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न मालूम क्या होता है
किसी-किसी आँखों में
जो नहीं होता
हर किसी आँखों में.
मूक निगाहों की भाषा
इतनी सरल,इतनी कठिन होती है
कि
हर कोई इसे समझ नहीं पाता
और शायद ही कोई
इसे समझने के बाद
भुला पाता है.
भले ही लाखों ज़ख्म छिपाए
सीने के आँगन में
जुवां ख़ामोश रहे
कोई आह दिल से उठकर
होठों की दहलीज़ पर ही
ठिठककर रुक जाये
सारे चेहरे पर
रेगिस्तान की वीरानियां समेटे
मगर दो आँखें कहती हैं
वो अनकही दास्ताँ
जिसे कहने के पहले ही
जुवां बेजुवां हो जाती है.
कुछ ऐसी बातों का सिलसिला
जो होठों से बाहर
कभी कदम नहीं रखती
घुटती हुई दर्द का वो धुआं
अश्क-ए-शक्ल में
बोझिल-सी पलकों पर
कभी-कभी छलक उठती………..
जिसे वाचाल जुवां कह नहीं पाती
चुप रहकर भी
ये मूक आँखें
कह गुजरती हैं वो सच
जो होठों का नहीं
आँखों का होता है
मगर
जो हर किसी आँखों में नहीं होता
किसी-किसी आँखों में
न मालूम क्यों होता है.
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