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रेल में चुनावी खेल शुरू

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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रेलवे की आर्थिक सेहत को देखते हुए जिस तरह से पीएम नरेंद्र मोदी और रेल मंत्री सदानंद गौड़ा ने पिछली सरकार द्वारा सुझाये गए स्वरुप को पूर्ण रूप से रेलवे के हित में मानते हुए लागू करने की घोषणा की थी अब उस पर राजनैतिक छाया पड़नी शुरू हो चुकी है. यह बात पूरा देश जनता है कि परिचालन और विकास से जुड़े खर्चों के बारे में कोई स्थायी नीति न होने के कारण रेल को देश में राजनीति का एक बड़ा साधन माना जाता रहा है और जिस तरह से अब उपनगरीय सेवा में की गयी बढ़ोत्तरी को पूरी तरह से वापस ले लिया गया है उससे आर्थिक मोर्चे पर कोई अच्छा सन्देश भी नहीं जाता है. यह सही है कि किराये के निर्धारण में रेलवे बोर्ड ही मंथन किया करता है पर उस पर अंतिम निर्णय सरकार को ही लेना होता है क्योंकि यह सरकार ही होती है जो जनता और देश के लिए जवाबदेह होती है और उसे ही वोट मांगने के लिए जनता के पास जाना पड़ता है.
सरकार के पास पूर्ण बहुमत होने से जहाँ इस तरह के मसलों पर देश और आर्थिक विशेषज्ञ उससे कड़े और प्रभावी क़दमों की अपेक्षा रखते हैं उस स्थिति में केवल महाराष्ट्र और दिल्ली के विधान सभा चुनावों को देखते हुए लिया गया यह फैसला भी क्या इस सरकार को अन्य पूर्ववर्ती सक्रारों के समकक्ष ही खड़ा नहीं कर देता है ? यह सही है कि मुंबई और देश के अन्य महानगरों में दैनिक यात्रियों कि बहुत बड़ी संख्या है पर क्या इन स्थानों पर चलने वाली इन लोकल ट्रेनों को केवल राजनैतिक कारणों से देश के आर्थिक परिदृश्य से अलग रखा जा सकता है ? यह भी सही है कि लम्बी दूरी की सेवाओं पर लागू इस बढ़ोत्तरी को जिस तरह लोकल सेवाओं पर भी लागू कर दिया गया क्या वह रेल मंत्रालय की अदूरदर्शिता नहीं थी क्योंकि दोनों से सेवाओं के लिए अभी तक जिस तरह से किराये का निर्धारण किया जाता रहा है उस तरह से ही इस बार भी बढ़ोत्तरी की जानी चाहिए थी. अच्छा होता कि रेल किराया प्राधिकरण को पूर्ण रूप से स्वायत्त करने की संप्रग सरकार की कोशिश को पूरी तरह से लागू कर मामले को सदैव के लिए ख़त्म कर दिया जाता.
संभव है कि इस वर्ष के अंत तक दिल्ली और मुंबई के चुनाव हो जाने के बाद अगले रेल बजट या उससे पहले ही रेल किराया प्राधिकरण के माध्यम से किराये में वापस लिए गए इस कदम को फिर से बढ़ा दिया जाये पर इससे एक बात सामने आ ही गयी है कि कोई भी सरकार और पीएम चाहे कितने भी सख्त होने के दावे कर लें पर समय आने पर उन्हें भी राजनीतिक दबाव के आगे घुटने टेकने को मजबूर होना पड़ता है. अच्छा होता कि इस वृद्धि को पूरी तरह से वापस लेने के स्थान पर उसमें पुराने नियम के तहत कुछ बढ़ोत्तरी अवश्य ही की जाती जिससे इन उपनगरीय सेवाओं में होने वाले घाटे को कुछ हद तक कम ही किया जा सकता. आने वाले समय में इस घाटे में और भी अधिक अंतर आने वाला है तो इस तरह की परंपरा के बाद इन शहरों के नेता अपने अनुसार बातें मनवाने के लिए सदैव तैयार बैठे रहने वाले हैं. इस आदेश के बाद भी पीएम और रेल मंत्री को प्रस्तावित रेल बजट में इस गलती को चुनाव से अलग रखकर सुधारने के बारे सोचना ही चाहिए.

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