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सभ्यता के नाम पर
शहर का ताजमहल गाँव के मज़ार पर
बढ़ती गरीबी,बेरोज़गारी,भुखमरी
घटते अन्न, बढ़ते शस्त्रागार
सूरज को ग्रहण लगाता भूरा बादल,
आहिस्ता-आहिस्ता
धरती का फटता मैला-आँचल
सभ्यता के नाम पर
असभ्य होते गए तथाकथित मानव
आदर्श के बदले भ्रष्टाचार
रह गया अवशेष….
‘पूस की रात’ अब गर्म हो चली है
‘लहरों के राजहंस’ न जाने कहाँ उड़ गए
‘उर्मिला’ अब ‘लक्ष्मण’ का
इंतज़ार नहीं करती.
साहित्य के नाम पर
स्याही बह गयी नाली में
‘कामायनी’को भी पी गए
लोग शराब की प्याली में
ना जाने किस मोड़ पर
लुट गया ‘आनंदमठ’
ग़ालिब,मीर,जौक और दुष्यंत
खो गए आज की भीड़ में
फ़क़त कुछ पन्ने
रह गए शेष…..
तरक्की के नाम पर
बढ़ती आबादी,
लुटती हरियाली,
साँसों में घुलता ज़हर
धरती से आकाश तक
फैली काली चादर
तन-मन-जीवन के अरमानों का
केक्टस
अपने काँटों से लहूलुहान करता
रह गया बस
ख्वाबों का ध्वंसावशेष…….
है कहीं अगर-वो सर्वशक्तिमान
तो सुने मेरी आवाज़
जीवन-मृत्यु के साहिल को तोड़कर
प्रलय का करे आगाज़
सम्पूर्ण श्रृष्टि विनष्ट कर
किसी ‘मनु’ को भेजो कश्ती पर
जो रचे पुनः संसार को
जहाँ प्यार हो जीवन-सार
संबंधों की गरिमा रहे
भावनाओं की निर्मल धार बहे
राह बने मधुबन
ठोकर लगे ना ठेस.
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