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विश्वविद्यालय और रोज़गार

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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देश भर के केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के कुलपतियों के सम्मलेन में बोलते हुए जिस तरह से पीएम मनमोहन सिंह ने यह सच स्वीकार किया है कि देश के विश्वविद्यालय रोज़गार परक शिक्षा दे पाने में सफल नहीं हो पा रहे हैं उसके बाद यह माना जा सकता है कि आने वाले समय में सरकार की तरह से देश में उच्च शिक्षा और अनुसन्धान परक शिक्षा पर कुछ अधिक ध्यान दिया जा सकता है. पूरे देश के हर क्षेत्र में आज भी जिस तरह से अंग्रेजों के बनाये हुए कानूनों के सहारे ही सब कुछ चलाने की कोशिशें की जा रही हैं उस स्थिति में गुणवत्तापरक शिक्षा और अनुसन्धान आधारित विषयों पर काम करने वाले विशेषज्ञों की कमी देश में हमेशा से ही बनी हुई है क्योंकि अंग्रेजों ने भारतीय शिक्षा को अपने लिए बाबू पैदा करने वाले स्वरुप के रूप में विकसित किया था. आने वाले भविष्य में चुनौतियों का सामना करने के लिए देश के युवाओं और विश्वविद्यालयों को तैयार करने के लिए अब बड़े स्तर पर बदलाव की आवश्यकता है क्योंकि केवल सम्मेलनों में चिंताएं प्रकट करने और धरातल पर परिवर्तन लाने की दिशा में कुछ न करने की इच्छा ने ही आज देश को इस स्तर तक पहुंचा दिया है कि कहीं से भी हम विश्व स्तरीय शिक्षित युवाओं को तैयार नहीं कर पा रहे हैं.
देश में शिक्षा और अनुसंधान के इतने अवसर भी उपलब्ध कराये जाने चाहिए जिससे उच्च शिक्षा प्राप्त लोग अच्छे अवसरों की तलाश में देश से ही पलायन न करने लगें. आज देश के उच्च शिक्षा, चिकित्सा, प्रबंधन और प्रौद्योगिकी संस्थानों से जो भी टापर निकलते हैं उनमें से अधिकांश अच्छे अवसरों की तलाश में आगे बढ़ने के लिए विदेशों में चले जाते हैं जिससे भी देश के धन से तैयार किये गए इन प्रतिभाशाली युवाओं का देश सही तरह से उपयोग नहीं कर पाता है और वे भी देश के लिए कुछ भी सही दिशा में कर पाने में पूरी तरह से असफल रहा करते हैं. सबसे पहले देश में अनुसंधान के इतने अवसर प्रदान करने की व्यवस्था की जाने चाहिए जिससे इन लोगों का पलायन रुक सके और उसके बाद किसी भी स्तर पर देश की प्रतिभाओं के पलायन पर आर्थिक दंड लगाकर रोक लगाये जाने की भी व्यवस्था होनी चाहिए पर किसी भी तरह के आर्थिक दबाव को बनाने से पहले ही यहाँ पर उन्हें वो हर अवसर भी दिए जाने के बारे में सोचा जाना चाहिए जिसके लिए वे बिना कुछ सोचे समझे ही देश से निकल जाना चाहते हैं.
यदि देश में शिक्षा का स्तर वास्तव में सुधार जाना है तो सबसे पहले ज़मीनी स्तर से साक्षरता और गुणवत्तापरक शिक्षा को एक दूसरे से पूरी तरह से अलग करना ही होगा क्योंकि केवल किसी भी तरह से कुछ भी चलाने की नीति से अब देश को कुछ हासिल होने वाला नहीं है और अब इसके लिए समग्र प्रयासों की आवश्यकता है इस स्थिति में जब हमारे पास सीमित संसाधन ही उपलब्ध हैं तो इस स्थिति में उनके बेहतर प्रबंधन और कारगर तरीके से नियमानुसार शिक्षा देने से ही कुछ किया जा सकता है. देश में सत्ता के शीर्ष से हमेशा से ही इस तरह से केवल चिंता ही व्यक्त की जाती रही है. संप्रग सरकार ने भले ही मजबूरी और दबाव में ही सही पर कुछ पुराने पड़ चुके कानूनों में बदलाव की दिशा में काम करना शुरू तो किया है पर पुराने कानूनों को जिस स्तर पर बदलाव की ज़रुरत है अभी वह नहीं पूरी हो पा रही है ऐसी स्थिति में अब सार कुछ देश की संसद पर ही टिक जाता है कि सभी राजनैतिक दल मिलकर इस बारे में सोचें और अच्छे प्रयासों से आने वाले समय में आने वाली चुनौतियों के लिए देश को तैयार करने का काम करने की दिशा में सोचन शुरू करें.

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