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निर्भया की मौत के बाद देश के कानून में बलात्कारियों को कड़ी सजा देने के लिए बनाये गए पाक्सो कानून के बाद भी महिलाओं/ बच्चियों के साथ होने वाले यौन अपराधों की स्थिति में कुछ बदलाव दिखाई नहीं दिए जबकि उस समय भी सरकार द्वारा यही कहा गया था कि कड़े कानून होने से लोग इस अपराध को करने के बारे में सोचेंगें भी नहीं पर रसाना और उन्नाव की बड़ी चर्चित घटनाओं के बाद जिस तरह से सत्ताधारी दल के लोगों की संलिप्तता के चलते पीड़ितों को न्याय मिलने से रोकने की कोशिशें की जाती रहीं उसके बाद केंद्र सरकार दबाव में आ गयी और उसकी परिणिति एक और कानूनी संशोधन के रूप में सामने आती दिखाई दी है. यह समय क्या हमें एक देश और समाज के रूप में यह फिर से सोचने को मजबूर नहीं करता है कि इतने कानूनी प्रयासों के बाद भी आखिर ये अपराध रुकने का नाम क्यों नहीं लेते हैं ? आखिर वे कौन से कारण हैं जिनके चलते समाज में आज भी वो लोग उसी संख्या में मौजूद हैं जो मनुष्यों के विकास के समय से होते रहे हैं ?
इस समस्या से निपटने के लिए सबसे पहले तो जिस सामाजिक चेतना को बढ़ाये जाने की आवश्यकता है हम उसमें पूरी तरह से निकम्मे साबित हो रहे हैं क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं को घर, समाज, कार्यालयों और सार्वजनिक स्थलों पर जिस तरह का व्यवहार झेलना पड़ता है उसको सुधारने की दिशा में आज भी कोई कदम नहीं उठाये जा रहे हैं जिससे समाज में शिक्षितों की संख्या बढ़ने के बाद भी समाज की रूढ़ियों के चलते आज भी महिलाओं को पुरुषों से निम्न स्तर का समझा जाता है. आज भी हर आम भारतीय परिवार की प्राथमिकता परिवार की हर पीढ़ी में एक लड़के की चाहत से लड़कियों की स्थिति कमज़ोर होना शुरू हो जाती है. बेटियों के साथ जो समाज गर्भ से ही दोहरा व्यवहार करना शुरू क्र देता हो उससे किसी कानून के डर से अपराधों की तरफ न मुड़ने की आशा करना हो मूर्खता है और हम केवल कानून के सहारे इस सामाजिक बुराई से लड़ने की खोखली कोशिशें करने में ही अपने कर्तव्य को पूरा मान लेते हैं?
आज समस्या जिस स्तर पर है पर उससे निपटने के लिए हमें कानूनी स्तर पर प्रयास करने के स्थान पर सामजिक स्तर पर अधिक सक्रिय होने की आवश्यकता है और धरातल पर समाज की मानसिकता को बदलने के साथ महिलाओं के लिए पुलिसिंग को सुधारने की दिशा में गंभीरता गंभीरता से सोचने की ज़रुरत है यह सही है कि अपराधों को पूरी तरह से समाप्त नहीं किया जा सकता है पर यदि आने वाली पीढ़ी में लड़कियों और महिलाओं को बराबरी के दर्ज़े पर रखने की कोशिश अभी से शुरू की जाये तो दो तीन दशकों में इसके परिणाम सामने आ सकते हैं. केवल कानूनों को कड़ा करते जाने से क्या समाज की मानसिकता को बदला जा सकता है आज यह प्रश्न अधिक महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि कानून किसी के घर और समाज में घुसकर मानसिकता में बदलाव नहीं कर सकता है क्योंकि उसकी अपनी सीमायें भी हैं. जब तक समाज की मानसिकता में बदलाव नहीं होगा और यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते नारों से निकल कर दिलों में नहीं आएगा और जब तक कन्या पूजन नवरात्रि से आगे बढ़कर समाज की दिनचर्या का हिस्सा नहीं बनेगा तब तक बच्चियों और महिलाओं के प्रति होने वाले इन अपराधों से निपटा नहीं जा सकेगा।
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है…
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