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राष्ट्रपति और राजनीति

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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निर्वाचित राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के जीतने पर एक बार फिर से उनके दलित होने को मुखर रूप से समाचारों में रेखांकित किया जा रहा है, जबकि उनके जीत जाने के बाद इस तरह की बातों की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए थी। निश्चित तौर पर अपने प्रत्याशी को जिताने लायक संख्या होने पर कोई भी सरकार या पीएम अपनी पसंद के कम समस्या पैदा करने वाले व्यक्ति को ही राष्ट्रपति पद पर देखने के आकांक्षी होते हैं। साथ ही देश के राजनीतिक पटल पर भी अपने समीकरणों को साधने की कोशिशें करते हुए देखे जाते हैं, इसलिए यदि पीएम मोदी और भाजपा की तरफ से ऐसा किया गया तो कोई बड़ी बात नहीं है। वैसे भी पीएम मोदी के बारे में कहा जाता है कि उन्हें असहमति के शब्द अच्छे नहीं लगते। आज किसी को भी इस पद तक पहुंचाने की स्थिति में मज़बूत पीएम मोदी ने कोविंद का चुनाव करके एक तरह से अपनी स्थिति को और मज़बूत ही किया है। सरकार किस व्यक्ति को इस पद पर देखना चाहती है, यह उसकी मर्ज़ी है। उस पर सवाल उठाने का कोई मतलब भी नहीं बनता। पर दलित होने के साथ विवादों से दूर रहना कोविंद के लिए उस समय बहुत काम आया, जब पीएम मोदी उनके जैसे व्यक्ति को खोज रहे थे।

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देश में राष्ट्रपति पद पर बैठे राजनीतिक व्यक्तित्वों में से कई लोगों ने तो अपने पद के साथ पूरी तरह से न्याय किया, वहीं कई लोगों की तरफ से केवल सरकार के रबर स्टैम्प की भूमिका ही निभाई गयी। एक समय इंदिरा गांधी की हां में हां मिलाने वाले ज्ञानी जैल सिंह ने भी राजीव गांधी की मज़बूत सरकार के लिए परेशानी भरे पल पैदा कर देने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।  देश के पहले दलित राष्ट्रपति केआर नारायणन ने भी जिस तरह से इस पद की गरिमा को बचाये रखने के लिए लगातार कोशिशें की थीं, वे अपने आप में एक उदाहरण हैं। आमतौर पर पार्टी में सक्रिय नेताओं को जीवन के अंतिम चरण में राष्ट्रपति बनाकर पुरस्कार देने की परंपरा सी चलती आयी है। पर इस मामले में सबसे चौंकाने वाला निर्णय कमज़ोर कहे जाने वाले पीएम मनमोहन सिंह की तरफ से लिया गया था। जब वे राजनीतिक स्तर पर संसद से सड़क तक घिरे हुए थे, तब भी उन्होंने अपनी सरकार में दूसरे नंबर की हैसियत रखने वाले और विभिन्न विपरीत परिस्थितियों में उनकी सरकार को संकट से उबारने वाले लम्बे राजनीतिक जीवन के अनुभवी प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति पद के लिए आगे किया था।
प्रणब मुखर्जी का कार्यकाल अपने आप में बहुत अच्छा कहा जा सकता है। क्योंकि उन्होंने देश में पहली बार स्पष्ट बहुमत वाली भाजपा सरकार और पीएम मोदी के साथ तीन वर्षों से भी अधिक समय तक काम किया और कहीं से भी सरकार या विपक्ष के साथ किसी भी तरह के अनुचित व्यवहार या पक्ष का पोषण नहीं किया। बिहार के राज्यपाल के रूप में कोविंद का कार्यकाल भी बहुत अच्छा रहा, तभी जेडीयू ने विपक्ष से अलग चलते हुए उनके लिए वोट करने के बारे में सोचा था। कोविंद से भी पूरा देश निष्पक्ष रूप से अपनी राय रखने और सरकार के साथ विपक्ष व देश के मौजूदा हालातों पर नज़र रखने की अपेक्षा रखता है। वैसे तो राष्ट्रपति के लिए करने को कुछ ख़ास नहीं होता, फिर भी कोविंद से देश यह आशा तो कर ही सकता है कि अब वे केवल संघ, भाजपा या मोदी की बजाय पूरे देश के राष्ट्रपति बनकर उसी तरह का आचरण दिखाएंगे जैसा उनके पूर्व प्रणब मुखर्जी द्वारा दिखाया गया।

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