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यह अच्छा ही हुआ कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस बात पर विचार करने के लिए सैन्य अधिकारियों के तीन बच्चों की मांग को स्वीकार कर रक्षा मंत्रालय से जवाब माँगा है और यह भी पूछा है कि सैनिकों के मानवाधिकार को सुरक्षित रखने के बारे में सरकार और रक्षा मंत्रालय की क्या नीति है ? आज जब कश्मीर समेत देश के हर हिस्से में सुरक्षा बलों और पुलिस के साथ आम नाराज़ लोगों, माओवादियों, आतंकियों और आतंक का समर्थन करने वाले पत्थर बाज़ों से निपटने में सरकारें बिना किसी नीति के काम कर रही हैं तो क्या इस परिस्थिति में अब यह सोचना का समय नहीं है कि सेना, अर्धसैनिक बलों और पुलिस में भी हमारे देश के जवान ही भर्ती होते हैं जो विषम परिस्थितियों में अपने कर्तव्य का निर्वहन करते रहते हैं तो क्या उनके भी आम मानव का जैसे अधिकारों का ध्यान नहीं रखा जाना चाहिए ? सोचा जाना चाहिए कि क्या पत्थरबाजों से अपनी जान बचाने के लिए आत्मरक्षा में चलायी गयी गोलियों में पत्थरबाजों के मरने पर सैन्य अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज़ करना उचित है ? अब समय आ गया है कि सरकार स्पष्ट करे और यदि इस दिशा में अभी तक देश में कोई नीति नहीं है तो संसद में अविलम्ब एक विधेयक लाकर हमारे जवानों की सुरक्षा और मानवाधिकारों की रक्षा करने वाले कानून को पारित कराये जिससे देश की सीमा और अशांत क्षेत्रों में काम करने वाले सैनिकों समेत उनके परिवार के लोग भी राजनैतिक दबाव या लाभ में दर्ज़ होने वाले मुक़दमों से बच सकें .
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