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जो राह दिखाए वही शिक्षक

Dr. Krishnagopal Mishra
Dr. Krishnagopal Mishra
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मानव-जीवन एक पाठशाला है। इस पाठशाला में मनुष्य-जीवन भर कुछ न कुछ सीखता रहता है, किंतु इस सीखने की प्रक्रिया में उसे कोई न कोई सिखाने वाला चाहिए। जब तक कोई सिखाने वाला न मिले हम चाह कर भी ठीक से नहीं सीख पाते। कभी-कभी मनुष्य अपने संकल्प और लगन से बिना सिखाने वाले की सहायता के भी सीख लेता है । एकलव्य के धनुर्विद्या में निपुण होने की कथा इस तथ्य को प्रमाणित करती है किंतु यह भी सही है कि ऐसी विलक्षण प्रतिभा अपवाद रूप में ही मिलती है। साधारण जीवन में मनुष्य बचपन से लेकर अंत तक जो कुछ सीखता है उसमें उसके मार्गदर्शक, शिक्षक अथवा गुरु की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।

सीखना जैविक-विकास की अनिवार्य शर्त है । इसलिए बौद्धिक-चेतना से संपन्न मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षी भी जीवन के प्रारंभ से ही सीखना आरंभ कर देते हैं । छोटी सी चिड़िया अपनी चोंच में दाना लाकर घोंसले में बैठे अपने शावक को न केवल दाना चुगना सिखाती है अपितु उसे उड़ना और अपने जीवन की रक्षा करना भी सिखा देती है । बिल्ली आदि मांसाहारी पशु अपने शावकों को दौड़ना और शिकार करना सिखाते हैं । माताएँ अपने शिशुओं को उठना , बैठना, बोलना, खाना, नहाना सब कुछ सिखाती हैं । इसीलिए माता को शिशु का प्रथम गुरु माना गया है ।

‘गुरु‘ शब्द अनेकार्थी है। शब्दकोशों में ‘गुरू’ शब्द के अनेक अर्थ मिलते हैं, जैसे – भारी , वजनदार ,बड़ा, दुष्पाच्य-देर में पचने वाला, महत, कठिन, पूज्य, दो मात्राओं वाला , बुजुर्ग , शिक्षक, विद्या देने वाला, कोई कला सिखाने वाला , गायत्री आदि मंत्र का उपदेश देने वाला आदि । शब्दकोशों में बताए गए इन विभिन्न अर्थों में से जो अर्थ सबसे अधिक ग्रहण किया जाता है वह शिक्षण से संबंधित है । हम जिससे कुछ सीखते हैं उसे अपना गुरु मानते हैं । इस अर्थ में ‘गुरु’ शब्द अत्यंत व्यापक है और उन सबको हमारे समक्ष गुरु की श्रेणी में प्रतिष्ठित करता है जिन्होंने हमें कुछ न कुछ सिखाया है । सिखाने का कार्य अधिकतर बड़े लोग करते हैं, इसलिए अपने से अधिक आयु वाले लोगों को भी गुरुजन कहा जाता है ।

‘गुरु‘ शब्द की व्युत्पत्तिपरक व्याख्या करने पर ‘गु‘ और ‘रु‘ अलग-अलग अर्थ प्रकट होते हैं । उपनिषद में ‘गु‘ शब्द का अर्थ है ‘अंधकार‘ और ‘रू‘ शब्द का अर्थ है उसका ‘निरोधक‘ । इस प्रकार अज्ञान रुपी अंधकार का निरोध करने वाला व्यक्ति गुरु है । तत्वज्ञान और आघ्यात्मिक संदर्भों में गुरू का यही अर्थ ग्रहण किया जाता है।

कवि देवेंद्रदत्त तिवारी की पंक्तियाँ हैं –

          ‘ दूर असत से रहें, बनें हम,  सत्पथ के अनुगामी ‘

मनुष्य को असत् से दूर रखने और सत्पथ का अनुगामी बनाने के लिए मार्गदर्शक गुरु की आवश्यकता सदा से रही है । मानव मन सत-असत  प्रवृत्तियों का भंडार है । उसमें परोपकार की उदार भावना भी है और दूसरों की गाढ़ी कमाई लूटकर अपना घर भर लेने की कठोर राक्षसी दुर्वृत्ति भी है । वह सत्य और न्याय का पक्षधर है तो असत्य, अन्याय और अपराधों का सूत्रधार भी वही है । विश्व-शांति के लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ का गठन कर परमाणु विस्फोटों को नियंत्रित करने के लिए वह एक ओर अथक प्रयत्न कर रहा है तो दूसरी ओर नित नई  मारक  मिसाइलों के निर्माण में भी उसी की अहम भूमिका है। मानव मन में निहित ‘सत‘ को प्रोत्साहित करने और ‘असत’ को हतोत्साहित करने के लिए मार्गदर्शक गुरुओं के द्वारा दिशा-दर्शन किया जाना आज अत्यावश्यक है ।

जिस प्रकार यात्री दिशा- भ्रम होने पर किसी से जानकारी लेकर अपने यात्रा-पथ पर आगे बढ़ता है उसी प्रकार से शिष्य भी गुरु से आवश्यक मार्गदर्शन लेकर शिक्षा, विद्या, कला आदि क्षेत्रों में उन्नति करता है । यात्रा में पथ प्रदर्शक का कार्य अत्यंत महत्व का होता है। पथ-प्रदर्शक मार्ग में आने वाली बाधाओं और समस्याओं के समाधान अपने ज्ञान एवं अनुभव के आधार पर सरलता से कर लेता है और पथिक को उसके लक्ष्य तक सहज ही पहुंचा देता है । जिस प्रकार बिना उचित मार्गदर्शन के पथिक प्रायः भटक जाते हैं और लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाते उसी प्रकार गुरु के निर्देशों के अभाव में शिष्य को लक्ष्य की प्राप्ति कठिन हो सकती है। मनुष्य का जीवन भी एक दुर्गम-पथ की भाँति है और इस पथ पर भी मार्गदर्शक गुरु की कृपा अपेक्षित है । विश्व के समस्त महापुरुष गुरूओं के कृपापूर्ण निर्देशन से ही लक्ष्य प्राप्त कर सके हैं।

गुरु की आवश्यकता के कारण सामाजिक-जीवन में गुरु की प्रतिष्ठा

सर्वोपरि है । छोटा सा बच्चा अपने शिक्षक की कही हुई बात पर अधिक विश्वास करता है । वह उसी को प्रमाण मानता है जो उसके शिक्षक ने बताया है । प्रत्येक सफल व्यक्ति की सफलता की पृष्ठभूमि मैं उसके गुरु की सामर्थ्य और दृष्टि सक्रिय मिलती है, इसलिए बड़े-बड़े पदों पर प्रतिष्ठित जन भी अपने गुरुओं के प्रति कृतज्ञ-भाव से नतमस्तक दिखाई देते हैं। इतिहास में विश्वामित्र-राम , परशुराम-भीष्म, द्रोण- अर्जुन , समर्थ गुरू रामदास-शिवाजी, स्वामी प्राणनाथ-छत्रसाल ,स्वामी रामकृष्ण परमहंस-विवेकानन्द आदि गुरू-शिष्य-परंपरा के उत्कृष्ट उदाहरण हैं । यह रेखांकनीय है कि गुरुओं के सफल मार्गदर्शन में इन सभी शिष्यों ने उल्लेखनीय सफलताओं का वरण कर इतिहास में अपना नाम अमर कर दिया । चाणक्य के कुशल मार्गदर्शन ने चंद्रगुप्त को भारतवर्ष का यशस्वी सम्राट बनाया । स्वामी रामदास का निर्देशन शिवाजी को ‘छत्रपति‘ का गौरव दे गया । स्वामी प्राणनाथ की कृपा से छत्रसाल विशाल-राज्य की स्थापना कर सके जबकि गुरु-कृपा से वंचित महाराज पृथ्वीराज शब्दबेध जैसी दुर्लभ वाण-विद्या में निपुण होकर भी अपने संस्थापित साम्राज्य की रक्षा नहीं कर सके । कदाचित उनके साथ कोई ऐसा सुयोग्य मार्गदर्शक गुरु नहीं था जो उन्हें प्रेरित और प्रोत्साहित कर मोहम्मद गौरी की प्रथम पराजय के समय ही आक्रमणकारी शत्रुओं का समूल नाश करवा देता। वस्तुतः शास्त्रीय-ज्ञान और व्यवहारिक-अनुभव से समृद्ध गुरु का सामयिक निर्देश-उपदेश ही शिष्य की प्रगति का पथ प्रकाशित करता है ।

भारतीय परंपरा में गुरु और शिष्य का संबंध पिता और पुत्र जैसा है । जैसे  पुत्र अपने पिता की आज्ञा का पालन करता हुआ उनसे सब कुछ प्राप्त कर लेता है वैसे ही शिष्य भी अपनी श्रद्धा, सेवा और लगन से गुरु को प्रसन्न कर गुरु की सारी विद्या अर्जित कर लेता है । योग्य शिष्य की पात्रता से प्रभावित गुरु उसे सफलता के वे गूढ़ रहस्य भी प्रदान कर देता है जिन्हें वह अपने पुत्र को भी नहीं देता । अर्जुन की योग्यता से प्रसन्न द्रोणाचार्य ने धनुर्विद्या का समस्त रहस्य , युद्ध-व्यूह रचनाओं की सारी विधियाँ , जो उन्होंने अपने पुत्र अश्वत्थामा को भी नहीं सिखाई थीं, अर्जुन को सिखा दीं । सच्चा गुरु अपने शिष्य से धन अथवा अन्य किसी प्रकार की सेवा-सहायता की अपेक्षा नहीं करता । उसे तो शिष्य की प्रतिभा-पात्रता प्रभावित करती है। इसी पर रीझकर वह अपनी सारी विद्या, समस्त कला न्योछावर कर देता है । वह विद्या कला के क्षेत्र में शिष्य को अपने से अधिक योग्य देखना चाहता है क्योंकि इसी में उसके शिक्षण की कुशलता- सफलता प्रमाणित होती है । शिष्य की प्रगति ही शिक्षक का सर्वोत्तम पुरस्कार है ।

एक पुरानी कहावत है ‘गुरु कीजै जानकर , पानी पीजै छानकर‘ । अर्थात पानी छानकर पीना चाहिए ताकि प्रदूषणकारी घातक तत्व स्वास्थ्य को हानि न पहुंँचा सकें और गुरु भलीभांति विचारकर बनाना चाहिए ताकि हम अपने वांछित लक्ष्य को प्राप्त कर सकें । सर्वविदित है कि स्वामी विवेकानंद ने अत्यंत विचारपूर्वक स्वामी रामकृष्ण परमहंस को अपना गुरु बनाया था और उसके अच्छे परिणाम भी उन्हें प्राप्त हुए । संत कबीर की उक्ति है कि जिसका गुरु अज्ञानी है और शिष्य अविवेकी है उन्हें कल्याण की प्राप्ति नहीं हो सकती । एक अंधा दूसरे अंधे का मार्गदर्शन नहीं कर सकता । अभिप्राय यह है कि गुरु का ज्ञान-संपन्न होना आवश्यक है तो शिष्य में भी वह विवेक होना चाहिए कि वह  योग्य गुरु का चयन करे । यूँ ही किसी को भी गुरु नहीं बनाया जा सकता । अंधी गुरु-भक्ति के अनेक मूर्खतापूर्ण उदाहरण आज हमारे समाज में जब-तब दिखाई दे जाते हैं। ढोंगी-गुरु सलाखों के पीछे हैं और अविवेकी शिष्य अब भी उनके प्रति अंधश्रद्धा से भरे हैं । ऐसी अंध गुरूभक्ति समाज के लिए घातक है ।

हमारी संस्कृति में ‘गुरु‘ शब्द अत्यंत श्रद्धास्पद है । इस शब्द में ही गौरव की सुगंध है। इसके पठन-श्रवण मात्र से ही मन में पवित्रता का भाव उदय होता है । आंखों के सामने एक आदर्श-सा प्रत्यक्ष हो जाता है । महात्मा गांधी ने लिखा है कि गुरु में हम पूर्णता की कल्पना करते हैं । अपूर्ण मनुष्यों को गुरु बनाकर हम अनेक भूलों के शिकार बन जाते हैं। अतः हमें गुरु अथवा शिक्षक के रूप में किसी का चयन करने से पूर्व उसकी पृष्ठभूमि भी खंगालनी चाहिए । केवल सुंदर कलेवर,  भव्यवेश और वाणी  का आकर्षण किसी को गुरुपद पर प्रतिष्ठित करने के पर्याप्त कारण नहीं हो सकते । इस पद की प्रतिष्ठा के लिए गंभीर-ज्ञान और उसके अनुरूप गरिमापूर्ण आचरण भी अनिवार्य शर्तें हैं ।

आज हमारे विद्यालयों में आए दिन दुर्घटनाएं घटती हैं। आज के तथाकथित शिक्षक गुरुपद का उत्तरदायित्व पूर्ण कर्तव्य भूलकर भोले शिशुओं पर कभी-कभी ऐसे निर्मम प्रहार करते हैं कि उनके आंख, कान आदि अंग जीवन भर के लिए खराब हो जाते हैं। शिक्षक का कार्य छात्र को सिखाना- समझाना है, उसे प्रताड़ित करना या क्रोध में आकर उसका अंग भंग करना नहीं। वास्तव में शिक्षक की भूमिका उस कुम्हार की  है जो गीली मिट्टी से घड़ा बनाते समय बाहर की ओर हल्के हाथ से थपथपाकर उसका टेढ़ा-तिरछापन सुधारता है और अंदर से हाथ का सहारा देकर उसे टूटने से बचाता है। यही बालकों के व्यक्तित्व निर्माण की सही प्रक्रिया है । उन्हें स्नेह-पूर्ण प्रोत्साहन और प्रेरणा देकर उनके मानसिक धरातल को बिना आघात पहुँचाए आवश्यक डांट-डपट और समझाइश के साथ उनका विकास किया जाना चाहिए । इसके लिए शांत प्रकृति के सेवाभावी आदर्श शिक्षकों के चयन की आवश्यकता है। केवल कोरी-डिग्रियों के आधार पर उनके स्वभाव और आचरण का परीक्षण किए बिना होने वाली अविवेकपूर्ण नियुक्तियाँ शिक्षक की गरिमा को आहत करती हैं ।

गुरु-शिष्य संबंधों की अपनी मर्यादाएं हैं। गुरु की मर्यादा है कि वह लोभ, अभिमान, भेदभाव आदि संकीर्णताओं से मुक्त रहकर शिष्य के बहुमुखी विकास का पथ प्रशस्त करें तथा उसे किसी अनुचित आदेश पालन के लिए विवश न करे और शिष्य का कर्तव्य है कि वह स्वविवेक के आलोक में गुरु के आदेश का पालन करे । गुरु के प्रति श्रद्धा, विश्वास, सेवा और समर्पण आदि भावों की उपस्थिति शिष्य में आवश्यक है किंतु गुरु के अनुचित आदेश का पालन करने के लिए वह बाध्य नहीं है। भगवान विष्णु ने जब वामन अवतार धारण कर राजा बलि से तीन पग पृथ्वी मांगी थी तब उनके गुरु शुक्राचार्य ने विष्णु के छल को पहचान कर बलि से दान न देने का आग्रह किया किंतु दानशील बलि ने अपने गुरु का आदेश अस्वीकार कर विष्णु को तीन पग पृथ्वी दान करते हुए यश अर्जित किया । पितामह भीष्म ने भी अपनी प्रतिज्ञा के निर्वाह के लिए अपने गुरु भगवान परशुराम की अवज्ञा की थी। इन प्रसंगों से स्पष्ट है कि गुरु-शिष्य संबंधों का निर्वाह मर्यादा पालन की सीमा में ही कल्याणकारक है ।

गुरु की भूमिका कृषक जैसी होती है। किसान समान रूप से भूमि पर बीज छींटता है। बीजारोपण में वह भूमि से भेदभाव नहीं करता किंतु सारे खेत में बीजों का अंकुरण और विकास समान रूप से नहीं होता। जहां आवश्यक खाद पानी आदि पोषक तत्व उपलब्ध होते हैं वहां फसल अच्छी होती है किंतु जिन स्थलों पर नमी की कमी हो अथवा खाद आदि न हो उन  स्थलों पर बीज ठीक से नहीं पनपते। गुरु भी कृषक की भांति सभी शिष्यों को समान रुप से पढ़ाता-समझाता है किंतु सारे शिष्यों की प्रगति समान नहीं होती। लगनशील प्रतिभावान विद्यार्थी गुरुवाणी को ध्यान से सुन कर उन्नति कर जाते हैं जबकि गुरु-निर्देशों की उपेक्षा करने वाले छात्र अपेक्षित उन्नति नहीं कर पाते। अतः शिष्य के मन में गुरु के प्रति श्रद्धा विश्वास और आज्ञा पालन का भाव होना आवश्यक है ।

गुरु से प्राप्त ज्ञान का विकास और विस्तार शिष्य का पुनीत कर्तव्य है। यही सच्ची गुरु दक्षिणा है। इसलिए भारतीय परंपरा में गुरु अपने शिष्य को स्वयं द्वारा व्याख्यायित विवेचित ज्ञान की सीमाओं में बंधने को नहीं कहता। ‘श्रीमद्भगवत् गीता’ में श्रीकृष्ण गुरु की भूमिका में है । गीता का तत्वज्ञान प्रदान करने के उपरांत वे अर्जुन से कहते हैं कि यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुझसे कहा है। इस पर पूर्णतया विचार कर और फिर जैसी तेरी इच्छा हो वैसा कर। कर्म की यह स्वतंत्रता भारतीय गुरु-शिष्य-परंपरा में ज्ञान के, चिंतन के विकास का पथ अवरुद्ध नहीं होने देती। साथ ही विद्या, कला आदि क्षेत्रों में नए-नए अनुसंधानों की अपार संभावनाएं निर्मित करती है।

डाॅ. कृष्णगोपाल मिश्र

विभागाध्यक्ष-हिन्दी

शासकीय नर्मदा स्नातकोत्तर महाविद्यालय

होशंगाबाद म.प्र

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