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आखिर कब तक यूँ ही बंद होता रहेगा भारत ?

Dr. Krishnagopal Mishra
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      सुप्रीम कोर्ट द्वारा एस.सी.-एसटी एक्ट में बदलाब के विरोध मंे जनता का एक वर्ग आक्रोशित हो रहा है। दलितों के सवाल पर राजनीतिक दल रोटियाँ सेकनें में जुट गये हैं। वर्ग विशेष उग्र आंदोलन कर रहा है।

      उच्चतम न्यायालय ने अनुसूचित जाति व जनजाति अत्याचार अधिनियम में नया दिशा-निर्देश जारी किया है। दलितों के उत्पीड़न में सीधे गिरफ्तारी और केस दर्ज कराने पर रोक लगाने के फैसले के खिलाफ सभी दलित संगठनों ने भारत बंद का आहवान किया था। जिसका असर अधिकांश भारत पर हुआ। सबसे ज्यादा असर पंजाब, बिहार, ओडिशा, मध्यप्रदेश एवं उत्तर प्रदेश में हुआ। दुखद आश्चर्य है कि एक तरफ तो दलित स्वयं पर हो रहे अत्याचारों के विरूद्ध तुरंत केस दर्ज ना हो पाने के निर्णय को लेकर  बंद कर रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ स्वयं आम बेगुनाह लोगों को मौत के घाट उतार रहे हैं, राष्ट्रीय संपत्ति फंूक रहे हैं। 

        यह रेखांकनीय है कि उच्चतम न्यायालय ने जो निर्देश दिया उससे किसी भी दलित को कोई समस्या होनी ही नहीं चाहिये क्योंकि अगर कोई व्यक्ति दलित वर्ग के साथ उत्पीड़न करता है तो उसकी स्पष्ट जाँच होने पर संबन्धित को दोषी पाये जाने की स्थिति में उसे दण्ड दिया ही जायेगा। अगर स्पष्ट जाँच नहीं होगी तब तो कोई भी दलित आपसी रंजिश के कारण किसी भी सामान्य वर्ग के नागरिक के ऊपर बेबुनियाद आरोप लगा कर उसे प्रताड़ित कर सकता है।

         भारत की स्वतंत्रता के इतने वर्ष बाद भी ऐसा प्रतीत होता है कि भारत की जनता अभी भी स्वतंत्र नहीं हुई है क्योंकि जब भी ऐसे भारत बंद का आहवान होता है तब संबंधित संगठन के कुछ कार्यकर्ता प्रतिष्ठानों को बंद कराने का प्रयास करते हैं और  अगर कोई अपनी दुकान बंद ना करे तो उस पर अनुचित दबाव डालते हैं। यदि आन्दोलनकारी संगठन को बंद का आवाहन करने की स्वतंत्रता है तो आम नागरिक को भी अपना प्रतिष्ठान खोलने, व्यापार करने की संवैधानिक स्वतंत्रता है। आखिर एक समूह अपनी बात मनबाने के लिए दूसरे समूह पर अनुचित दबाव कैसे डाल सकता है? इसीलिये भारत की आम जनता स्वतंत्र देश में तो रहती है परंतु वास्तव में वह स्वतंत्र नहीं है क्योंकि ऐसे दबाबों से उसकी स्वतंत्रता का हनन होता है।

      प्रदर्शनकारियों ने अनेक जगह ट्रेनें रोकीं, बसें जलाईं ,दुकानों में तोड़-फोड़ की। ऐसी उग्र और हिसंक गतिविधियाँ लोकतंत्र के लिए घातक हैं। क्या ऐसा उत्पात मचाकर न्यायपालिका को प्रभावित करना किसी भी दशा में सही ठहराया जा सकता है ? मजे की बात तो यह है कि एक ओर संवैधानिक व्यवस्था की दुहाई देकर दलितवर्ग अपने पक्ष में सुविधाएं जुटाने के लिए आतुर हैं और दूसरी ओर अपने अनुकूल न होने वाले उच्चतम न्यायालय के निर्णय तक अपमान कर रहा है। क्या संविधान और न्यायालय का सम्मान तभी होना चाहिए जब वह हमारे स्वार्थों की पूर्ति में सहायक हो ? ऐसी सोच हमारे सार्वजनिक जीवन के लिए घातक है। हमारे नेताओं को जाति, वर्ग, धर्म, भाषा, क्षेत्र आदि की संकीर्ण मानसिकता और बोट वैंक बढ़ाने की ओछी सोच से ऊपर उठकर सारे देश के हित में सोचना होगा, सबके हित में निर्णय लेने होंगे अन्यथा विविध वर्गों और समूहों में बटा समाज यूँ ही टकराकर अपनी शान्ति खोता रहेगा। कथित राजनीति की रोटियाँ सिंकती रहेगी और निर्दोष युवक प्राणों से हाथ धोते रहेंगे।   

     लेखक

   सुयश मिश्रा


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