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रिज़र्व बैंक- राजनीति और विकास का मॉडल

***.......सीधी खरी बात.......***
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नीतिगत मुद्दों पर मोदी सरकार के साथ शुरू से ही मतभेद रखने वाले रिज़र्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने एकबार फिर से सरकार की महत्वाकांक्षी योजना “मेक इन इंडिया” पर सीधे सवालिया निशान लगा दिया है. देश के नीति निर्धारक बैंक के प्रमुख होने के नाते राजन के पास उनके अनुभव के साथ वैश्विक मामलों में जानकारी तो है पर सरकार से इतनी असहमति अपने आप में एक बड़ी बात है क्योंकि आमतौर पर अभी तक सरकार के साथ रिज़र्व बैंक के अध्यक्ष के सुर मिले हुए ही लगते हैं और आवश्यकता पड़ने पर सरकार भी उनके साथ नीतिगत मुद्दों पर चर्चा किया करती है. आज जब ताज़ा रिपोर्ट में औद्योगिक विकास दर कम होने की खबर है तो ऐसे किसी भी बड़े कार्यक्रम के प्रति राजन का संदेह जताना पूरी तरह से गलत भी नहीं हो सकता है. वैश्विक स्तर पर सरकार को देश की आर्थिक स्थिति को मज़बूत करने के हर प्रयास का समर्थन किया जाना चाहिए पर आज पूर्ण बहुमत की भारत सरकार जिस तरह से उदारीकरण को भारतीय परिप्रेक्ष्य से हटकर दुसरे देशों के आर्थिक मॉडल के अनुसार चलाने को लालायित दिखाई दे रही है तो इस तरह की चिंताएं सामने आना स्वाभाविक भी है.
२००८ की वैश्विक मंदी से अगर भारत बिना किसी बड़े नुकसान के उबर पाया था तो उसके पीछे मनमोहन सरकार की वैश्विक आर्थिक नीतियों के प्रति देश में स्वयं एक तंत्र विकसित होने देने की छूट भी शामिल थी. भारत हर मामले में चीन की बराबरी नहीं कर सकता है क्योंकि वहां पर सख्त कानूनों के आगे किसी की भी नहीं चलती है और भ्रष्टाचार पर बड़े से बड़े लोगों को फांसी पर लटका दिया जाता है जब तक हमारे देश में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बड़ी सफलता नहीं मिलती है तो केवल सरकार की अच्छी मंशा के साथ ही सब कुछ ठीक नहीं किया जा सकता है. सरकार की नियति ठीक है पर अब जब नीतियों की बात है तो देश के हर क्षेत्र को पूरी तरह से खोल देने के प्रयासों को संभलकर चरणबद्ध तरीके से लागू करने की आवश्यकता है. आज के परिप्रेक्ष्य में जब जापान से एक बार फिर से मंदी की आहट सुनाई देने लगी है तो क्या देश के आधारभूत मामलों में उस पर बहुत अधिक निर्भरता कभी धन की कमी आने से प्रभावित नहीं होने लगेगी ? केवल एक सेक्टर के लिए सरकार का इस तरह से काम करना किसी भी तरह से संतुलन भरी नीति की तरफ इशारा नहीं करता है संभवतः यही मसले हैं जिन पर राजन को समस्या दिखाई देती है.
भाजपा एक समय में आर्थिक नीतियों को लेकर मनमोहन सरकार को घेरने के हर प्रयास के बाद आज जब मोदी के नेतृत्व में सरकार उन्हीं सुधारों और नीतियों को आगे बढ़ाना चाहती है तो उसकी दोहरी राजनीति भी सामने आने लगी है और सच्चाई यह है कि बीमा विधेयक पर सरकार को जब तक कांग्रेस का समर्थन नहीं मिलेगा तब तक वह पारित नहीं हो सकता है. कांग्रेस भी इसे लम्बे समय से पारित करवाना चाहती है पर अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह की इस मुद्दे पर पार्टी में अधिक नहीं सुनी जाएगी और सरकार को अगले सत्र तक इसके लिए प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है जिससे मोदी और भाजपा को भी उनकी उसी राजनीति का स्वाद चखाया जा सके जिसके चलते देश के आर्थिक विकास की रफ़्तार कम रही पर भाजपा अपनी राजनीति चमकाने के चक्कर में देश हितों के साथ लगातार खिलवाड़ करती रही. आज गेंद कांग्रेस के पाले में ज़रूर है पर वह भी फिलहाल केवल राजनीति करने के मूड में दिखाई दे रही है क्योंकि जब सरकार इस बीमा विधेयक को पारित नहीं करवा पायेगी तो कांग्रेस पर हमला करेगी फिर कांग्रेस उस पर आरोप लगाएगी कि इस तरह का विधेयक तो भाजपा के कारण २०११ में ही पारित नहीं हो पाया था. आर्थिक मसलों पर देश के दोनों बड़े दलों को एक सीमा तक ही राजनीति करनी चाहिए जिससे देश को सही गति दी जा सके पर इस मुद्दे पर भाजपा अपनी राजनीति तो कर ही चुकी है अब देखना यह है कि कांग्रेस इसे किस तरह से लेती है.

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