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माननीय सांसदों ने बजट सत्र के ११५ घंटे हंगामे में बर्बाद कर दिए कुल मिलाकर लोकसभा में ३६.६ % और राज्यसभा में २८ % समय इस तरह के हंगामे की भेंट चढ़ गया. अगर संसद में कोई निर्णय लेने के स्तर तक हमारे नेता पहुँच ही नहीं सकते तो उन्हें वहां पर जाने की क्या आवश्यकता है ? अच्छा हो कि उन्हें चुने जाने के साथ ही वेतन भत्तों के स्थान पर सीधे पेंशन ही दी जाये क्योंकि ये अपने किसी भी काम को ठीक ढंग से नहीं कर पाते हैं फिर इनके ऊपर हम जनता के खून पसीने की कमाई बहाने का कोई लाभ है भी क्या ? एक बात की आवश्यकता तो तुरंत है ही कि जब इनका भुगतान किया जाये तो हंगामे के कारण जितने घंटे काम नहीं हुआ हो उसका और संसद को चलने में व्यय हुए रुपयों को इनके वेतन भत्तों से काट कर बचे हुए पैसों से ही इन सभी को बराबर का भुगतान कर दिया जाये. जब किसी राज्य में कर्मचारी अपनी वाजिब मांग के लिए हड़ताल करते हैं तो इन नेताओं को “काम नहीं तो वेतन नहीं” का नारा खूब याद आता है पर ख़ुद पर जब आती है तो ये माननीय बिना किसी काम के ही पूरा हिंदुस्तान अपनी जेब में रखना चाहते हैं ?
देश ने बहुत ढो लिए हैं ऐसे नेता अब हमें काम करने वाले नेता चाहिए जो संजीदगी से नियमों के अनुसार सदनों को चलने दें. हमें नहीं आवश्यकता है छात्र नेताओं सरीखे केवल उग्रता और उद्दंडता प्रदर्शित करने वाले नेता ? यह सही है कि देश में बहुत सारे काम ऐसे भी होते रहते हैं जिन पर तुरंत ही ध्यान दिए जाने की आवश्यकता होती है और उनको नियमानुसार सदन में उठाया भी जाना चाहिए पर हर बात में हंगामे से क्या हासिल होता है ? सरकारें बहस की असहज स्थिति से बच जाती हैं और केवल शोर शराबे में सारी बातें खो सी जाती हैं. हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं पर क्या हम लोकतान्त्रिक भावनाओं की कद्र करते हैं ? क्यों हमारे नेता अचानक ऐसा व्यव्हार करने लगते हैं जिसका कोई औचित्य नहीं होता है ? नैतिकता की बड़ी बड़ी बातें करने वाले माननीय किस नैतिक मानदंड के तहत बिना काम किया दिल्ली में राजसी सुविधाएँ भोगते रहते हैं ? क्यों नहीं वे हमारा वह काम करते हैं जिसके लिए हम इन्हें वेतन देते हैं ? देश बिना बिजली के गर्मी में रह लेता है पर इन माननीयों के ए सी की बिजली पूरी दे देता है ? ऐसा क्यों, किसलिए, किसके लिए और कब तक ?
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है…
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