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हिन्दी संसार: अपार विस्तार

Dr. Krishnagopal Mishra
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 ‘हिन्दी संसार: अपार विस्तार’
‘हिन्दी संसार: अपार विस्तार’

हिन्दी संसार: अपार विस्तार
हिन्दी अपने आविर्भाव काल से लेकर अब तक निरन्तर जनभाषा रही है। वह सत्ता की नहीं जनता की भाषा है। उसका संरक्षण और संवर्द्धन सत्ता ने नहीं, संतों ने किया है। भारतवर्ष में उसका उद्भव और विकास प्रायः उस युग में हुआ जब फारसी और अंग्रेजी सत्ता द्वारा पोषित हो रही थीं। मुगल दरबारों ने फारसी को और अंग्रेजी शासन ने अंगे्रजी को सरकारी काम-काज की भाषा बनाया। परिणामतः दरबारी और सरकारी नौकरियाँ करने वालों ने फारसी और अंग्रेजी का पोषण किया। मुगल सत्ता पोषित फारसी मुगल शासन के साथ ही भारतवर्ष से विदा हो गई। अंग्रेजों के जाने के बाद भी स्वतंत्र भारत के शासन में बने रहने से अंग्रेजी का वर्चस्व समाप्त नहीं हुआ, तथापि हिन्दी उत्तरोत्तर विश्व स्तर पर प्रतिष्ठित होने में सफल रही है, क्योंकि उसकी जड़ें जनता में दृढ़ता से जमी हंै। वह सत्ता की निधि नहीं, जनता की निधि है। सत्ताएं बदलती रहती हैं, उनके साथ ही उनके विधान और उनसे पोषित व्यक्ति, मान्यताएं, रीतियाँ आदि भी बदल जाती है किन्तु जनता महासागर के अपार प्रवाह की भाँति सतत तरंगायित रहती है। उसका स्वरूप चिर पुरातन और नित नवीन होता है। इसीलिए उससे पोषित निधियाँ भी चिरंजीवी रहती हैं। वे रूप-परिवर्तन के वावजूद अपने वैशिष्ट्य में विद्यमान बनी रहती हैं। यही तथ्य हिन्दी के साथ भी प्रमाणित होता है। हिन्दी अपने संसार में सतत सवंर्द्धित होती हुई विश्व भाषा बनने की ओर अग्रसर है।
यह दुखद है कि उन्नीसवीं शताब्दी में जहाँ विदेशी विद्वान तक हिन्दी की सेवा के लिए समर्पित रहे वहाँ बीसवीं और इक्कीसवीं शताब्दी की भारतीय राजनीति हिन्दी के गौरव की प्रतिष्ठा के लिए उदासीन मिलती है। हिन्दी को विश्व स्तर पर गौरव प्रदान करने वाले विद्वानों में न केवल अंग्रेज अपितु जर्मन, फ्रांस, रूस, पुर्तगाल, हालैंड आदि अनेक देशों के हिन्दी सेवी विद्वानों का योगदान भी अविस्मरणीय और स्पृहणीय है। जिन भारतीयों की दृष्टि में हिन्दी ‘हीन है’, समृद्ध नहीं है’, ‘राष्ट्रभाषा पद के लिए उपयुक्त नहीं है’ – जैसी अनेक भ्रान्तियाँ हैं उन्हें इस संदर्भ में पूर्वाग्रह त्यागकर विचार करना चाहिए कि यदि भाषा के स्तर पर हिन्दी में कहीं कोई कमी होती तब न तो वह राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपना विकास कर पाती और न ही विदेशी-अहिन्दी भाषी विद्वानों की सेवाएं और समर्थन उसे प्राप्त होते। हिन्दी के प्रति दुराग्रह और पूर्वाग्रह त्यागकर ही हम उसके साथ, अपने साथ और विश्व-परिवार के साथ न्याय कर सकते हैं क्योंकि हिन्दी में सुलभ मूल्य-चेतना से सबका हित जुड़ा है।
हिन्दी-साहित्य का विस्तार भी सागर के प्रसार की भाँति अपार है। उसका लिखित साहित्य आठवीं शताब्दी में ‘सरहपा’ से लेकर आज तक निरन्तर रचा जा रहा है। लोकसाहित्य और अप्रकाशित-अमुद्रित साहित्य के रूप में भी वह भारत और भारत से बाहर तक विस्तार पाता रहा है। उसकी साहित्यिक उपभाषाएँ क्षेत्रीय धरातल पर पिंगल, डिंगल, रेख्ता आदि विविध शैलियों में विपुल साहित्य रचती रही हैं। पद्य के क्षेत्र में आदिकाल से आधुनिक काल तक असंख्य रचनाएँ अस्तित्व में आयीं तो गद्य के संदर्भ में विगत दो शताब्दियों में ही अपरिमित साहित्य का सृजन हुआ है। हिन्दी की यह विपुल साहित्य-सृष्टि विश्व की किसी भी अन्य भाषा के समृद्ध साहित्य से कम नहीं है। विश्व-स्तर पर इसकी प्रतिष्ठा का यह महत्त्वपूर्ण आयाम है।
आज हिन्दी शिक्षण, प्रशिक्षण, अनुसंधान और सृजन के विस्तृत परिसर से बाहर जीवन के अन्यान्य क्षेत्रों में भी उत्तरोत्तर प्रगति कर रही है। संपर्क और संचार के स्तर पर प्रतिष्ठित हिन्दी वित्त-वाणिज्य-बैंकिंग एवं बीमा के असीम कार्य भी संपादित कर रही है। विज्ञान, तकनीकि एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में वह प्रसार पा रही है। प्रिंट और इलैक्ट्रानिक मीडिया के विविध समाचार चैनलों की भाषा हिन्दी-विज्ञापनों का भाषिक मेरूदण्ड है। क्रीड़ा, मनोरंजन, सांस्कृतिक-प्रस्तुति, अभिनय, कम्प्यूटर, इंटरनेट, मोबाइल, ई-मेल पेजर, बैनर, पोस्टर, हैंडबिल आदि क्षेत्रों में हिन्दी प्रगति पर है। हिन्दी-भाषियों के संख्यात्मक विस्तार के साथ-साथ हिन्दी का व्यवहार घर-बाहर सर्वत्र प्रगति पर है। राष्ट्रभाषा, राजभाषा, संचार-भाषा, शिक्षण, अनुवाद, प्रशासन, न्यायालय इत्यादि जीवन के विविध-संदर्भ हिन्दी से जुड़कर कार्य कर रहे हैं। इससे हिन्दी की शक्ति एवं सामथ्र्य वृद्धि सर्वत्र सिद्ध होती है।
हिन्दी विश्व की सार्थकता और विस्तार उसके भविष्य की स्वर्णिम संभावनाओं के प्रति आशान्वित करती हैं। हिन्दी भारतवर्ष की अस्मिता है। उसके माध्यम से ही विश्व में भारतीयता अभिव्यक्ति पाती रही है, पा रही है। हिमालय से सागर-पर्यन्त प्रसृत समस्त भारतीय संस्कृति, आध्यात्मिकता, नैतिकता, सर्वभौम दर्शन और ज्ञान-विज्ञान विश्व में हिन्दी के माध्यम से प्रकाशित प्रसारित हो रहे हैं। इस प्रकार हिन्दी भारत और भारतेतर विश्व के मध्य संपर्क का स्वर्ण सूत्र है। भविष्य में इस स्वर्ण-सूत्र के सुदृढ़ होने की प्रबल संभावनाएं हैं।

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