीतता नहीं पर लोकतंत्र और जनता की हर बार हार हो जाती है. बहुत समय हो गया है जब देश ने संसद में सार्थक और प्रभावी बहस देखी थी आज तो बहस के नाम पर केवल सरकार की टांग ही खींची जाती हैं और सरकारें भी खुद को सही साबित करने में ही लगी रहती हैं ? जो संसद कभी देश ही नहीं पूरी दुनिया के सामने अपने सत्र की गंभीरता के लिए जानी जाती थी जिसमें पूरी दुनिया से जुड़े हुए मसलों पर देश हित में बहस की जाती थी आज वह पहले दिन से ही चंद हंगामा करने वालों की बंधक बन जाया करती है जिससे देश के लिए अति आवश्यक विधायी कार्य भी नहीं पूरे किये जा सकते हैं और जनता से जुडी हुई महत्वपूर्ण योजनायें और विधेयक पारित नहीं हो पाते हैं.

देश है तो संसद है और तभी तक ये सांसद भी हैं पर आज जिस तरह से राजनीति में नैतिक मूल्यों की जगह दिखावा हावी होने लगा है उससे पूरी स्थति पलट सी गयी लगती है. पहले संसद में सांसदों की उपस्थिति सुनिश्चित करायी जाती थी पर आज केवल किसी बड़े मसले पर मत विभाजन के समय ही संसद भरी हुई दिखाई देती है क्योंकि अब सांसदों के पास उस काम से ज्यादा महत्वपूर्ण काम भी होते हैं जिनके लिए उनके क्षेत्र की जनता उनको चुनती है ? संसद में आख़िर जाने से कौन सी बात इन सांसदों को रोकती है यह समझ से बाहर है अगर ये सांसद सत्र में भाग नहीं लेंगें तो उनको चुने जाने से क्या लाभ होने वाला है ? पर आज सभी राजनैतिक दलों के पास इस बात के लिए समय ही नहीं बचा है कि वे संसद में सांसदों की उपस्थिति सुनिश्चित कराएँ और एक बार फिर से संसद की गरिमा को बढ़ने में अपना योगदान भी दें ?

आज आवश्यकता इस बात की है कि सभी सांसदों को संसद में किसी भी मुद्दे पर हंगामा करने से रोकने का काम उनके संसदीय दल के नेता पर होना चाहिए और उपस्थिति के बारे में भी दल के नेता से ही पूछ ताछ की जानी चाहिए. यदि कोई सांसद सत्र के दौरान बिना उचित कारण के अनुपस्थित रहें तो उनके ख़िलाफ़ आर्थिक दंड का भी प्रावधान किया जाना चाहिए और ७५ % से कम उपस्थिति वाले सांसदों के वेतन भत्ते में ५० % की कटौती की जानी चाहिए और उनके सत्र के दौरान दिल्ली प्रवास का पूरा पैसा उनके वेतन से काट लिया जाना चाहिए . जब पूरे देश में काम नहीं तो वेतन नहीं की बात की जाती है तो देश के सामने आदर्श के रूप में अपने को स्थापित करवाने का प्रयास करने वाले इन नेताओं को बिना काम दिए वेतन कैसे दिया जा सकता है ? जैसे क्रिकेट में टीम के प्रदर्शन के आधार पर कप्तान की मैच फीस में कटौती कर ली जाती है वैसे ही किसी भी दल के नेता के वेतन और भत्तों में कटौती करनी चाहिए अगर उनके सांसद संसद को पूरा समय नहीं दे रहे हों ? पर ऐसे नियम कौन बनाएगा क्योंकि संसद केवल एक मुद्दे पर ही एकमत होती है जब सांसदों के वेतन और भत्तों में बढ़ोत्तरी करनी होती है और अपने आर्थिक हितों पर कौन चोट करना चाहेगा भले ही देश के उससे कितना भी नुक्सान क्यों न हो रहा हो ?

मेरी हर धड़कन भारत के लिए है…

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