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एक प्रतिष्ठित विश्विधालय के एक शोध छात्र की आत्म हत्या ने सम्पूर्ण देश में भूचाल ला दिया है। जहाँ एक ओर विभिन्न राजनैतिक दल अपनी विचार धाराओं को सही ठहराने का प्रयास कर रहे है वहीं इस घटना ने वर्तमान शैक्षिक परिदृश्य पर गम्भीर प्रश्न खड़े कर दिए है: यह तो सर्वविदित है कि विश्वविधालय या कालेज अपनी राजनैतिक चेतना के लिए भी प्रतिष्ठित होते हैं और होना भी चाहिए क्योंकि यहीं से विभिन्न राजनैतिक चिन्तन जन्म लेते हैं और फिर वो सामाजिक तथा राष्ट्रीय क्रान्ति का सूत्रपात करते हैं।
वर्तमान परिदृश्य कई दृष्टि से उल्लेखनीय है प्रथम यह कि विज्ञान का एक शोध छात्र राजनैतिक तथा सामाजिक रुप से इतना संवेदनशील था और यह संवेदना शायद उसके व्यक्तिगत अनुभवों की देन थी बेबसाइट पर उसके विचारों को पढ़कर एक प्रश्न उठता है कि इतने उग्र विचारों वाला एक शोध छात्र यदि आगे उठ कर एक शिक्षक बनता तो क्या वह अपने सभी छात्रों से एक जैसा व्यवहार कर पाता क्योंकि एक शिक्षक से यह अपेक्षा रहती है कि वह अपने सभी छात्रों को एक समान दृष्टि से देखे। यहाँ पर कट्टरहिन्दूवादी दलों को भी यह विचार करना चाहिए कि इस तरह की मानसिकता उच्चशिक्षित दलित वर्ग में क्यों आ रही है, कहीं न कहीं पुरातन वर्ण व्यवस्था के लिए हमारा दुराग्रह इसका उत्तरदायी है।
एक शिक्षक होने के नाते मैं स्वयं इसका भुक्तभोगी रह चुका हूँ। मुझे अच्छी तरह से स्मरण है कि मेरे कुछ ब्राहमण मित्र केवल ब्राहमण शिक्षकों के ही चरण स्पर्श किया करते थे, यहाँ एक घटना उल्लेखनीय है कि एक बार मेरे एक ब्राहमण मित्र के जन्म दिवस पर उसने मेरे माता-पिता के चरण-स्पर्श कर लिए जो मेरे लिए आश्चर्य की बात थी क्योंकि एक कायस्थ के पैर ब्राहमण ने छुए थे: बाद में उस मित्र ने बताया कि उसके इस व्यवहार के लिए उसके माता-पिता ने उसे टोका था जबकि उसके माता व पिता दोनों शिक्षक थे। शैक्षिक जीवन में भी इस तरह के अवसरों से कई बार पाला पड़ चुका है। मेरे व्यक्तिगत तथा अन्य उच्च जातियों के शिक्षक मित्रों के अनुभवों से यह महसूस होता है कि उच्च वर्गीय मानसिकता ने शैक्षिक वातावरण में गहरी पैठ बना रखी है जो कि देश या समाज के लिए घातक है।
यदि हमे एक शक्ति सम्पन्न राष्ट्र की अवधारणा को स्थापित करना है तो पहले एक ऐसे समाज को अस्तित्व में लाना होगा जहाँ पर व्यक्ति की जाति विशेष उसके लिए वरदान या अभिशाप न बन सके। इसके लिए समस्त शिक्षकों को आगें बढ़कर प्रयास करने होगें कि किसी भी स्थिति में हम अपने छात्रों के किसी वर्ग भेद को जन्म न दें जो उनमें जातिगत या धार्मिक विद्धेष को उत्पन्न करे जिसकी परिणीति रोहित जैसे छात्र के रुप में हो।
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