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मोदी की सांसदों को नसीहत

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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निरंजन ज्योति मामले के ठीक पंद्रह दिनों बाद भाजपा संसदीय दल की बैठक में एक बार फिर से पीएम मोदी को जिस तरह से अपने ही सांसदों को चेतवानी जारी करते हुए कहना पड़ा है कि वे लक्ष्मण रेखा को न लांघें उससे यही लगता है कि सीधे संघ की पृष्ठभूमि से आये हुए लोगों को मोदी का अभी तक का दिखाया जा रहा उदार रवैय्या पसंद नहीं आ रहा है और वे उस रवैय्ये को बदलने के लिए ही इस तरह से दबाव बनाने में लगे हुए हैं. दुर्भाग्य की बात यह है कि जब संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा है और उसमें कई गंभीर मुद्दों पर चर्चा किये जाने और उन्हें पारित करवाने की सरकार की योजना थी तो हंगामे के कारण वह हो पाना असंभव दिखाई देने लगा है. आज जब भाजपा के पास स्पष्ट बहुमत और तेज़ तर्रार छवि वाले पीएम और पार्टी अध्यक्ष भी हैं तो वह अपने सांसदों पर आखिर किस तरह से नियंत्रण नहीं रख पा रही है यह भी सोचने का विषय है.
आने वाले समय जिस तरह से भाजपा को यूपी बिहार जैसे राज्यों में चुनाव में उतरना है तो उसके लिए की जा रही व्यापक तैयारियों के अंतर्गत भी भाजपा इस तरह की बयानबाज़ी को ज़्यादा भाव नहीं दे रही है क्योंकि सुशासन के नाम पर जिस तरह से यूपी ने पूरी तरह से एकमत होकर भाजपा को लोकसभा में पूरा समर्थन दिया तो आने वाले समय में उसके पास उस पर खरा उतरने का दबाव भी है और जितना प्रचंड समर्थन उसे मिला था अब उसे बचाये रखना भी उसके किये कठिन साबित होने वाला है. ऐसी परिस्थिति में अपने मंदिर आंदोलन के समय के कैडर को फिर से पुनर्जीवित करने और उनको क्षेत्र में उतारने के लिए सुसाशन कहीं से भी कारगर साबित नहीं दिख रहा है तो भाजपा यूपी में अपनी उसी हिंदुत्व वाली छवि के माध्यम से लोगों के जुड़ाव को बढ़ाना चाहती है जिसके लिए उसके नेताओं की तरफ से विवादित बयान देकर मामले को गरमाए रखने की रणनीति अपनायी जा रही है और उसके माध्यम से वह ज़मीनी स्तर पर अपने को मज़बूत करने में लगी हुई है.
ऐसे में मोदी का नसीहतें देते रहना और सांसदों के साथ भाजपा नेताओं का अपने हिसाब से बयान देते रहना एक नीति का ही हिस्सा अधिक लगता है पर इससे मोदी की उस सख्त प्रशासक वाली छवि को बहुत आघात भी लगता है जिसे उन्होंने अपने गुजरात कालीन समय में बनाया था. इस तरह की रणनीति आखिर किस हद तक भाजपा की मजबूरी है या फिर पार्टी के अंदर ही मोदी को कमज़ोर करने कि कोशिशें शुरू की जा चुकी हैं इस बातों का जवाब मिलने में अभी समय है पर विकास के नाम पर वोट मांगकर सत्ता में आये स्वीकार्य नेता के लिए यह बहुत बड़ी कमज़ोरी के रूप में सामने आ रही है. कभी भाजपा के थिंकटैंक रहे गोविंदाचार्य भी इस मामले को मोदी के निरंकुश होते जाने से उन्हें वे इंदिरा गांधी के जैसे दिखाई देने लगे हैं सत्ता में स्पष्टता के साथ निरंकुशता का समावेश अच्छे से अच्छे नेताओं के पतन का कारण बन जाया करता है. अब इस मामले में मोदी किस हद तक पकड़ बनाये रख पाते हैं यह तो आने वाले दिनों में पता चलेगा पर क्या वे यूपी बिहार की राजनीति के चक्कर में अपनी विकास परक छवि को हिंदुत्व वाली छवि में बदलने को तैयार हैं ?

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