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गणतंत्र की आस में तरसता घुमंतु समाज

मेरा अपना नज़रिया
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गणतंत्र की आस में तरसता घुमंतु समाज

सड़क किनारे पसरी घोर निराशा और उस निराशा में डूबी हुयी जिंदगियां, चिथड़ों में लिपटे हुए बच्चे, टूटी फूटी झोपड़ियों में सुलगते चूल्हे और उसी सड़क पर सरकार के नुमाइंदों की सरपट दौड़ती चमकती कारों में चर्चा गरम हो रही होती है डिजिटल इंडिया की, पर उन नेताओं को सड़क की जिंदगी बसर करती इस  कौम की  बदहाल  तस्वीर नज़र नहीं आती. जो कि इनके छदम दावों को धूल धूसरित करती है माना कि जीवन अनवरत संघर्ष का नाम है, जिसका कर्म है सदैव चलते रहना, आगे बढ़ते रहना. किन्तु इस आशातीत में एक ऐसा समाज है जो संघर्ष के बावजूद भी खानाबदोश  जीवन जीने को मजबूर है. संघर्ष के मार्ग में जीत की चोटियाँ उसे कभी नज़र नहीं आयीं, आज भी उनका जीवन अज्ञान एवं अन्धकार में लिपटा हुआ है, आखिर अभी और कितनी सदियाँ लग जायेंगी सड़क से उठकर एक अदद मकान तक आने में. गणतंत्र की खुशहाली में कब खुशहाल होगा इनका घर आँगन.

जी हाँ हम बात कर रहे हैं उस घुमंतू समाज की,  जिनकी इस  देश में  8 से 10 करोड़ की तादाद है करीब 500 से अधिक जातियों वाले इस समाज के ठौर ठिकाने की तो छोड़िये ये अपने ही देश की नागरिकता तक हासिल नहीं कर पाए. 67वें गणतंत्र के आयोजन के साथ ही ये चर्चा अखबारों की सुर्ख़ियों और टीवी चैनल्स की हेडलाइंस में है कि मेक इन  इंडिया एवं स्टार्ट अप इंडिया से देश मजबूत होगा वही 10 करोड़ की आबादी का आधार अधर में जिन्दगी गुजार रहा है. राशन कार्ड एवं आधार कार्ड की तो छोडिये पहचान पत्र तक नहीं बनवा पायी सरकारें . इतने गणतंत्र गुजर गए पर सभी सरकारों ने घुमन्तुओं पर सिर्फ विचार ही किया है कोई दर्ज़ा नहीं दे सकी. विकास किया है  तो सिर्फ इतना कि ‘रेनके’ आयोग  के गठन से ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली. रिपोर्ट भी  तैयार हुयी जो ठण्डे बस्ते में आज तक ठंडा रही है.

गणतन्त्र दिवस वो दिन  है जो संविधान के रूप में देश का शासन देशवासियों के हाथों में ये सौगात लेकर आया कि इसमें सभी की रक्षा का वचन निहित है. गणतन्त्र के इस लम्बे अंतराल में हमारे देश की  सरकारें विश्व की महाशक्ति बनने की होड़ में तो लगी रही किन्तु  यह भूल गयी कि उनकी  एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी उस समाज के प्रति भी है जो सदियों से दर –दर भटक कर जीवन यापन कर रहा है, अपनी परम्पराओं से जुड़कर भी उस जमीन से महरूम  है, जो उनको साया दे सके. इक्कीसवीं सदी के इस युग में भी इनको एहसास नहीं है कि देश आज़ाद हो चुका है. देश की बहुत बड़ी आबादी  जहाँ डिजिटल इंडिया का ख्वाब देख रही है वही ये घुमन्तु समाज सड़क किनारे भोजन पकाना, सड़क किनारे ही स्नान करना एवं रूखा सूखा जैसा मिले उसे  खा लेना इनकी दिनचर्या में शुमार है. ना इनका सुविधाओं से वास्ता और ना ही शिक्षा से कोई मतलब, जानकारी है तो बस इतनी  कि ये राणा प्रताप की सेना के  वीर पहरुये हैं.  इस घुमंतू समाज को इस खानाबदोश जिन्दगी से निकालकर समाज की मुख्य धारा से जोड़ने का काम सरकारों का ही था पर इन  सरकारों की अनदेखी के परिणाम स्वरूप  इक्कीसवीं सदी में पहुँचते हुए भी ये मानसिक गुलामी की 16वीं सदी में जीने को मजबूर हो रहे हैं.

इस  उपेक्षित समाज की व्यथा  को इनकी तक़दीर समझा जाय या उदासीनता जिनके अधिकारों की आवाज़ कोई नहीं उठाता.देश और प्रदेश में से किसी भी सरकार ने इन जातियों के उत्थान के लिए सोचा ही नहीं, इससे ज्यादा इस समाज के साथ नाइंसाफी और  क्या होगी.  सरकार ने भी इनको अपने नसीब के साथ मरने के लिए शायद इसलिए छोड़ रखा है क्योकि वो इनके वोट बैंक का हिस्सा नहीं बन पाए. एक जगह से दूसरी जगह विस्थापित होते ये गाडिया लुहार जाति के लोग  वक़्त के हाथों इतने मजबूर हो चुके हैं कि पहिये पर रहने वाली  इस जिंदगी को इतना ठहराव मिल चुका है कि इनके जीवन की गाड़ी अवरुद्ध हुयी पड़ी है. काश सरकारे सिर्फ इतना ही कर लेती कि इनके बच्चों को पढ़ा लिखा देती तो इनके हाथों में आज औजार के बजाय कलम होती. स्लेट पेन्सिल से इनके बच्चे अपने तकदीर को बदलने की इबारत तो लिख रहे होते. पर अफ़सोस  ऐसा कुछ भी नही हो सका.  इसी बीच आशा की एक किरन फूटी और उसने इस समाज की ‘आराधना’ का जिम्मा अपने हाथों में लिया किन्तु लाख प्रयासों के बावजूद सरकार एक ऐसी जगह तक मुहैया नहीं करा सकी जहाँ इनके बच्चे वही रहकर शिक्षा ग्रहण कर सके वो तो भला हो उन चंद हाथों का जो कि इनकी शिक्षा की मशाल को बुझने नहीं दे रहा. हजारों एकड़ बंजर पड़ी इन सरकारी जमीनों को उन धनकुबेरों को सौंपते हुए तो ये सरकारे बड़ी उदार हो जाती हैं पर समूची कौम का भला सोचने वाली एक संस्था जो इनके लिए प्राण प्रण से जुटी है उसको नियमों का हवाला देकर उसकी आराधना निष्फल की जा रही है . इन हुनरमंद हाथों के लिए सरकारी प्रतिबद्दता आखिर क्यों नदारद है, चटक गहरे परिधानों में सजी इस समाज की सुन्दरता को उस समय कलंक का टीका लग जाता है जब उनकी कला के प्रति सम्मान और बेहतर जिन्दगी के लिए किए गए सरकारी प्रयास महज एक आयोग का गठन करके पूरे हो जाते हैं.

संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों  के इस हनन के लिए जिम्मेदारी किसकी है? लाल किले की प्राचीर से लेकर  राष्ट्रपति  भवन  तक गणतन्त्र की यह गूँज हर बार सुनाई देती है किन्तु इस कौम के लिए गणतन्त्र के मायने क्या हैं ये भाग्यहीन इतना भी नहीं जानते हैं. सवालों में फंसी इनकी ये करुण पुकार किसी का भी ह्रदय द्रवित करने के लिए काफी है पर सरकारी अमले की निर्दयता इस समाज की जिजीविषा को निरंतर चुनौती दे रही है.

(लेखिका आराधना संस्था की महासचिव हैं)

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