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देश के राजनैतिक परिदृश्य पर लम्बे समय से इस बात को लेकर ही बहस चल रही है कि राजनीति को अपराधिक और असामाजिक प्रवृत्ति के लोगों से कैसे बचाया जाये पर देश में सक्रिय लगभग हर दल इस तरह की कोरी बातें करने के अलावा कुछ भी करता हुआ नहीं दिखाई देता है क्योंकि आज के समय की चुनावी राजनीति में विचारधारा के स्तर पर कोई कुछ भी सोचना और करना नहीं चाहता है केवल चुनाव जीतने लायक चेहरों और जातीय गोटियों में किसी भी तरह फिट होकर कुछ राजनैतिक लाभ दिलवाने वाले तत्वों से हाथ मिलाने में किसी भी दल को कोई दिक्कत नहीं होती है. पिछले वर्ष आम चुनावों में जिस तरह से बिहार के जेडीयू नेता साबिर अली के मोदी की तारीफ करने और पार्टी से निकाले जाने के बाद भाजपा के निकट आने पर मुख़्तार अब्बास नक़वी ने आतंकी बताकर खुला विरोध जताया था अब उसका भी कोई मतलब नहीं रह गया है क्योंकि आज भाजपा को बिहार में एक नया मुस्लिम नेता ही चाहिए है जो बिहार की छवि के अनुरूप कुछ करने का दम रखता हो और समभवतः अपने आप भाजपा के नज़दीक आने वाले साबिर अली इससे अच्छे विकल्प के रूप में सामने नहीं लाए जा सकते थे.
देश की राजनीति में अपराधियों और अराजक तत्वों के साथ पर लगभग सभी दल एक जैसा ही सोचते हैं जब तक इस तरह का कोई भी विवादित व्यक्ति दूसरे दल में होता है तब तक उससे बड़ा सामाजिक अपराधी कोई नहीं होता है पर पार्टी विशेष में आस्था दिखाने के बाद अचानक से ही वह इतना पवित्र हो जाता है कि उसकी तारीफें भी शुरू कर दी जाती हैं तो यह भारतीय राजनीति के उस घटियापन के नमूने को ही दर्शाता है जिसमें सदन के अंदर बैठे हुए यही नेता संविधान, कानून, देश प्रेम और भी न जाने किन किन बातों की कसमें खाया करते हैं पर बाहर निकलते ही उन्हें कुछ भी याद नहीं रहता और वे स्पष्ट रूप से मतिभ्रम का शिकार ही लगते हैं. यह कहा जा सकता है कि सत्ता ऐसी होती है कि वह बड़े बड़ों को आदर्शों के पथ से बहुत जल्दी ही पद्दलित कर देती है अस्थायी सफलता किस तरह से किसी दल के नैतिक मानदंडों पर अचानक से बाज़ारू नर्तकी बन जाती है और पार्टियों के नेता उसकी ताल पर मंत्रमुग्ध होकर नाचने लगते हैं और साथ ही लोकतंत्र को अपराधियों से मुक्त करने की लम्बी चौड़ी बातें भी किया करते हैं.
साबिर अली से नक़वी का टकराना उनके हितों पर चोट के कारण भी हो सकता है पर राजनीति में सुधार करने की कसमों के साथ संघ के ध्वज के नीचे खड़े होकर “तेरा वैभव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहें न रहें” का गान करने वाली भाजपा के सामने ऐसी क्या मजबूरी है कि वह साबिर अली का इस्तेमाल करने का प्रयास कर रही है ? साबिर अली और नक़वी के अपने हित हो सकते हैं और आने वाले समय में बिहार से देश की राजनीति की नयी राह फिर से निकलने की सम्भावनाएँ दिखायी दे रही हैं इन चुनावों के परिणाम एक बार फिर से यही दिखाने वाले हैं कि क्या बिहार जिसने एक दशक में प्रगति करने का स्वाद चखा है वह अपने जातीय पूर्वाग्रह से बाहर निकल पाया है या फिर मोदी पिछड़े हैं और मांझी अति पिछड़े वह आज भी फिर से उसी सोच की तरफ बढ़ने जा रहा है ? पिछले वर्ष जिस तरह आम चुनावों में पूरे उत्तर भारत में जिस तरह से मोदी के नाम पर भाजपा ने जातीय दुष्चक्र को पूरी तरह से तोड़ने में सफलता पायी थी संभवतः आज भाजपा को ही उन मोदी और उनके विकास के दावों पर भरोसा नहीं रह गया है तभी वह इस बार बिहार को एक बार फिर से उसी जातीय दलदल में उलझाने की तैयारी में लगी हुई दिखाई दे रही है.
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