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जब भी किसी की मौत होती है तो हम अपने अंदरूनी स्वभाव के विपरीत व्यवहार करने लगते हैं । अटलजी की मौत को एक उत्सव के रूप में मनाना चाहिए था । मगर समाज में मौत के समय ख़ुशी मनाना निषिद्ध माना जाता । इसी डर से उस समय हमारे अंदर की हालत कितनी भी ख़ुशी कि हो मगर हम समाज के डर से गमगीन चेहरा बनाकर रखते हैं । इस ढकोसले से ना आदर झलकता है ना कोई दुःख । सिर्फ़ दिखावा और डर कि हम मौत के महकमे में ख़ुश कैसे दिख रहे हैं । मैं इस ढकोसले से सहमत नहीं हूँ । ये मेरे निजी विचार हैं और मैं इन विचारों को खुलकर बताने में कोई शर्म नहीं महसूस कर रहा हूँ। एक महान आत्मा जिसका नाम अटल बिहारी बाजपेई कहते हैं , उसकी सच्ची श्रद्धांजलि दुख मनाना नहीं बल्कि उनकी जीवन की कुछ अभूतपूर्व उपलब्धियों से प्रेरणा लेना चाहिए और सिर्फ़ गमगीन चेहरे बनाने से अच्छा है एक मुस्कुराहट के साथ उनका अनुसरण करना।
पता नहीं क्या मिलेगा इन शोक सभाओं का जबकि कुछ प्रेरणादायी कार्यक्रम उनकी याद में किये जायें तो ज़्यादा सार्थक होगा । मगर राजनीति किसी को नहीं बख़्शती है । अटल जी की मौत पर भी राजनीति हो गयी । उनकी अस्थि कलश के जगह जगह भेजा जाना धर्म विरुद्ध कहा गया कुछ धर्म गुरुओं द्वारा । उनके शव यात्रा में प्रधान मंत्री का ६ किमी चलने एक तरफ़ साहसिक क़दम बताया गया तो एक तरफ़ भीड़ में कितने सुरक्षा सेनानी थे और उसपर ख़र्चे पर चर्चा हुई ।
यात्रा के दौरान अटल जी पर श्रद्धा के लिए परदे पर नज़र नहीं थी बल्कि किस के चेहरे पर मुस्कान है और उसको किस तरह भुनाया जाता सकता है ये उद्देश्य था । राजनीति इतनी गंदी हो सकती है की एक महान आत्मा के मृत्यु को अखाड़ा बना दिया गया । हर बार जब कोई भी इस तरह के सवाल उठाता है तो अपने आप से सवाल पूछता हूँ की इससे क्या अटलजी के आत्मा को शांति मिलेगी तो हमेशा जवाब नहीं में मिलता है । और ये सवाल की उनको क्या फ़ायदा मिलेगा जो ये सवाल उठाते हैं तो जवाब मिलता है चंद वोट या नोट । मैं इस दौड़ से बाहर हूँ और अपनी श्रद्धांजलि इन ढकोसलों से दूर रखूँगा। ज़िंदगी में अटल रहूँगा।
-डॉक्टर जवाहर सुरसेट्टी
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