Menu
blogid : 23892 postid : 1348426

खुशियों का फैसला

yunhi dil se
yunhi dil se
  • 86 Posts
  • 46 Comments

images (2)


जो भावना मानवता के प्रति अपना फर्ज निभाने से रोकती हो क्या वो धार्मिक भावना हो सकती है? जो सोच किसी औरत के संसार की बुनियाद ही हिला दे क्या वो किसी मजहब की सोच हो सकती है? जब निकाह के लिए लड़की का कुबूलनामा जरूरी होता है तो तलाक में उसके कुबूलनामे को अहमियत क्यों नहीं दी जाती?


साहिर लुधियानवी ने क्या खूब कहा है, ” वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन, उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा”। यहाँ लड़ाई  ‘छोड़ने’ की नहीं है बल्कि  “खूबसूरती के साथ छोड़ने” की है। उस अधिकार की है जो एक औरत का पत्नी के रूप में होता तो है लेकिन उसे मिलता नहीं है।


ग़ौर करने लायक बात यह भी है कि जो फैसला इजिप्ट ने 1929 में पाकिस्तान ने 1956 में बांग्लादेश ने 1971 में ( पाक से अलग होते ही), ईराक ने 1959 में श्रीलंका ने 1951 में सीरिया ने  1953 में ट्यूनीशिया ने 1956 में और विश्व के 22 मुसलिम देशों ने आज से बहुत पहले ही ले लिया था, वो फैसला 21 वीं सदी के आजाद भारत में 22 अगस्त 2016 को आया वो भी 3:2 के बहुमत से।


अगर इस्लाम के जानकारों की मानें तो उनका कहना है कि कुरान में तलाक को बुरा माना जाता है। इसे वैवाहिक संबंध में बिगाड़ के बाद आखिरी विकल्प के रूप में ही देखा जाता है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि तलाक़ का हक़ ही छीन लिया जाए। अगर कभी किसी रिश्ते में तलाक की नौबत आ जाती है तो मियाँ-बीवी को इस रिश्ते को खत्म करने के लिए तीन महीने का समय दिया जाता है, ताकि दोनों ठंडे दिमाग से अपने फैसले पर सोच सकें। मगर जैसे कि अक्सर होता है कुछ कुरीतियां समाज में कुछ स्वार्थी तत्वों द्वारा अपने स्वार्थ सिद्धि हेतु चीजों को तोड़ मरोड़ कर पेश करने के कारण पैदा की जाती हैं, गलत जानकारियाँ देकर।


images


यहाँ समझने वाली बात यह है कि समाज वो ही आगे जाता है जो समय के अनुसार अपने अन्दर की बुराइयों को खत्म करके खुद में बदलाव लाता है। इस बार भारतीय मुस्लिम समाज में इस सकारात्मक बदलाव के पहल का कारण बनीं उत्तराखंड की शायरा बानो जिन्होंने ट्रिपल तलाक बहुविवाह और निकाह हलाला पर बैन लगाने की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट में पेटीशन दायर की।


यह उन लाखों महिलाओं की लड़ाई थी जिनका जीवन मात्र तीन शब्दों से बदल जाता था।मजहब के नाम पर फोन पर या फिर वाट्स ऐप पर महिला को तलाक देकर एक झटके में अपनी जिंदगी से बेदखल कर दिया जाता था। आज के इस सभ्य समाज में ऐसी कुरीतियों के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए।


सबसे बड़ी बात यह है कि भारत के संविधान में हर व्यक्ति को बराबर के अधिकार प्राप्त हैं चाहे वो किसी भी लिंग या जाति का हो। लेकिन किसी भारतीय महिला को भारतीय संविधान के उसके अधिकार केवल इसलिए नहीं मिल सकते थे, क्योंकि वो एक मुस्लिम महिला है? शायरा बानो ने इसी बात को अपने केस का आधार बनाया कि यह उसके समानता के संवैधानिक एवं मूलभूत अधिकारों का हनन है जो उनकी विजय का कारण भी बना। निसंदेह कोर्ट के इस फैसले से मुस्लिम महिलाओं के सामाजिक स्तर में सुधार होगा।


सुप्रीम कोर्ट अपना फैसला सुना चुका है, लेकिन मूल प्रश्न यह है कि क्या यह फैसला मुस्लिम पुरुषों की सोच भी बदल सकता है? जिस खुशी के साथ महिलाओं ने इस फैसले का स्वागत किया है क्या पुरुष भी उतनी ही खुशी के साथ इसे  स्वीकार कर पाएंगे?


सवाल जितना पेचीदा है जवाब उतना ही सरल है कि हर पुरुष अगर इस फैसले को अपने अहं को किनारे रखकर केवल अपनी रूह से समझने की कोशिश करेगा तो इस फैसले से उसे अपनी बेटी की आग़ामी ज़िंदग़ी और अपनी बहन की मौजूदा हालत सुरक्षित होती दिखेगी। शायद दिल के किसी कोने से यह आवाज भी आए कि इंशाअलाह यह फैसला अगर अम्मी के होते आता तो आज उनके बूढ़े होते चेहरे की लकीरों की दास्ताँ शायद जुदा होती।


अगर वो इस फैसले को मजहब के ठेकेदारों की नहीं, बल्कि अपनी खुद की निगाहों से, एक बेटे, एक भाई, एक पिता की नज़र से देखेगा तो जरूर इस फैसले को तहेदिल से कबूल कर पाएगा।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh